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मेहरबानी सरकार की

गुजरात में बहुत से लोगों के लिए केंद्र सरकार के एक साल पूरा होते न होते अच्छे दिन आ गए हैं। जिनके दिन और रात पहले से काले थे, उन्हें अब अमावस्या में जीने की सलाह दी जा रही है। आज की वारीख में चाहे वह इशरत जहां का फर्जी एनकाउंटर का मामला हो या सोहराबुद्दीन की हत्या का, सब मामलों में तमाम आरोपियों को जेल से मुक्ति, मुकदमों से मुक्ति की राह निकल पड़ी है। दोषियों, आरोपियों की रिहाई की यह रेल जिस तेजी से चल रही है, उसमें 2002 गुजरात नरंसहार के दोषियों को भी मुक्ति की आस बंध गई है।
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आखिरकार ग्यारह साल पुराने इशरत जहां की हत्या के मामले में न्याय मिल पाने की आखिरी उम्मीद को भी लगभग खत्म करते हुए केंद्रीय गृह मंत्रालय ने एक वरिष्ठ खुफिया अधिकारी राजिंदर कुमार के खिलाफ अभियोग चलाए जाने की इजाजत केंद्रीय जांच ब्यूरो को देने से साफ इनकार कर दिया। उसने कहा कि एजेंसी के पास उक्त अधिकारी की लिप्तता के पर्याप्त साक्ष्य नहीं हैं। 

इस तरह नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली केंद्र की एनडीए सरकार के एक साल के कार्यकाल में वह सब हो गया है जो यूपीए की सरकार के दस साल के कार्यकाल में नहीं हो पाया था। यूपीए की सरकार दस साल में भी गुजरात में आतंकवादियों व अपराधियों से लड़ने की बिनाह पर हुई फर्जी मुठभेड़ों के दोषियों को सजा नहीं दिला पाई जबकि एनडीए के सत्ता में आने के एक साल के भीतर ही उन तमाम मामलों में फंसे नेता-अफसर या तो बरी हो गए या जमानत पर जेल से रिहा होकर फिर से ऊंचे पदों पर तैनात हो गए। सत्ता बदलते ही अभियोजन के रंग कैसे बदल जाते हैं, इसका गुजरात के इन मामलों से बेहतर कोई और उदाहरण नहीं हो सकता है। सामाकि कार्यकर्ता और अनहद संस्था से संबद्ध शबनम हाशमी गहरे अवसाद के साथ कहती हैं कि मोदी सरकार को ये सब तो करना ही था। आज इशरत, सोहराबुद्दीन को मारने वाले आजाद हैं तो कल सोचिए वे कहां पहुंचेंगे। 

इशरत जहां मामले की जांच सीबीआई के हाथों में थी और उसने आईबी अधिकारी राजिंदर कुमार पर हत्या और आपराधिक साजिश का आरोप लगाया था और आर्म्स एक्ट में भी उनके खिलाफ मामला दायर किया था। एजेंसी ने तीन अन्य सेवारत आईबी अधिकारियों- पी. मित्तल, एम.के. सिन्हा व राजीव वानखेड़े पर इस मामले में साजिश और अवैध तरीके से किसी को पकड़े रखने का मामला लगाया था। इतना सब करने के बावजूद सीबीआई दो सौ पन्ने की चार्जशीट में इन अधिकारियों की लिप्तता का कोई मकसद नहीं खोज पाई। 

19 साल की इशरत जहां तथा तीन अन्य लोगों की हत्या 2004 में कर दी गई थी। सीबीआई ने जांच में पाया था कि चारों लोगों की निर्मम हत्या की गई थी। एजेंसी के अनुसार कुमार ने न केवल साजिश तैयार की थी बल्कि गुजरात पुलिस को चारों लोगों को मारने में प्रयुक्त हथियार भी उपलब्‍ध कराए थे। राजिंदर कुमार ने ही वह एके-56 राइफल भी उपलब्‍ध कराई थी। इस मामले में गुजरात पुलिस के जिन सात अफसरों को अभियुक्त बनाया गया था, वे सब भी जमानत पर जेल से बाहर हैं। इसी साल फरवरी के पहले हफ्ते में गुजरात के पूर्व पुलिस प्रमुख पीपी पांडे को भी जमानत मिल गई थी। वह घटना के समय अहमदाबाद क्राइम ब्रांच के मुखिया थे। जमानत मिलने के पांच ही दिन बाद उनका निलंबन वापस लेते हुए गुजरात सरकार ने उन्हें कानून व व्यवस्था का प्रभार देते हुए अतिरिक्त पुलिस महानिदेशक बना दिया। पांडे के एक ही दिन बाद 5 फरवरी को गुजरात पुलिस के सबसे विवादास्पद अफसरों में से एक डी.जी. वंजारा  को भी इशरत जहां मामले में ही जमानत मिल गई थी। वंजारा 2007 में गिरफ्तार होने के बाद से ही जेल में थे। हालांकि तत्कालीन डीआईजी वंजारा की गिरफ्तारी सोहराबुद्दीन शेख की फर्जी मुठभेड़ के सिलसिले में हुई थी लेकिन बाद में उन्हें इशरत जहां, तुलसीराम प्रजापति, सादिक जमाल तथा अन्य लोगों की मुठभेड़ों में भी अभियुक्त बनाया था। 

सोहराबुद्दीन शेख मामले में अभियुक्त रहे पुलिस अफसर अभय चुदास्मा व राज कुमार पांडियान, और इशरत जहां मुठभेड़ में अभियुक्त रहे जी.एल सिंघल पहले ही जमानत पर बाहर आकर फिर से नई सम्मानित नियुक्तियां पा चुके हैं। चुदास्मा की बहाली तो पिछले साल 15 अगस्त को ही गई और उन्हें अधीक्षक डीजीपी विजिलेंस स्कवॉयड बना दिया गया। खुद भाजपा अध्यक्ष अमित शाह को दिसंबर 2014 में सीबीआई की विशेष अदालत ने सोहराबुद्दीन शेख, तुलसीराम प्रजापति व कौसर बी की हत्या के मामले से बरी कर दिया था। पिछले एक साल में जमानत और बरी होने का यह सिलसिला लोकतंत्र के बिगड़ते स्वरूप की नजीर है।

 

 

 

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