यह स्थिति भारत जैसे देश के लिए चिंता का विषय है। यही कारण है कि दुनिया के शीर्ष 200 विश्वविद्यालयों की सूची में भारत का कहीं नाम नहीं है। शिक्षा नीति को लेकर मौजूदा सरकार पिछली सरकारों पर निशाना साधती रही है लेकिन एक सच्चाई यह भी है कि जो भी शिक्षा नीति बनी उसका सही तरीके से पालन नहीं किया गया। 1986 में शिक्षा नीति संसद में पारित हुई थी। लेकिन पिछले तीस सालों में इस नीति की बजाय भारत की शिक्षा विश्व बैंक, विश्व व्यापार संगठन और तमाम अंतरराष्ट्रीय वित्तीय एजेंसियों के दबाव में बदलती गई। मौजूदा सरकार भी नई शिक्षा लाने की पहल कर चुकी है जिसके तहत राज्यों से सुझाव मांगे गए हैं। हर राज्य में इसको लेकर मंथन चल रहा है। मानव संसाधन विकास मंत्री स्मृति ईरानी कहती हैं कि शिक्षा नीति निर्धारण के इतिहास में पहली बार हर नागरिक को अपनी बात रखने का अवसर दिया जा रहा है। लेकिन नई शिक्षा नीति का स्वरूप क्या होगा अभी तय नहीं हो पाया है। कुछ शिक्षाविदों का जरूर मानना है कि अगर सही शिक्षा नीति अमल में लाई गई तो सरकारी और निजी संस्थानों के बीच की दूरी कम होगी क्योंकि कई निजी संस्थान मोटी फीस लेकर शिक्षा मुहैया करा रहे हैं वहीं उत्कृष्ट सरकारी संस्थानों में दाखिला मिलना मुश्किल है।
सरकार उच्च शिक्षा में बिना नेट के एम.फिल. और पी.एच.डी. करने वाले छात्रों को मिलने वाली शोधवृत्ति पर अंकुश लगाने की तैयारी में थी लेकिन छात्रों के विरोध के चलते फिलहाल मामला टल गया। जाने-माने शिक्षाविद डॉ. कृष्ण कुमार कहते हैं कि भारत में उच्च शिक्षा बहुत गहरे संकट में है। सरकार का रवैया बदल रहा है। डॉ. कुमार के मुताबिक उच्च शिक्षा में अध्यापकों की नियुञ्चित और शोध में जो निवेश होना चाहिए वह नहीं हो रहा है। ऐसे में उच्च शिक्षा को लेकर सवाल उठना लाजिमी है। केंद्र में भाजपानीत सरकार बनने के बाद से यह सवाल भी उठने लगा कि शिक्षा में किस तरह का बदलाव होगा। संघ विचारक दीनानाथ बत्रा कहते हैं कि शिक्षा का स्वरूप बदलना चाहिए। क्योंकि अभी जो शिक्षा दी जा रही है वह भारतीय परंपरा के अनुरूप नहीं है। बत्रा साफ कहते हैं कि समूचे देश में शिक्षा का भगवाकरण होना चाहिए। लेकिन उच्च शिक्षा की जो खामियां हैं उन पर कोई रणनीति नहीं बन रही है। राष्ट्रीय उच्च शिक्षा मूल्यांकन परिषद ने भी अपनी सर्वेक्षण रिपोर्ट में साफ किया है कि भारत में 68 फीसद विश्वविद्यालय और 90 फीसद कॉलेजों में उच्च शिक्षा की गुणवत्ता या तो मध्यम दर्जे की है या फिर दोषपूर्ण है।
उच्च शिक्षा को लेकर ज्यादातर विश्वविद्यालय मानकों पर खरे नहीं उतर रहे हैं। ऐसे में सवाल उठना लाजिमी है। जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के नवनियुक्त कुलपति जगदीश कुमार कहते हैं शिक्षा और तकनीक में बदलाव जरूरी है क्योंकि प्रतियोगिता के इस दौर में छात्रों को उत्कृष्ट शिक्षा प्रदान करना विश्वविद्यालय का कर्तव्य है। लेकिन चिंता इस बात की है कि देश के कई उत्कृष्ट संस्थानों से लेकर केंद्रीय विश्वविद्यालयों में 30 से 40 फीसदी शिक्षकों की सीटें खाली पड़ी हुई है। आजादी के समय देश में 27 विश्वविद्यालय हुआ करते थे आज इनकी संख्या बढक़र 740 हो गई। इनमें केंद्रीय विश्वविद्यालय की संख्या 46, निजी विश्वविद्यालय 227, राज्यों के अधीन विश्वविद्यालय 342 और डीम्ड विश्वविद्यालय की संक्चया 125 है। केंद्रीय विश्वविद्यालय, राज्यों के अधीन विश्वविद्यालय या फिर निजी विश्वविद्यालय हों, कुछ को छोडक़र सभी को लेकर एक सा नजरिया है कि पढ़ाई बेहतर नहीं होती है। कुछ विश्वविद्यालय ऐसे हैं जहां दाखिला मिलना मुश्किल है और मिल जाए तो छात्रों को गर्व महसूस होता है। ऐसे में बाकी संस्थानों को लेकर सवाल उठते रहते हैं।
