सुप्रीम कोर्ट ने कुछ अर्सा पहले मंत्रियों की इस ‘मोहक’ शैली पर नियंत्रण के लिए एक फैसला दिया कि सरकारी प्रचार के विज्ञापनों में केवल राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश के फोटो ही छापे जा सकते हैं। सुप्रीम कोर्ट के आदेश में कहा गया था कि जनता के धन का उपयोग राजनीतिक दलों के नेता-मंत्रियों की छवि चमकाने के लिए किया जाना अनुचित है। इस फैसले के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के फोटो वाले विज्ञापन ही अधिकाधिक दिखाई दिए। लेकिन अब उनकी ही सरकार के महाधिवक्ता मुकुल रोहतगी ने सुप्रीम कोर्ट में अपील दाखिल की है कि सरकार के सभी मंत्रियों, मुख्यमंत्रियों के फोटो छापने की अनुमति दी जाए। केंद्र सरकार की अपील में तर्क यह है कि केवल प्रधानमंत्री का फोटो देने से एक व्यक्ति केंद्रित प्रचार होता है और संघीय ढांचे में अन्य नेताओं की भागीदारी जरूरी है और उनका फोटो भी छापने की छूट होनी चाहिए। सवाल यह है कि सरकार के विज्ञापन जनता में सामाजिक जागरुकता, शिक्षा-स्वास्थ्य जैसी जानकारियां पहुंचाने, महत्वपूर्ण अवसरों-कार्यक्रमों के प्रचार के लिए मंत्रियों के फोटो क्यों जरूरी हैं? आजादी के बाद केंद्र-राज्य सरकारों के सूचना-प्रसारण-प्रचार विभाग/मंत्रालय की ओर से जन-जागरुकता के लिए विज्ञापन देने की व्यवस्था हुई। धीरे-धीरे मीडिया को प्रभावित करने और कुछ हद तक उन्हें उपकृत करने के साथ सत्तारूढ़ लोगों के प्रचार के लिए विज्ञापनों के खर्च का बजट बढ़ता गया। केंद्र सरकार के विज्ञापनों का बजट दो-चार हजार करोड़ रुपये तक हो गया। दिल्ली जैसे केंद्र शासित प्रदेश की आम आदमी पार्टी की केजरीवाल सरकार ने एक साल में लगभग 600 करोड़ रुपये अपनी इमेज चकमाने वाले विज्ञापनों पर खर्च कर दिए। आश्चर्य की बात यह है कि बिहार, उ.प्र., म.प्र., तमिलनाडु या पश्चिम बंगाल जैसे विशाल राज्यों के मुख्यमंत्रियों के विज्ञापनों से कई गुना अधिक विज्ञापन केजरीवाल सरकार ने प्रदेश के बजाय राष्ट्रीय स्तर के टी.वी. समाचार चैनलों और अखबारों में दिए। हरियाणा-पंजाब की जनता के नाम उनके संदेश, आम आदमी पार्टी के प्रमुख के रूप में नहीं मुख्यमंत्री के रूप में करोड़ों रुपये खर्च कर नेशनल चैनलों पर दिख रहे हैं। इसी तरह भाजपा के अधिकांश मंत्री भी हर शिलान्यास, उद्घाटन, समर्पण, सभा-कार्यक्रम की सूचना, मंत्रालयों या सरकारी विभाग के कामकाज के प्रचार में अपना फोटो चाहते हैं। निश्चित रूप से अन्य पार्टियों की राज्य सरकारों के मंत्री भी यही चाहते होंगे। लेकिन इसी धन से गरीब बच्चों-कम शिक्षित नागरिकों को शिक्षा-स्वास्थ्य की मूलभूत सुविधा दिलाना अधिक उपयोगी नहीं हो सकता है?
चर्चाः धन जनता का, चमके चेहरे मंत्रियों के | आलोक मेहता
रेडियो पर एक गाना बहुत बजता है- ‘चेहरा न देखो, चेहरे ने लाखों को लूटा।’ यों यह गीत प्यार-मोहब्बत से जुड़ा है। लेकिन नेताओं-मंत्रियों के लिए इन शब्दों के अलग-अलग अर्थ लगाए जाते हैं। भोली भाली जनता चेहरे और वायदे पर वोट दे देती है। फिर खून-पसीने की मेहनत की कमाई का एक हिस्सा टैक्स के रूप में सरकारी खजाने को देती है। इसी सरकारी खजाने की रकम से सरकार में बैठे प्रभावशाली नेता-मंत्री अपना चेहरा चमकाए रखना चाहते हैं।
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