देश भर में लगभग एक लाख सरकारी स्कूल या तो बंद किए जा चुके हैं या बंद होने की प्रक्रिया में हैं। धड़ल्ले से विभिन्न राज्यों में इन स्कूलों पर ताला लग रहा है और इसे नाम दिया जा रहा युक्तिकरण या समान्यीकरण। आम भाषा में कहें तो इसका अर्थ है दो या तीन स्कूलों का एक में विलय। इन स्कूलों को बंद करने के पीछे तर्क देश भर में एक जैसा है ; बच्चों की कम संख्या, अध्यापकों की कमी और बुनियादी सुविधाओं का अभाव। इन स्कूलों को बंद सीधे-सीधे वर्ष 2009 में पारित शिक्षा के अधिकार कानून की मूल भावना का उल्लंघन है, जो हर बच्चे को शिक्षा पाने को मौलिक अधिकार देता है और जिसका नारा है, घर के दरवाजे पर स्कूल। लाखों बच्चों का भविष्य अंधकारमय हो रहा है और देश की शिक्षा मंत्री स्मृति जुबिन ईरानी कहती हैं कि उन्हें को पता ही नहीं कि ऐसा कुछ घटित भी हो रहा है। इस बात का अंदेशा है कि यह सब विश्व बैंक के इशारे पर किया जा रहा है। इसकी कलई जिस तरह से मुंबई नगर निगम का अपने स्कूलों को निजी सरकारी साझेदारी (पीपीपी) में डालने के लिए नीति पत्र खोलता है जिसमें तैयार किया, उसमें विश्व बैंक के निर्देशों और अध्ययनों का जिक्र किया है। (देखें बॉक्स)
देश भर में अगर एक लाख सरकारी स्कूल बंद होते हैं तो इसकी गाज किन समुदायों या समूहों पर पड़ रही होगी, इसका देशव्यापी आंकड़ा जुटाने में तो तो संभवत: समय लगेगा लेकिन राजस्थान में भारत ज्ञान विज्ञान समिति की रिपोर्ट में यह मूल्यांकन किया गया है, उससे साफ है कि इसकी मार वंचितों, दलितों, अल्पसंख्यकों और आदिवासियों के बच्चों पर सबसे ज्यादा पड़ रही है। मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र और गुजरात में भी छोटे स्तर पर इस तरह के अध्ययन इस बात की तस्दीक करते हैं। संयुक्त राष्ट्र बाल कोष (यूनिसेफ) की रिपोर्ट के मुताबिक भारत में 8 करोड़ बच्चे प्राथमकि शिक्षा पूरी होने से पहले स्कूल छोड़ देते हैं। और सरकारी आंकड़ों के मुताबिक देश के 80 फीसदी बच्चे सरकारी स्कूलों में ही शिक्षा हासिल करते हैं। देश के बच्चों की अधिसंख्य आबादी जहां जाकर शिक्षा और मध्याह्न भोजन हासिल कर रही है, उन पर ताला लगाया जा रहा। इसके साथ ही यह भी ध्यान देने की बात है कि सरकारी आंकड़ों के मुताबिक देश में 12 लाख के करीब बाल श्रमिक हैं। बाल श्रमिक स्कूलों से बाहर हंै। बजाय इन लाखों बच्चों को स्कूल के भीतर लाने की रणनीति बनाने के, मौजूदा विकल्प को पूरी तरह से बंद किया जा रहा है।
ये तमाम बातें संकेत दे रही है कि स्कूली शिक्षा में बड़े पैमाने पर नीतिगत परिवर्तन करने की तैयारी है। जनवरी 2015 से शिक्षा के अधिकार और सर्व शिक्षा अधिकार की समीक्षा होनी है। इससे पहले विभिन्न राज्यों में हजारों-लाखों सरकारी स्कूलों का बंद करना कई तरह की आशंकाओं को जन्म देता है। यह अंदेशा जताया जा रहा है कि सरकारी स्कूलों को रद्दी बताकर उन्हें बंद करके शिक्षा पर सरकारी खर्च को और कम करने तथा तमाम बच्चों को निजी स्कूलों के भरोसे छोडऩे की जमीन तैयार की जा रही है। शिक्षा के अधिकार के लिए अखिल भारतीय फोरम से जुड़े वरिष्ठ शिक्षाविद अनिल सदगोपाल का कहना सही प्रतीत होता है कि यह सरकारी स्कूलों के खिलाफ साजिश है। समान स्कूल व्यवस्था लागू करने के बजाय निजी स्कूलों को अंध बढ़ावा दिया जा रहा है और इसी के तहत सरकारी स्कूलों को मारा जा रहा है। इस वजह से शिक्षकों का स्तर खराब किया गया, बुनियादी सुविधाएं नहीं दी गईं और जब बच्चों ने आना बंद कर दिया तो सरकारी स्कूलों को बंद किया जा रहा है। ताकि आज के दिन तक सरकारी स्कूलों में पढऩे जा रहे गरीब बच्चों और खासकर बच्चियों को, उन्हें निजी स्कूलों की तरफ ढकेला जा सके।
वाकई जमीन पर यही दिखाई दे रहा है कि जहां-जहां सरकारी स्कूलों पर ताला लगा कर उन स्कूलों का विलय दूसरे सरकारी स्कूलों में किया गया है वहां बड़ी संख्या में बच्चों की पढ़ाई बीच में ही छूट गई है।
