जो तुम बोल रहे हो उससे मैं असहमत हो सकता हूं लेकिन तुम्हारे बोलने की आजादी के लिए मैं अंतिम सांस तक लड़ूंगा।
- फ्रांसीसी दार्शनिक वॉल्टेयर
देश में मौलिक अधिकारों की चर्चा जोरों पर है। सुप्रीम कोर्ट ने निजता को नागरिकों का मौलिक अधिकार करार दिया है। आधार योजना को लेकर यह बहस शुरू हुई थी कि निजता मौलिक अधिकार है या नहीं? नौ जजों की संविधान पीठ ने 1954 और 1962 में दिए गए फैसलों को पलटते हुए गुरुवार को कहा कि निजता का अधिकार मौलिक अधिकार ही है।
ऐसे में जरूरी है कि मौलिक अधिकारों की बात की जाए। ये अधिकार देश के हर नागरिक को पता होने चाहिए। जब संविधान बन रहा था, तब मौलिक अधिकारों को संविधान में जोड़ने का मकसद लोगों की व्यक्तिगत स्वतंत्रता और लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षा करना था। भीमराव अंबेडकर ने कहा था कि विधायिका का काम केवल मौलिक अधिकार प्रदान करना नहीं बल्कि उनकी रक्षा करना भी है।
मौलिक अधिकारों का कांसेप्ट संयुक्त राज्य अमेरिका के संविधान से लिया गया है।
संविधान के भाग-3 में शुरू में मूल रूप से सात मौलिक अधिकार थे - समानता का अधिकार, स्वतंत्रता का अधिकार, शोषण के विरुद्ध अधिकार, धर्म की स्वतंत्रता का अधिकार, संस्कृति और शिक्षा संबंधी अधिकार, संपत्ति का अधिकार और संवैधानिक उपचारों का अधिकार। हालांकि 1978 के 44वें संवैधानिक संशोधन में संपत्ति का अधिकार भाग-3 से हटा दिया गया। संविधान की तरफ से फिलहाल छह मौलिक अधिकार मिले हुए हैं। ये अनुच्छेद 14 से अनुच्छेद 35 तक फैले हुए हैं।
मौलिक अधिकार विधायिका और कार्यपालिका की शक्तियों पर लगाम भी लगाते हैं और अगर स्टेट इनका उल्लंघन करने की कोशिश करता है तो न्यायपालिका मौलिक अधिकारों की रक्षा करती है। लेकिन ये अधिकार असीमित नहीं हैं। इन पर युक्तियुक्त प्रतिबंध भी लगाए गए हैं।
आइए, इन मौलिक अधिकारों पर नजर डालते हैं-
1. समानता का अधिकार- अनुच्छेद 14 से 18
अनुच्छेद 14- विधि के समक्ष समानता।
अनुच्छेद 15- धर्म, वंश, जाति, लिंग और जन्म स्थान आदि के आधार पर भेदभाव नहीं किया जाएगा।
अनुच्छेद 16- लोक नियोजन के विषय में अवसर की समानता।
अनुच्छेद 17- छुआछूत (अस्पृश्यता) का अंत कर दिया गया है।
अनुच्धेद 18- उपाधियों का अंत कर दिया गया है।
2. स्वतंत्रता का अधिकार- अनुच्छेद 19 से 22
अनुच्छेद 19- बोलने, जमा होने, संघ या यूनियन बनाने, आने-जाने, रहने और कोई भी जीविकोपार्जन एवं व्यवसाय करने की स्वतंत्रता का अधिकार।
अनुच्छेद 20- अपराधों के लिए दोषसिद्धि के संबंध में संरक्षण।
अनुच्छेद 21- प्राण और दैहिक स्वतंत्रता का संरक्षण।
अनुच्छेद 22- कुछ स्थितियों में गिरफ्तारी से संरक्षण।
