ममता कालिया
बोली, बानी, स्वाद
मथुरा, तो कब की छूट गई लेकिन मेरी बोली, बानी, स्वाद और याद में जब-तब झलक मार जाती है। मैं इसे बदलने की कोशिश भी नहीं करती। आज भी मैं इमली की चटनी को ‘सोंठ’, गोलगप्पों को ‘बताशे’, जरा को ‘नैक’ और काशीफल को ‘कौला’ बोल देती हूं। हमारे लिए मथुरा का मतलब था छुट्टियां, कभी गर्मियों की, कभी दशहरे की। थोड़े दिन दादी-बाबा के पास रहते, थोड़े दिन मामा-मामी के पास।
जमना घाट
दादी का एक पैर फोड़े के कारण लाचार हो गया था। वे जमनाजी नहीं जा पाती थीं लेकिन हम किसी के भी पीछे लगकर सबेरे जमनाजी के नहान पर निकल पड़ते। मेरा ख्याल है, दो-एक गली और एक बाजार का गोल चौक पार करके हम बिसरांत घाट पहुंच जाते। ‘विश्रांति घाट’ नाम रखा होगा किसी विद्वान ने। हमारे मुंह में तो ‘बिसरांत’ था। वहां चट्टान जैसे कछुए देखकर मुझे बहुत डर लगता। हमारी कोई न कोई बुआ हमेशा आई हुई होतीं। पड़ोस की सब औरतें चाची-ताई कहलातीं। साथ गई चाची कहतीं, ‘छोरियों नेक ठाड़ी रहियो।’ वे आटे की गोलियां बना-बना कर किनारे से दूर फेंकतीं और कछुए लुप्प से पानी में गोता मारकर खिसक जाते। मथुरा में हम कभी नाव पर बैठकर नहीं नहाए। हमेशा घाट पर, किनारे-किनारे नहाए।
बेड़मी तरकारी
लौटते में हम बहनें भीजी सिमटती-सिहरती, लटपट चलतीं कि चौक पर हमारी टोली थम जाती। बेनी हलवाई की कढ़ाई में गरमा-गरम बेड़मी का घान उतर रहा होता। सामने दो पतीलों में आलू का रसा और कौला की सूखी सब्जी। ढाक के हरे दोने में हमें सौंधी बेड़मी तरकारी खाने को मिलती। अहा वह मथुरा का स्वाद, वह आलू का रसा, कौले का छिलके समेत सूखा साग, इसका स्वाद जिह्वा पर से कभी नहीं जाएगा। बाजार में नारियल के बड़े गोल चकपहिए जैसे सफेद छल्ले मिलते, एक पैसे में दो। मम्मी हमें दो-दो छल्ले दिलातीं, हम उन्हें हाथों में पहनते और बाहें ऊपर कर घर पहुंचते। उनकी गोराई देख-देख लट्टू होते रहते। काफी देर बाद हम उन्हें खा डालते।
सावन का झूला
सावन हो या न हो, हमारे जाने पर लंबे कमरे की छत से झूला जरूर डलता। आढ़त का मजदूर रामप्रिय था, उसे सारा घर पिया बुलाता। पिया कुंडे में मोटी रस्सी की गांठ बांधता। नसैनी से नीचे उतर, रस्से के दोनों किनारों पर गांठ लगाता। फिर चौड़ी, चिकनी काठ की पटरी के कटे हिस्से रस्सी में फंसा कर उसे नीचे दबाकर समतल करता। फिर दादी से कहता, “जीजी जांच लो कछू कसर तो नायं। लाली झूल लेंगी।’’
दादी की कहानी
दादी को कहानी सुनाने का बड़ा चाव रहता। गली से दोपहर के वक्त एक आदमी गुजरता। उसका मुंह एक तरफ घूमा हुआ रहता। दादी उसे दिखाती हुई हमसे कहतीं, “बेबी मुन्नी, तुमने या कन्हैया का किस्सौ सुनौ है कि नायं।” “नईं’ दादी, सुनाओ, सुनाओ।” हम कहतीं। दादी बोलती, “एक बार इसको बड़े लालाजी ने बीस आने दिए। उन्होंने कहा, “हमारा चंदरभान आज दस पूरा होकर ग्यारहवें में लगा है। मैं संग्रहणी का रोगी, कैसे जाऊं द्वारकाधीश। ऐसा कर तू दर्शन भी कर अइयो और ये ले बीस आने। इनसे जी खोलकर चढ़ावा-गोला, सुपाड़ी, पान, फूल, मोदक चढ़ा आना। जे ले चांदी की लुटिया। इसी में जल भर लइयो।” अरे छोरियों वा दिन और आज का दिन। जे कन्हैया तो बड़े लालाजी की पौली पर पैर धरनों ही भूल गयौ। जित्ती बाद उसके घर संदेसा भिजवाएं ये कहला दे, पैर में चोट है, घेंटू में मोच है, गर्दन अकड़ी भई है। मुनीमजी ने याके घर जा कर कहा, “अरे कन्हैया वा चांदी की लुटिया तो दे दे, बहूजी ने कहा है।” कन्हैया बोला, “लुटिया तो बा दिन जमनाजी में बहती धारा में हाथ से छूट गई।” उसी दिना से याको म्हौड़ो, टेढ़ौ होनो शुरू भया तो रुकई नईं। बताओ, एक झूठ ने कै काम खराब करे। तो, छोरियो झूठ बोलने बारे की जे दसा होती है, सो जानियो।” हम दोनों बहनें डर जातीं। रात में सोने से पहले वे छोटे-मोटे झूठ याद आते जो अब तक मैं बोल चुकी थी। कहीं मुंह टेढ़ा होना शुरू हो गया तो! बाद में पाया कि मथुरा में सारे के सारे लोग सत्यवादी रहे हों, ऐसा भी नहीं था। झूठ बोलने वाले का मुंह कभी टेढ़ा नहीं दिखा बल्कि पकड़नेवाले का ही टेढ़ा दिखा। चौबों और बनियों से आबाद मथुरा में बाकी जातियां आटे में नमक की तरह हिल-मिल कर रहतीं। उनका कुनबा अलग से पता न चलता।
लंगोटधारी
कुएं की जगत पर तीन-चार लोगों का जमावड़ा दिखता, तो पापा हमें इशारे से थोड़ा हटकर चलने को कहते। कमर के ऊपर कपड़े पहनने में उन लोगों का कोई विश्वास नहीं था। ज्यादातर वे लाल लंगोटधारी होते। एक आदमी बड़े से सिल बट्टे पर ठंडाई घोटता नजर आता। फिर दो आदमी अंगोछे में ही ठंडाई छानने का काम कर लेते।
ठंडाई और चश्मा
मम्मी कहतीं, “ये भांग घोट रहे हैं। इनसे दूर रहो।” तभी जगत से उतर कर एक आदमी पापा के बिल्कुल पास आकर कहता, “बिददाभूसण है का? तूने कई थी मोय चसमा दिबायगौ। बिसर गयौ का। ला दे दो रुपइया। मैं नैक याकी टूटी तनी तो बनवाय लूं।” पापा देखते उसका चश्मा एक तरफ डोरी से बंधा कान पर टिका है। पापा जेब से निकाल कर दो रुपए दे देते। कई दिन बाद जब हम उसी रास्ते से गुजरते, तो देखते वह आदमी उसी तरह डोरी से बंधा चश्मा आंखों पर चढ़ाए भांग की ठंडाई घोट रहा है!