संविधान इस देश का सर्वोच्च कानून है और न्यायपालिका को इसकी व्याख्या और सुरक्षा का दायित्व सौंपा गया है। न्यायपालिका को कोई कानून घोषित करने के लिए न्यायिक समीक्षा करने का अधिकार है और यदि उसे लगता है कि कार्यपालिका का कोई आदेश संविधान के किसी प्रावधान से असंगत या उसका उल्लंघन करता है तो वह इसे अवैध भी करार दे सकती है। पिछले कुछ दशकों में आपातकाल के बाद भारतीय अदालतों ने न्यायिक सक्रियता दिखाई है और मौलिक अधिकारों के कार्यक्रम को मजबूती प्रदान करने के लिए कई उल्लेखनीय फैसले दिए हैं। उन्होंने अनुच्छेद 14 में समानता का अधिकार, अनुच्छेद 19 में स्वतंत्रता का अधिकार तथा अनुच्छेद 21 में जीने का अधिकार तथा व्यक्तिगत आजादी का अधिकार जैसे आयामों को विस्तार दिया। लेकिन दलितों की आजादी के मामले में कई मौकों पर अदालतें भारतीय संविधान के मुताबिक उनके मौलिक अधिकारों की रक्षा करने में विफल रही हैं। राजस्थान में बहुचर्चित भंवरी देवी सामूहिक बलात्कार कांड पर फैसला देते हुए न्यायाधीशों ने लिखा था, 'उच्च जातियों के लोग निचली जाति की महिलाओं के साथ कैसे बलात्कार कर सकते हैं। इससे संदेह होता है कि संकेत मिलता है कि भारतीय न्यायपालिका में दलित विरोधी और ब्राह्मणवादी सोच हावी है।
लक्ष्मणपुर बाथे कांड के आरोपियों को बरी करते हुए पटना उच्च न्यायालय ने फैसला दिया, 'हमारा आकलन है कि अभियोजन पक्ष के गवाह भरोसेमंद नहीं हैं और इसलिए सभी दोषियों को संदेह का लाभ मिलना चाहिए और वे बरी किए जाते हैं।’ इससे भी संदेह को बल मिलता है कि दबंग जातियों के भूस्वामियों, पुलिस और नौकरशाही तथा न्यायपालिका के बीच गहरी जातिवादी सांठगांठ है। इसी तरह की जातिवादी मानसिकता के आरोप पटना उच्च न्यायालय के फैसले पर पहले भी लगे थे, जब बथानीटोला नरसंहार कांड में 21 दलितों की हत्या के आरोप से रणवीर सेना के लोगों को बरी कर दिया गया था। सुंदूर नरसंहार मामले में आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय ने उन 21 अभियुक्तों को बरी कर दिया जिन्हें निचली अदालत ने उम्रकैद की सजा सुनाई थी। उच्च न्यायालय ने अपने फैसले में कहा, 'अभियोजन पक्ष नरसंहार में लोगों के मारे जाने का सही वक्त, सही स्थान तथा उन पर हमला करने वालों की पहचान बताने में विफल रहा।’ अदालत ने अभियोजन पक्ष में ही खामी पाई क्योंकि इस हमले के खिलाफ कोई शिकायत दर्ज नहीं कराई गई थी और न्यायाधीशों ने 'विरोधाभासी’ होने के कारण गवाहों के बयान खारिज कर दिए।
दलितों, अल्पसंख्यकों और कमजोर तबकों के लोगों के नरसंहार या हत्या जैसे मामलों के अदालती फैसलों में आरोपियों तथा षडयंत्रकारियों को बरी किया जाता रहा जबकि ताकतवर लोगों की हत्या से जुड़े मामलों में दलित, अल्पसंख्यक या कमजोर तबकों के ऐसे लोगों को भी सख्त सजा सुनाई गई जिनका इनसे कोई सीधा ताल्लुक भी नहीं था, यह गंभीर चिंता का विषय है। पिछले डेढ़ दशक में अत्याचार के मामलों की पड़ताल के अनुभव बताते हैं कि अत्याचार पीडि़त दलितों और आदिवासियों को कानूनन न्याय पाने की प्रक्रिया में बड़ी बाधाएं झेलनी पड़ी हैं। अक्सर अत्याचार पीड़ितो दलितों और आदिवासियों को या तो न्याय पाने में देर होती है या न्याय मिलता ही नहीं है। कुल मिलाकर अत्याचार की घटनाओं के बाद न्याय सुनिश्चित करने के लिए आपराधिक न्याय प्रणाली में सीमित साधन इस्तेमाल किए जाते हैं।