3. शोषण के विरुद्ध अधिकार- अनुच्छेद 23 से 24
अनुच्छेद 23- मानव दुर्व्यापार और जबरन श्रम करवाने का निषेध।
अनुच्छेद 24- कारखानों आदि में 14 वर्ष तक के बच्चों को काम करवाने से मना किया गया है।
4. धर्म की स्वतंत्रता का अधिकार- अनुच्छेद 25 से 28
अनुच्छेद 25- अंत:करण की और धर्म की अबाध रूप से मानने, आचरण और प्रचार करने की स्वतंत्रता।
अनुच्छेद 26- धार्मिक कार्यों के प्रबंध की स्वतंत्रता।
अनुच्छेद 27- किसी विशिष्ट धर्म की अभिवृद्धि के लिए करों के संदाय के बारे में स्वतंत्रता।
अनुच्छेद 28- कुछ शिक्षा संस्थाओं में धार्मिक शिक्षा या धार्मिक उपासना में उपस्थित होने के बारे में स्वतंत्रता
5. संस्कृति और शिक्षा संबंध्ाी अधिकार- अनुच्छेद 29 से 30
अनुच्छेद 29- किसी भी वर्ग के नागरिकों को अपनी संस्कृति सुरक्षित रखने, भाषा या लिपि बचाए रखने का अधिकार।
अनुच्छेद 30- अल्पसंख्यक-वर्गों के हितों का संरक्षण, शिक्षा संस्थाओं की स्थापना और प्रशासन करने का अल्पसंख्यक-वर्गों का अधिकार।
- अनुच्छेद 31 में पहले संपत्ति का अधिकार था, जिसे 44वें संवैधानिक संशोधन में भाग-3 से हटा दिया गया।
6. संवैधानिक उपचारों का अधिकार- अनुच्छेद 32 से 35
भीमराव अंबेडकर ने संवैधानिक उपचारों के अधिकार (अनुच्छेद 32-35) को 'संविधान का हृदय और आत्मा' की संज्ञा दी थी। संवैधानिक उपचार के अधिकार के अन्दर पांच प्रकार के प्रावधान हैं-
बन्दी प्रत्यक्षीकरण : बंदी प्रत्यक्षीकरण द्वारा किसी भी गिरफ्तार व्यक्ति को न्यायालय के सामने प्रस्तुत किए जाने का आदेश जारी किया जाता है। अगर गिरफ्तारी का तरीका या कारण गैरकानूनी हो या संतोषजनक न हो तो न्यायालय व्यक्ति को छोड़ने का आदेश जारी कर सकता है।
परमादेश : यह आदेश उन परिस्थितियों में जारी किया जाता है जब न्यायालय को लगता है कि कोई सार्वजनिक पदाधिकारी अपने कानूनी और संवैधानिक कर्तव्यों का पालन नहीं कर रहा है और इससे किसी व्यक्ति का मौलिक अधिकार प्रभावित हो रहा है।
निषेधाज्ञा : जब कोई निचली अदालत अपने अधिकार क्षेत्र को अतिक्रमित कर किसी मुक़दमें की सुनवाई करती है तो ऊपर की अदालतें उसे ऐसा करने से रोकने के लिए 'निषेधाज्ञा या प्रतिषेध लेख' जारी करती हैं।
अधिकार पृच्छा : जब न्यायालय को लगता है कि कोई व्यक्ति ऐसे पद पर नियुक्त हो गया है जिस पर उसका कोई कानूनी अधिकार नहीं है तब न्यायालय 'अधिकार पृच्छा आदेश' जारी कर व्यक्ति को उस पद पर कार्य करने से रोक देता है।
उत्प्रेषण रिट : जब कोई निचली अदालत या सरकारी अधिकारी बिना अधिकार के कोई कार्य करता है तो न्यायालय उसके समक्ष विचाराधीन मामले को उससे लेकर उत्प्रेषण द्वारा उसे ऊपर की अदालत या सक्षम अधिकारी को हस्तांतरित कर देता है।