हाशिमपुरा में 42 मुसलमानों के नरसंहार के आरोप से पीएसी के 16 जवानों को बरी करने के दिल्ली की एक अदालत के फैसले ने संभवतया उन कई घटनाओं को भी दफन कर दिया है जो उसका कारण रही। इनमें एक ऐसी घटना भी थी जो सीआईडी की जांच में सामने आने के बावजूद तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी के दफ्तर में (इरादतन) नजरअंदाज कर दी गई। 22 मई 1987 को उन 42 लोगों के कत्ल से ठीक एक रात पहले मेरठ के सिविल लाइंस पुलिस थाने में एक और मौत दर्ज हुई थी। आरोप यह था कि हाशिमपुरा की तरफ से किसी ने गोली दागकर 23 साल के प्रभात कौशिक को मार दिया था, जो आरएसएस का कार्यकर्ता था। गोली लगने के वक्त प्रभात अपनी रिश्तेदार व तेज-तर्रार भाजपा नेता शकुंतला कौशिक के घर की छत पर खड़ा था। इस वारदात के 14 घंटे से भी कम समय बाद मेरठ में तैनात प्रभात के बड़े भाई मेजर सतीश चंद्र कौशिक ने अपने दो अन्य अफसरों मेजर बी.एस. पठानिया और कर्नल पी.पी. सिंह के साथ हाशिमपुरा में घर-घर जाकर तलाशी शुरू कर दी। इन अफसरों ने मुसलमान युवाओं को घरों से बाहर खींच-खींचकर दुर्दांत मानी जाने वाली पीएसी के जवानों के सुपुर्द कर दिया। आउटलुक के पास मौजूद दस्तावेजों के अनुसार प्रभात की हत्या के बाद जो घटनाएं घटीं, उनमें सेना व पीएसी की लिप्तता का साफ संकेत मिलता है।
हाशिमपुरा में मेजर कौशिक की मौजूदगी उत्तर प्रदेश के सीबी-सीआईडी (क्राइम ब्रांच-क्राइम इनवेस्टीगेशन डिपार्टमेंट) की उस शुरुआती ‘गोपनीय’ जांच में दर्ज भी की गई थी जो उस समय प्रधानमंत्री के कार्यालय को सौंपी गई थी। उस समय राजीव गांधी प्रधानमंत्री थे और मेरठ सांप्रदायिक उन्माद की गिरफ्त में था। सीआईडी के एसपी एस.के. रिजवी ने 22 जून 1989 को दर्ज रिपोर्ट में लिखा थाः “घटना के तुरंत बाद प्रेस में इस तरह के कयास लगाए गए थे कि मोहल्ला हाशिमपुरा में 21.5.87 को गोली लगने से स्थानीय तैनात मेजर सतीश चंद्र कौशिक के भाई की मौत हो गई थी। यह कहा जा रहा है कि इस निजी त्रासदी का बदला लेने के लिए ही मेजर सतीश चंद्र कौशिक ने ऊपरी गंगा और हिंडन नहर के पास हाशिमपुरा के बाशिंदों की हत्या की साजिश रची।”
सेना से बाद में कर्नल के तौर पर रिटायर हुए मेजर कौशिक की नरसंहार में भूमिका को लेकर इस संदेह के बावजूद इस आशंका की ओर इशारा करने वाली सीआईडी ने ही न तो उनकी जांच की और न ही उनका कोई बयान दर्ज करने की कोशिश की। हाशिमपुरा में तलाशी के लिए न तो वारंट हासिल किए थे और न ही किसी तलाशी या गिरफ्तारी का कोई रिकॉर्ड रखा गया। जांच अधिकारियों ने प्रभात के पिता दीप चंद्र शर्मा का बयान दर्ज करने के अतिरिक्त कुछ न किया जिसमें उन्होंने कहा कि प्रभात के शव का पोस्टमार्टम नहीं किया गया था क्योंकि दंगे की स्थिति में पोस्टमार्टम करने में काफी वक्त लग जाता।
पीएमओ को भेजे गए गोपनीय नोट में आगे कहा गया कि हालांकि “हाशिमपुरा में तलाशी के लिए तैनात किए गए सेना व सीआरपीएफ कर्मियों के बयानों को दर्ज किया जाना भी इस जांच के लिए बहुत जरूरी है लेकिन सेना व सीआरपीएफ अधिकारियों से बार-बार अनुरोध किए जाने के बावजूद अब तक कोई भी बयान दर्ज कराने के लिए नहीं आया है। वहीं हाल ही में मेरठ में सब-एरिया मुख्यालय से एक जवाब प्राप्त हुआ है जिसमें और वक्त मांगा गया है। उनके बयान दर्ज करने की कोशिशें जारी हैं।”
यह सारा खुलासा पीएमओ को भेजे गए सीआईडी नोट (जो आउटलुक के पास है) में था। लेकिन अब यह पता नहीं कि क्या इनमें से किसी भी खुलासे को सरकार ने स्वीकार किया या उसपर कोई कार्रवाई की। पीएमओ को बाद में सीआईडी द्वारा भेजी गई आगे की रिपोर्टों में मेजर की भूमिका का कहीं कोई जिक्र नजर नहीं आता। हकीकत यही है कि 27 साल चली सुनवाई में आज तक सेना की तरफ से किसी का भी बयान दर्ज नहीं किया गया। जांच में हत्याओं में मेजर की संभावित भूमिका का कहीं कोई जिक्र उसके बाद नहीं मिलता। वहीं सेना भी बार-बार भेजे गए सम्मन और नवंबर 2013 में रक्षा मंत्रालय को भेजे गए नोटिस के बावजूद उस समय तलाशी अभियान की कमान संभाल रहे मेजर पठानिया की कोर्ट में गवाही को सुनिश्चित करने में नाकाम रही।
हालांकि कई लोग यह मानने वाले भी हैं कि पीएमओ को सीआईडी की यह रिपोर्ट महज पीएसी की बर्बर सांप्रदायिक कार्रवाई से ध्यान हटाने की कोशिश थी। लेकिन यह बात चौंकाने वाली है कि राजीव गांधी के पीएमओ के ध्यान में इतने पुख्ता संदेह लेकर आए गए और उन्होंने कायदे से जांच करने और हत्यारों को दोषी ठहराए जाने को सुनिश्चित करने के लिए कुछ भी नहीं किया।