यह बात योजना आयोग के पूर्व सचिव एवं संयुक्त राष्ट्र विकास योजना के सलाहकार एन.सी. सक्सेना ने भी मानी है। उनके कार्यकाल में ही महात्मा गांधी ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना बनी और क्रियान्वयन ठीक से नहीं होने के कारण कई क्षेत्रों में पूरी तरह सफल नहीं हो पाई। मनरेगा ही नहीं समन्वित बाल विकास सेवा, राष्ट्रीय सार्वजनिक वितरण प्रणाली, शहरी ग्रामीण और स्वच्छ भारत मिशन में भी कार्यक्रमों का सही क्रियान्वयन नहीं हुआ है। आंकड़े कुछ भी दिखा दिए जाते हों, जमीनी सच्चाई उसके विपरीत होती है। राज्य सरकारें केंद्र से धनराशि की मांग करती हैं और अनुकूल राजनीतिक वातारण होने पर धन का आवंटन हो जाता है। बाद में लेखा-जोखा करने पर साबित होता है कि प्रशासनिक गड़बड़ी अथवा राजनीतिक ढिलाई से समुचित धनराशि खर्च ही नहीं हुई। कहीं सीएजी की रिपोर्ट आने पर भंडाफोड़ होता है कि धन के खर्च में फर्जीवाड़ा हो गया। कुछ राज्य सरकारें नोबल पुरस्कार विजेता अमर्त्य सेन तक के सामने विकास रिपोर्ट पेश कर सफलता का प्रमाण-पत्र ले आती हैं। देर-सबेर उनकी रिपोर्ट ही गड़बड़ पाई जाती है। भारत सरकार में कुपोषण के 2013-14 में जो आंकड़े दिए, उसमें केवल 2 प्रतिशत कुपोषण की स्थिति दर्शाई गई। लेकिन कुछ समय बाद यूनिसेफ की लंबी-चौड़ी पड़ताल के बाद रिपोर्ट में यह तथ्य उजागर हुआ कि विभिन्न राज्यों ने 9.4 प्रतिशत कुपोषण की स्थिति है। शिक्षा और स्वास्थ्य पर जीडीपी का केवल 6.6 प्रतिशत खर्च हो रहा है जबकि इसे सर्वोच्च प्राथमिकता दी जानी चाहिए। इस समय केंद्र तथा कुछ राज्यों में राजनीतिक स्थायित्व है। इसलिए प्रयास होना चाहिए कि लालफीताशाही पर नियंत्रण रखकर योजनाओं का क्रियान्वयन सही ढंग और समय से हो।
धन से अधिक जरूरी अमल
केंद्र या राज्य सरकारों की योजनाएं बड़ी महत्वाकांक्षाओं के साथ बनाई जाती है। जोर-शोर से घोषणाएं भी होती हैं। बजट में विपुल धनराशि का प्रावधान हो जाता है। लेकिन किसी भी योजना, कार्यक्रम पर अमल ठीक से नहीं होने पर सारे सपने धरे रह जाते हैं।
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