इसीलिए रविवार को जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने न्यायाधीशों के ग्रीष्मकालीन और शीतकालीन अवकाश पर व्यंग्य किया, तो सुप्रीम कोर्ट के प्रधान न्यायाधीश टी.एस. ठाकुर ने उन्हें और विज्ञान भवन में बैठे मुख्यमंत्रियों-अधिकारियों को बताया कि ‘श्रीमान- अवकाश के उन दिनों में अधिकांश समय बड़े प्रकरणों के फैसले लिखने में गुजरता है।’ न्याय में देरी के लिए संपूर्ण न्याय व्यवस्था पर सवाल उठाने वालों को न्यायमूर्ति श्री ठाकुर ने बेहद दुःख के साथ बताया कि ‘भारी संख्या में लंबित मामलों के लिए केवल न्यायपालिका को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता। न्यायाधीश अपनी क्षमता से अधिक काम कर रहे हैं। आखिर उनकी भी कोई सीमा है।’ देश में यह पहला अवसर था, जबकि सुप्रीम कोर्ट के प्रधान न्यायाधीश सरकार की अकर्मण्यता और राजनीतिक खींचातानी में वर्षों से जजों की नियुक्तियों में ढिलाई पर दुखी होकर सार्वजनिक कार्यक्रम में रो पड़े। जो न्यायाधीश संविधान और कानून का पालन करवाने के लिए प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति तक के निर्णयों पर असहमति के साथ कानून की समीक्षा कर न्याय देते हैं, उन्हें अपने कामकाज के लिए समुचित न्यायाधीशों की टीम तथा न्यायालयों की न्यूनतम सुविधाओं के लिए सरकार के समक्ष बेबस होना पड़ता है। इस समय विभिन्न राज्यों के 24 उच्च न्यायालयों में 434 तथा निचली अदालतों में 4,580 जजों के स्थान खाली पड़े हैं। केंद्र और राज्य सरकारें अपने पसंदीदा लोगों को रखने के लिए फाइलें घुमाती रहती हैं और पिछले दो वर्षों से तो न्यायाधीशों की नियुक्तियों में सुप्रीम कोर्ट की स्वतंत्रता और अधिकार में कटौती के लिए हर संभव राजनीतिक प्रयास हो रहे हैं। भारत में इस समय हर जज साल में 2600 मामले निपटाता है, जबकि अमेरिका के जज केवल 81 प्रकरण निपटाते हैं। देश की अदालतों में ढाई करोड़ मामले लंबित रहने का बड़ा कारण जजों की नियुक्तियों में ढिलाई, नए पदों के सृजन में कमी, और न्यायालयों के कामकाज के लिए सुविधाओं की कमी है। सुप्रीम कोर्ट के प्रधान न्यायाधीश की अभिव्यक्ति सही माने में सत्ता के पथरीले सिंहासन पर आसीन व्यवस्था की कठोरता को दर्शाती है। सत्ताधारी स्वच्छंद राज करना चाहते हैं। राजनीतिक नेताओं की शान-शौकत और मनमानी कम होने के बजाय बढ़ती जा रही है। निश्चित रूप से समाज के विभिन्न क्षेत्रों में आई गिरावट का कुछ असर न्यायपिलका पर भी हुआ है। फिर भी गंभीर शिकायत और आरोप सिद्ध होने पर दोषी न्यायाधीश दंडित भी हुए हैं। आखिरकार न्यायाधीश उसी समाज से आते हैं। लेकिन लोकतंत्र में न्याय व्यवस्था ही अंतिम आशा है। उसके आंसू रोकने के लिए सत्ता को झकझोरना और झुकना जरूरी है।
चर्चाः पत्थर का सिंहासन, न्याय के आंसू | आलोक मेहता
देश-दुनिया को न्याय दिलाने वाले भारतीय न्यायाधीशों की कोई यूनियन नहीं होती। वे नारे नहीं लगा सकते। विरोध में प्रदर्शन नहीं कर सकते। स्वयं बनाई आचार संहिता के तहत अधिकांश न्यायाधीश भव्य पार्टियों से भी बचते रहते हैं। निजी समारोह में भी कोई सार्वजनिक टिप्पणी नहीं करते। विधि संस्थानों अथवा प्रतिष्ठित संस्थानों को छोड़कर सभाओं को संबोधित करने नहीं जाते। केवल सत्य निष्ठा और निष्पक्ष न्याय उनका मूल मंत्र और लक्ष्य होता है। कानूनी ग्रंथों के अलावा अदालत में प्रस्तुत प्रकरणों की मोटी फाइलें दिन-रात पढ़ते और फैसले लिखते हैं।
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