अत्याचार की घटनाओं के बाद न्याय दिलाने की प्रक्रिया के प्रत्येक कदम पर बाधाएं आती हैं जिनमें मामला दर्ज करने से लेकर, मामले की जांच कराने, आरोप-पत्र दाखिल करने तक के व्यवधान शामिल हैं। पीड़ितों पर जबर्दस्त दबाव डाला जाता है कि वे अत्याचार के खिलाफ शुरुआती स्तर पर मामले दर्ज न करवा सकें। उन्हें घटना के बारे में नहीं बोलने के लिए अक्सर डराया और धमकाया भी जाता है। कई बार तो पुलिस अधिकारी भी इन पीड़ितों की शिकायत या प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज करने या अनुसूचित जाति-जनजाति (अत्याचार निरोधक कानून)-1989 के तहत मामला दर्ज करने से इनकार कर देते हैं। यदि किसी तरह इस कानून के तहत मामला दर्ज भी हो जाता है तो पुलिस इस कानून की उचित धाराओं के तहत मामला दर्ज नहीं करती। पुलिस दलितों के खिलाफ कानून और अधिनियमों का इस्तेमाल दोषियों की मुक्ति के लिए ही करती है, जब कभी कोई दलित अनुसूचित जाति-जनजातियों पर उत्पीड़न निरोधक कानून के तहत मामला दर्ज कराता है, दोषी की ओर से दंड संहिता के कुछ प्रावधानों के तहत उसके खिलाफ झूठा मुकदमा दर्ज करा दिया जाता है।
सुरक्षा कानून के निष्ठुर प्रावधानों के तहत खास तौर से दलितों की गिरफ्तारी का खतरा ज्यादा रहता है। मसलन, झारखंड और आंध्र प्रदेश में आतंकवाद निरोधक कानून (2002)(पोटा) का सबसे ज्यादा इस्तेमाल दलितों के खिलाफ ही किया गया है जिन्हें आपराधिक या आतंकवादी गतिविधियों के कारण नहीं बल्कि जातिगत स्थिति के कारण निशाना बनाया जाता रहा है। दलित कार्यकर्ताओं को 'आतंकवादी’ करार देते हुए उन्हें राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरा तथा आदतन अपराधी भी मान लिया जाता है और बार-बार राष्ट्रीय सुरक्षा कानून-1980, भारतीय विस्फोटक कानून-1984 के तहत आरोपी ठहराया जाता है। यहां तक कि दलितों पर आतंकवाद एवं विध्वंसकारी गतिविधियां (निरोधक) कानून (टाडा) जैसे पुराने आतंकवाद निरोधक कानून के तहत भी आरोप चस्पां कर दिए जाते हैं। भारत के कुछ गैर-अधिसूचित और घुमंतू कबायलियों को अनुसूचित जातियों और कुछ को अनुसूचित जनजातियों की सूची में शामिल किया गया है। जिन कबायलियों को पूर्ववर्ती आपराधिक जनजाति अधिनियम (1871) के तहत उनकी कथित 'आपराधिक प्रवृत्तियों’ की सूची में शामिल किया गया है, उन पर अब भी आदतन आपराधिक अधिनियम (1852) का काला धद्ब्रबा लगा हुआ है। हाल ही में तमिलनाडु के सेशाचलम में आंध्र प्रदेश पुलिस द्वारा गैरकानूनी गिरफ्तारी, उत्पीड़न और न्यायेतर हत्या की एक कार्रवाई के खिलाफ प्रदर्शन कर रहे 20 लकड़हारों की फर्जी मुठभेड़ में हत्या कर दी गई।