लवली प्रोफेशनल यूनिवर्सिटी के चांसलर अशोक मित्तल कहते हैं कि निजी संस्थान जो सुविधाएं और शिक्षा के स्तर को लेकर काम कर रहे हैं वह सरकारी संस्थानों में नहीं हैं। इसलिए छात्रों का रूझान निजी विश्वविद्यालयों की ओर ज्यादा है। उच्च शिक्षा को लेकर सरकार की भी नीति स्पष्ट नजर नहीं आ रही है। नोबेल पुरस्कार से सम्मानित अर्थशास्त्री प्रोफेसर अमृत्य सेन भी भारत में उच्च शिक्षा को गुणवत्तापूर्ण नहीं मानते। प्रो. सेन कहते हैं कि भारत की उच्च शिक्षा और विशेष दक्षता के क्षेत्र में कई उपलब्धियां हैं। लेकिन हमारी शिक्षा व्यवस्था अभी पूरी तरह से न्याय पूर्ण नहीं है। अन्य बुरे प्रभावों को देखे तो भारत में उच्च शिक्षा की पहुंच और गुणवत्ता की स्थिति कमजोर हैं। इससे हमारी आर्थिक विकास की क्षमता प्रभावित हो रही है। शिक्षाविद् भी मानने लगे हैं कि विश्वविद्यालयों की संख्या भले ही बढ़ गई हो लेकिन कुलपतियों के स्तर में भारी गिरावट आई है जो चिंता का विषय है। इन दिनों एक प्रचलन और बढ़ गया है कि शिक्षाविद नहीं बल्कि राजनीतिक दलों के हितों को साधने वाले प्रोफेसरों को कुलपति बनने में तरजीह दी जाती है। यही कारण है कि कुलपतियों की भूमिका को लेकर भी समय-समय पर सवाल उठते रहे हैं।
कुछ ही समय पहले की बात है जब बिहार में नौ कुलपतियों की नियुक्ति को रद्द कर दिया गया। इसी तरह से झारखंड में एक कुलपति को अयोग्य नियुक्ति करने के आरोप में गिरफ्तार किया गया था। इसी तरह पंजाब में भी एक विश्वविद्यालय के कुलपति को संस्थान की जमीन निजी बिल्डर को देने का आरोप लगा था। राष्ट्रीय ज्ञान आयोग और यशपाल कमेटी दोनों ने कहा था कि कोई भी व्यक्ति किसी भी विश्वविद्यालय का कुलपति बनने के योय नहीं समझा जाएगा जब तक वह इस पद के मानक पर खरा नहीं उतरता। इन दिनों एक नया ट्रेंड चल गया है कि कुलपति के पद के लिए रिटायर्ड सैन्य अधिकारियों व भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारियों को तरजीह दी जाने लगी है। एक अध्ययन के मुताबिक भारत सरकार के अधीन आने वाले विश्वविद्यालयों में से एक तिहाई कुलपतियों के पास पीएचडी की डिग्री नहीं है। साल 1964 में कोठारी आयोग ने सिफारिश की थी कि सामान्य तौर पर कुलपति एक जाना माना शिक्षाविद या प्रतिष्ठित अध्येता होगा। अगर कहीं अपवाद की जरूरत पड़ती भी है तो इस मौके का इस्तेमाल उन लोगों को पद बांटने के लिए नहीं करना चाहिए। जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति बीबी भट्टाचार्य का मानना है कि कमतर दर्जे के कुलपति की नियुक्ति का सबसे बड़ा नुकसान ये होता है कि उसका आत्मविश्वास नहीं के बराबर होता है। इसलिए वो अपने से कम काबिल प्रोफेसरों की नियुक्ति करता है जो कि शिक्षा के लिए बड़ा खतरा है।
