आगे बढ़ने से पहले बता दें कि जस्टिस कर्णन वही हैं जो 2011 से पूर्व और मौजूदा जजों पर आरोप लगाते आ रहे हैं कि उनके (कर्णन के) दलित होने की वजह से उन्हें दूसरे जजों द्वारा प्रताड़ित किया जाता रहा है। 2016 में जस्टिस कर्णन ने सुप्रीम कोर्ट कोलेजियम द्वारा उनके कोलकाता हाईकोर्ट में ट्रांसफर किए जाने के आदेश पर कहा था कि उन्हें दुख है कि वह भारत में पैदा हुए हैं और वह ऐसे देश में जाना चाहते हैं जहां जातिवाद न हो।
सुप्रीम कोर्ट के सब्र की सीमा तब पार हो गई जब इसी साल जनवरी में कर्णन ने प्रधानमंत्री को चिट्ठी लिखकर सुप्रीम कोर्ट और मद्रास हाइकोर्ट (जहां वह पहले पदस्थ थे) के जजों पर भ्रष्टाचार के आरोप लगाए। साथ ही उन्होंने अपनी चिट्ठी में मौजूदा और सेवानिवृत्त हो चुके 20 जजों के नाम भी लिखे। इसके बाद सुप्रीम कोर्ट ने 8 फरवरी को जस्टिस कर्णन को नोटिस जारी किया और पूछा कि क्यों न इसे कोर्ट की अवमानना माना जाए। गौरतलब है कि इस तरह का नोटिस पाने वाले कर्णन हाईकोर्ट के पहले सिटिंग जज हैं।
अब कर्णन ने इस नोटिस के जवाब में कहा है कि सुप्रीम कोर्ट को हाईकोर्ट के मौजूदा जज को नोटिस भेजने का क्या अधिकार है। कर्णन ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट चाहे तो उनके खिलाफ अवमानना का मामला संसद में सरका सकता है।
अंग्रेजी अखबार हिंदुस्तान टाइम्स ने दावा किया है कि सुप्रीम कोर्ट के नोटिस के जवाब में कर्णन द्वारा लिखी गई चिट्ठी की कॉपी उनके पास उपलब्ध है। अखबार के मुताबिक कर्णन ने लिखा है कि 'यह आदेश किसी तर्क का पालन नहीं करता इसलिए इसका क्रियान्वयन के लिहाज़ से ठीक नहीं है। इस आदेश के लक्षण साफतौर पर दिखाते हैं कि किस तरह कानून ऊंची जाति के जजों के हाथ में है और वह अपनी न्यायिक ताकतों को अनुसूचित जाति/ जनजाति के जज से छुटकारा पाने के लिए इसका बेजा इस्तेमाल कर रहे हैं। इसलिए आठ फरवरी 2017 को जारी किए गए स्वयं प्रेरित अवमानना आदेश कानून के तहत नहीं टिक सकता।'