कई मामलों में भारतीय कानून और न्याय व्यवस्था भी दलितों के सामाजिक, सांस्कृतिक एवं आर्थिक अधिकारों की रक्षा करने में विफल रही है और इसके बजाय कानून के विभिन्न स्वरूपों को वैध ठहराते हुए जाति आधारित भेदभाव की ओर प्रवृत्ति रहती है। संविधान में 'शांतिपूर्वक और हथियारों के बगैर स्वतंत्रता का अधिकार तथा संगठन एवं संघ गठित करने का अधिकार’ दिया गया है। यह आजादी जाति आधारित संगठनों के फलने-फूलने तथा व्यवस्थित तरीके से विरोध दर्ज करने के लिए इस्तेमाल की जाती है। जाति आधारित संगठनों, शैक्षणिक संस्थानों और ट्रेड यूनियनों के पंजीकरण में भी दलितों को हाशिये पर रखा जा रहा है और कानूनी तौर पर संगठनों को स्थायित्व तथा मान्यता प्रदान करने के लिए भेदभाव और अलगाववाद को बढ़ावा दिया जा रहा है जो संविधान के अनुच्छेद 17 की भावना के खिलाफ है। इसके विपरीत, दलितों द्वारा ट्रेड यूनियनों का गठन और इनसे जुडऩे का अधिकार कई मायने में खतरनाक रहा है। ऐसे यूनियन के लिए पंजीकरण कराने में आनाकानी करने से दलितों द्वारा ट्रेड यूनियनों का गठन और इनसे जुड़ने का अधिकार कमजोर पड़ता है जिनके कार्यकर्ता अनपढ़ होते हैं और कूड़ा बीनने, कचरा साफ करने, साफ-सफाई तथा दिहाड़ी मजदूरी करने आदि जैसे पेशे से जुड़े होते हैं। दलित कामगार अक्सर ऐसी सरकारी रोजगार वर्गीकरण योजनाओं से वंचित ही रहते हैं जिनमें 'कामगार’ की परिभाषा किसी नियोञ्चता से जुड़े होने तक सीमित है। नियोक्ता के अभाव में ऐसे दलित कामगारों की श्रेणी में नहीं आते, इसलिए यूनियन भी नहीं बना सकते।
संविधान में सभी भारतीय नागरिकों को कोई भी काम या पेशा चुनने का अधिकार है (अनुच्छेद 19)। यह मौलिक अधिकार देश में निजी क्षेत्र के विकास में योगदान करता है जिसे समाज के कमजोर तबकों को रोजगार में आरक्षण लागू करने की कोई संवैधानिक बाध्यता नहीं है। निजी क्षेत्र 'योग्यता की धारणा’ पर अमल करते हैं और खास वर्ग के पसंदीदा उम्मीदवारों को ही रोजगार देते हुए भेदभाव बरतते हैं। भारतीय संविधान में सामाजिक न्याय के सिद्धांत के तहत भेदभाव से सुरक्षा (अनुच्छेद 16) के तौर पर आरक्षण का प्रावधान है लेकिन आरक्षण नीतियां निजी क्षेत्र में लागू नहीं हैं। आवास और शादी सामाजिक जीवन के दो महत्वपूर्ण आयाम हैं जिनमें जाति आधारित भेदभाव मिटाने की व्यापक संभावनाएं हैं और सरकार ने जातियों के व्यवस्थित वितरण के लिए बड़े पैमाने पर इसकी संपूर्ण प्रकृति का इस्तेमाल किया है। भारतीय संविधान में अस्पृश्यता की प्रथा प्रतिबंधित है लेकिन अपनी जाति को तरजीह देना या उस पर गर्व प्रदर्शित करना यहां गैरकानूनी नहीं है। लिहाजा यहां वैवाहिक विज्ञापन में भी किसी खास जाति के प्रति पूर्वग्रह दिखाते हुए उसे तरजीह देना गैरकानूनी नहीं है जबकि संवैधानिक प्रक्रिया के तहत सामाजिक न्याय (अन्य पिछड़ा वर्ग, अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति) को बढ़ावा देने का प्रावधान है। अनुच्छेद 17 की बात करें तो इससे शायद ही अस्पृश्यता मिटती दिख रही है और न ही किसी रूप में इस पर अमल किया जा रहा है। दलितों के आवास और शिक्षा के लिए सरकारी कार्यक्रमों में भी भेदभाव नजर आता है। आपदा की स्थितियों में दलितों के लिए अन्य जातियों से अलग पुनर्वास की व्यवस्था की जाती है। इस भेदभाव और दमन से तंग आकर दलित कई बार धर्मांतरण के लिए भी प्रेरित होते हैं लेकिन जब दलित विचार, चेतना और धार्मिक आजादी के अधिकार की बात करता है तो उसे कई तरह की पाबंदियों का सामना करना पड़ता है और इस प्रकार उसके लिए संविधान ही धार्मिक आजादी का उल्लंघन करता नजर आता है।
(लेखक नेशनल दलित मूवमेंट फॉर जस्टिस के महासचिव हैं)