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महिलाएं आगे बढ़ रही हैं लेकिन उन्हें पीछे धकेलने वाले भी

वृंदा शर्मा औरतजात की कहानी भी अजब है। कभी यह कल्पना चावला-इरोम शर्मिला जैसी सशक्त दिखती है तो कभी सड़क...
महिलाएं आगे बढ़ रही हैं लेकिन उन्हें पीछे धकेलने वाले भी

वृंदा शर्मा

औरतजात की कहानी भी अजब है। कभी यह कल्पना चावला-इरोम शर्मिला जैसी सशक्त दिखती है तो कभी सड़क से घर तक लाचार-बेबस। कहानी दो किस्सों से शुरू करते हैं, जिनमें एक मीठा है तो दूसरा हकीकत का कड़वा घूंट लिए है। कोरिया ओपन सीरीज में स्टार शटलर पीवी सिंधु ने खिताबी जीत हासिल की तो हर भारतीय ऐसी बेटी की चाह कर उठा। कुछ ऐसी ही तलब ऑलंपिक के फाइनल के वक्त हर चेहरे पर दिखी थी। यह सिक्के का सुखद पहलू है। दूसरा पहलू, डरावना है।

देश की राजधानी दिल्ली से सटे साहिबाबाद में एक 15 साल की किशोरी सपनों को उड़ान देने की उम्र में मां बन गई। चार दिसंबर 16 को घर से लापता हुई और 9 मार्च को चंड़ीगढ़ से मिली। कुछ लोगों ने अपहरण कर लिया। बरामदगी के बाद पता चला कि वह गर्भवती है। इस दरम्यान उसका बेबस पिता थाने-चौकियों के चक्कर काटता रहा, लेकिन कहीं कोई सुनवाई नहीं हुई। कानूनी पेचीदगी और जान के खतरे के चलते बेटी का गर्भपात भी नहीं हो सका। पिछले दिनों 6 सितंबर को गाजियाबाद के सरकारी अस्पताल में उसने बेटे को जन्म दिया। इससे पहले घंटों की तड़प के दौरान उसे किसी ने हाथ तक नहीं लगाया। बहरहाल, पैदा हुए बच्चे को न तो परिजनों ने अपनाया और ना ही दुष्कर्म पीड़िता ने। फिलहाल बच्चा चाइल्ड वेलफेयर कमेटी के पास है।

जहां पीड़ित किशोरी का भविष्य अंधेरे में है, वहीं नवजात के मुस्तकबिल की तस्वीर भी साफ नहीं। ऐसे हालात में, जब एक बेटी और उसके बेबस पिता को इंसाफ के लिए भटकना पड़ रहा है। सिस्टम से मुठभेड़ जाया होती दिखती है तो यह चिंता का विषय है। यह सिर्फ एक उदाहरण भर है। हमें नए थोड़ा थमकर सोचना होगा कि हम कहां थे, हम कहां हैं? देशभर में हालात बदले जरूर हैं, लेकिन चिंता के बादल पूरी तरह छंटे नहीं।

नेशनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो की पिछले साल जारी रिपोर्ट ने जो तस्वीर पेश की वह भी चिंताजनक है। क्राइम इन इंडिया 2015 बताती है कि देशभर में महिलाओं के प्रति अपराधों के करीब 327392 मामले थानों तक पहुंचे। इनमें सबसे ज्यादा उत्तर प्रदेश से करीब 35 हजार, पश्चिम बंगाल से तकरीबन 33 हजार, महाराष्ट्र से 31 हजार और राजस्थान से 28 हजार मामलों में महिलाओं से अपराध हुआ।

केंद्र शासित प्रदेशों में दिल्ली 17 हजार केस के साथ अव्वल रहा। इनमें 32 हजार से ज्यादा महिलाओं के साथ दुष्कर्म किया गया, जबकि करीब 56 हजार महिलाओं का अपहरण किया गया। घर से लेकर कार्यक्षेत्र तक सेक्सुअल हैरेसमेंट के 22911 मामले पंजीकृत हुए, जबकि पब्लिक ट्रांसपोर्ट-प्लेस समेत अन्य स्थानों पर 77 हजार से ज्यादा महिलाएं छेड़छाड-अश्लील फब्तियों का शिकार शिकार हुईं। पति समेत परिजनों की क्रूरता का शिकार होने के एक लाख मामलों रिपोर्ट में दर्ज हैं। यह वह मामले हैं जो गली-कूचों से निकलकर थाने तक पहुंचे, लेकिन गांव-देहात में बड़े पैमाने पर मामले वहीं दबा दिए जाते हैं। ऐसे में आजादी के 70 साल बाद घर से लेकर सड़क तक महिलाएं कितनी सुरक्षित हुईं, सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है। हम किस समाज के सपने देखते हैं और किस समाज को बना रहे हैं?

पीवी सिंधु की जीत पर जश्न मनाने वाले भी उसी समाज का हिस्सा है और मासूम बेटियों पर गंदी नजर रखने वाले भी। गाजियाबाद के आशा ज्योति केंद्र में काउंसलर प्रियांजली मिश्रा बताती हैं कि संस्कारों की कमी और एकल परिवार व्यवस्था ने सामाजिक ताने-बाने पर बुरा असर डाला है। बच्चे और उनके परिजन मोबाइल पर ज्यादा समय बिता रहे हैं। टेलीविजन भी क्राइम और उसे करने के तरीके परोस रहे हैं। छीजते रिश्तों को सहेजने के लिए जागरुकता घर से शुरू होनी चाहिए। सरकार या सिस्टम हर व्यक्ति के साथ पुलिस नहीं खड़ी कर सकता है। समाज के विभिन्न वर्गों को ऐसी मानसिकता वाले लोगों चिह्नित करना होगा। बच्चों को सुरक्षा और संस्कारों का पाठ पढ़ाना होगा।

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