वहीं जामिया मिलिया इस्लामिया विश्वविद्यालय के कुलपति रहे नजीब जंग कहते हैं कि उच्च शिक्षा में आ रहे शिक्षकों की गुणवत्ता को लेकर चितिंत हूं क्योंकि जो मानक तय किए गए हैं वह उच्च शिक्षा के लिए काफी नहीं है। राज्यों में उच्च शिक्षा का हाल तो और भी बुरा है। बिहार में कभी नालंदा जैसे संस्थान विश्व पटल पर नाम कमा रहे थे वहीं आज उच्च शिक्षा के लिए राज्य के छात्रों को दूसरे राज्यों की ओर रुख करना पड़ रहा है। पूर्व केंद्रीय मंत्री सीपी ठाकुर कहते हैं कि उच्च शिक्षा को लेकर बिहार की स्थिति ऐसी है कि देश के 60 उत्कृष्ट विश्वविद्यालयों में बिहार का एक भी नहीं है। उसी तरह से उच्च शिक्षा के क्षेत्र में उत्तर प्रदेश के सरकार द्वारा वित्त पोषित दो दर्जन विश्वविद्यालयों और कालेजों के अलावा एक दर्जन प्राइवेट विश्वविद्यालय और स्ववित्तपोषित कालेज योगदान कर रहे हैं। लेकिन, खेद का विषय है कि प्रदेश के विश्वविद्यालयों की गिनती ग्लोबल रेटिंग में आ ही नहीं पाती।
उत्तर प्रदेश में उच्च शिक्षा की गुणवत्ता की हालत यह है कि आधारभूत संरचना की कमियों से लेकर कक्षाओं की सुचारु व्यवस्था से और परीक्षाओं की शुचिता पर निरंतर प्रश्न उठते रहे हैं। इसका एक बड़ा कारण है उच्च शिक्षा पर दोहरा नियंत्रण। प्रदेश के विश्वविद्यालयों में शिक्षकों के 40 प्रतिशत से अधिक पद लंबे अर्से से खाली पड़े हैं। जहां तक स्ववित्तपोषित आधार पर अंडर ग्रेजुएट तथा पोस्ट ग्रेजुएट कॉलेजों का प्रश्न है, अनेक मामलों में पाया गया कि शिक्षा धंधा बनकर रह गई है। विश्वविद्यायलों द्वारा ऐसे कॉलेजों को मान्यता दे दी गई है जो कि मानदंडों पर खरे नहीं उतर रहे। प्रदेश के एक-एक विश्वविद्यालय से चार-पांच सौ की संख्या में कालेजों की संबद्धता स्वयं शिक्षा की गुणवत्ता पर नियंत्रण के लिए एक बड़ी चुनौती है। विश्वविद्यालयों और कालेजों में यूजीसी मानदंडों के मुताबिक न्यूनतम 180 दिन कक्षाएं चलाने के नियम को दरकिनार कर दिया गया। सेमेस्टर पद्धति अभी लागू नहीं हो पाया है। स्मार्ट और वर्चुअल क्लास रूम कहीं-कहीं ही दिखाई पड़ता है। 10 प्रतिशत से कम कालेजों और केवल आठ विश्वविद्यालयों ने अपने 'नैक’ मूल्यांकन कराया है, जो यूजीसी नियमों के अनुसार बेहद आवश्यक है। शोध की हालत शायद यूपी में सबसे बदतर है। लगभग छह साल पहले राज्य स्तरीय संयुक्त शोध प्रवेश परीक्षा के बाद अब तक विश्वविद्यालयों में शोध प्रवेश परीक्षा ही नहीं आयोजित हुई। शोध में मनमानी और नियम विरुद्ध कार्यप्रणाली की अनेक जांच चल रही है। इसके बावजूद कोई सुधार दिखाई नहीं पड़ता।
पश्चिम बंगाल और उड़ीसा में शिक्षा के क्षेत्र में निजी पूंजी निवेश जबरदस्त बढ़ा है। पिछले दो वित्त वर्षों के दौरान इन राज्यों में 50 हजार करोड़ रुपए से ज्यादा का निवेश निजी कोचिंग इंस्टीट्यूट और उच्च शिक्षण संस्थान खोलने में किया गया है। पश्चिम बंगाल में 25 तकनीकी शिक्षण संस्थान चलाने वाले जेआईएस ग्रुप के महानिदेशक तरनजीत सिंह कहते हैं, दुर्गापुर, कल्याणी, बैरकपुर, आसनसोल जैसे बंगाल के टीयर- टू शहरों में संस्थान खूब खुल रहे हैं। उनके संस्थान को हाल में ऑटोनॉमस दर्जा मिला है। एमेटी यूनिवर्सिटी ने पश्चिम बंगाल में चार हजार करोड़ रुपए के निवेश से कैंपस तैयार करने की घोषणा की है। ब्रेनवेयर और टेक्नो इंडिया को पश्चिम बंगाल सरकार ने विश्वविद्यालय का दर्जा दे रखा है। भुवनेश्वर स्थित कलिंगा इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नीकल यूनिवर्सिटी में भी बेहतर प्लेसमेंट के कारण छात्रों का रूझान निजी संस्थानों की ओर बढ़ा है।
साथ में लखनऊ से अमितांशु पाठक, कोलकाता से दीपक रस्तोगी