इसी दिन कांग्रेस की नई सरकार ने पी.वी. नरसिंह राव के नेतृत्व और डॉ. मनमोहन सिंह ने वित्त मंत्री के रूप में शपथ ली थी। इससे पहले गठबंधन की राजनीति से बनी सरकारों और शीर्ष नेताओं की ढुलमुल नीतियों और राजनीतिक अस्थिरता के कारण देश की अर्थव्यवस्था बेहद बीमार हालत में थी। चंद्रशेखर की अल्पकालिक सरकार में भारत दयनीय कर्जदार हालत में दिख रहा था। यह बात अलग है कि नरसिंह राव आधुनिक भारत के निर्माता नेहरू-इंदिरा के उत्तराधिकारी राजीव गांधी द्वारा 1985 में अपनाई गई नई राह पर आगे बढ़ रहे थे। राजीव गांधी की कंप्यूटर क्रांति और अमेरिका-यूरोप से नए रिश्तों की शुरुआत में नरसिंह राव भी भागीदार थे। राष्ट्रपति आर. वेंकटरमण भी इंदिरा-राजीव के साथ मंत्रिमंडल में महत्वपूर्ण भूमिका निभा चुके थे।
मनमोहन सिंह और राव नेहरू विचारधारा के अनुयायी रहते हुए बदली सामाजिक आर्थिक स्थितियों में बड़े पैमाने पर आर्थिक चाल-ढाल बदलने का झंडा लेकर आगे बढ़ गए। दशकों तक समाजवादी-वाम विचारों वाले कांग्रेसियों के एक वर्ग, घोषित वामपंथियों, समाजवादियों एवं ‘स्वदेशी’ के शंख बजाने वाली भाजपा ने भी उदार आर्थिक नीतियों पर विश्व बैंक का ठप्पा देखकर तीखी आलोचना की थी। प्रतिपक्ष ने यह आरोप तक जड़ दिया कि वित्त मंत्री मनमोहन सिंह ने संसद में पेश करने से पहले अपने बजट प्रस्तावों का प्रारूप विश्व बैंक के आकाओं को भेज दिया था और वहां से हरी झंडी मिलने के बाद उसी फार्मूले को लागू किया।
लेकिन राव-मनमोहन की मज़बूरी यह थी कि भारत को आर्थिक संकट से उबारने में विश्व बैंक तभी सहयोग दे सकता था, जब उसे विश्वास होता कि भारत सरकार आर्थिक क्षेत्र में अपने दरवाजे और खिड़कियां बाहरी दुनिया के लिए खोलेगी। प्रारंभिक आलोचनाओं के बावजूद आर्थिक क्रांति के नगाड़ों ने देश की गाड़ी दौड़ा दी। उसी का नतीजा है कि आज अमेरिका, चीन, रूस, यूरोप, अफ्रीका में भारत को एक सफल बढ़ते हुए देश के रूप में प्रतिष्ठा मिल रही है। हां, इस आर्थिक कांति का लाभ सुदूर गांवों के करोड़ों लोगों तक पहुंचने में अभी दस-बीस वर्ष और लग सकते हैं। सही अर्थों में सुखी-संपन्न बनने के लिए राजनीतिक सामाजिक उदारता के साथ विभिन्न क्षेत्रों में अनुशासन और प्रगति के दृढ़ संकल्प की जरूरत होगी।