हैरानी की बात यह है कि देश भर में स्कूलों की बंदी और विलय हो रहा है या उन्हें निजी-सरकारी साझेदारी में दिया जा रहा है और इसके खिलाफ सशक्त आवाज नहीं उठ रही है। अगर उपलब्ध आंकड़ों की बात करें तो राजस्थान में 17 हजार 129 स्कूल, महाराष्ट्र में 13 हजार 905, कर्नाटक में 6,000, गुजरात में 13,450 आंध्र प्रदेश में 5503, तेलंगाना में 4,000, उड़ीसा में 5,000, मध्य प्रदेश में 3,500 , उत्तराखंड में 1200 स्कूलों के बंद किए गए जाने की सूचना है। आउटलुक द्वारा शिक्षा के अधिकार फोरम, भारत ज्ञान विज्ञान समिति और शिक्षा के अधिकार के लिए अखिल भारतीय फोरम सहित अन्य संगठनों से जुटाए गए आंकड़ों से पता चलता है कि देश भर में छोड़े-बड़े पैमाने पर सरकारी स्कूलों की बंदी जारी है और कुल मिलाकर यह आंकड़ा एक लाख के करीब बैठता है। आउटलुक ने अपनी पड़ताल में पाया कि अगर स्थानीय स्तर पर आंकड़े जुटाएं जाएं तो यह आंकड़ा एक लाख से बहुत अधिक हो सकता है।
यहां एक बात ध्यान देने योग्य है कि सरकारी स्कूलों की बंदी की रफ्तार पिछड़े राज्यों में कम है। मिसाल के तौर पर बिहार, झारखंड, पश्चिम बंगाल आदि में सरकारी स्कूलों को बंद करने की रफ्तार कम है। इसकी बड़ी वजह यह है कि इन राज्यों में निजी स्कूलों का विकल्प नहीं है। यहां निजी स्कूल गांव-देहात-दूर-दराज के बीहड़ इलाकों तक नहीं पहुंचे हैं। शिक्षा के अधिकार फोरम के मुताबिक महाराष्ट्र में 45 फीसदी बच्चे, उत्तर प्रदेश में 40 फीसदी बच्चे और केरल सहित बाकी दक्षिण भारत के राज्यों में 55 फीसदी बच्चे निजी स्कूलों में पढ़ रहे हैं। इस बारे में केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री स्मृति जुबिन ईरानी ने वही बात दोहराई जो उन्होंने संसद में 6 अगस्त को एक सवाल के जवाब में दी थी, किसी भी राज्य सरकार ने यह रिपोर्ट नहीं दी है कि उनके राज्य में बच्चों या अध्यापकों की कमी की वजह से सरकारी स्कूल बंद किए गए हैं।
वरिष्ठ शिक्षाविद कृष्ण कुमार का कहना है कि जब भी सरकारी स्कूलों पर संकट छाएगा, उससे लड़कियों की साक्षरता सबसे ज्यादा प्रभावित होती। अगर स्कूल घर से दूर हुआ या सुरक्षित परिधि में नहीं हुआ तो सबसे पहले लोग लड़कियों को घर बैठाते हैं। दलित बच्चों की शिक्षा पर काम कर रही सेंटर फॉर सोशल एक्विटी एंड इनक्लूजन संस्था की निदेशक एनी नमाला का विश्लेषण है कि स्कूलों की बंदी या विलय से दलित बच्चों की शिक्षा पर बहुत बुरा असर पड़ा है। दलित बस्तियों में सरकारी स्कूलों को बड़े पैमाने पर बंद कर मुख्य गांव के सरकारी स्कूलों में उनका विलय कर दिया जा रहा है। यहां दबंग जातियों के बच्चों का बाहुल्य होता है और दलित बच्चों के लिए बराबरी का माहौल नहीं होता। इस वजह से ये बच्चे घर बैठ जाते हैं।
ये तमाम आशंकाएं हूबहू जमीन पर घटित होती दिख रही हैं। राजस्थान में भारत ज्ञान विज्ञान समिति (बीजीवीएस) ने राज्य में 17 हजार स्कूलों की बंदी और विलय के बाद पांच जिलों (जयपुर शहर, अलवर, पाली, बारां और बूंदी) में एक अध्ययन कराया। इस अध्ययन की रिपोर्ट बताती है कि एक स्कूल के बंद होने से कितने बच्चों की जिंदगी में अशिक्षा का अंधियारा छा जाता है। इस रिपोर्ट से जो बातें सामने आईं वे देश भर में लागू होती है।
स्कूलों को बंद कर दूसरे स्कूलों में उनके विलय का राजनीतिक नीतिगत फैसला होने के पीछे वह नौकरशाही भी है जो केवल बंद कमरों की नजर से स्कूलों से जुड़े आंकड़े देखती है। एक नजर में ही इसके पीछे यह गरीबों व वंचित तबकों के बच्चों को शिक्षा से बाहर करने की मानसिकता झलकती है। राजस्थान में 80 हजार सरकारी स्कूल हैं जिनमें से 17 हजार को इस साल अगस्त में अन्य स्कूलों के साथ मिला दिया गया। नतीजतन 22 फीसदी सरकारी स्कूल बंद हो गए। इसका असर दस लाख बच्चों व लाखों शिक्षकों पर पड़ा है। कुछ शहरों में तो जिन स्कूलों को दूसरे स्कूलों में मिला दिया गया है उनके एक-तिहाई बच्चों ने स्कूल जाना बंद कर दिया है। यह स्कूल जाने वाले कुल बच्चों का दस फीसदी है। बीजीवीएस की कोमल श्रीवास्तव ने बताया की बाद में राजस्थान सरकार ने कई स्कूलों को वापस खोल दिया लेकिन अधिकांश अब भी बंद हैं।
केवल आंकड़ों के आधार पर किए गए स्कूलों के विलय ने ऐसी स्थितियां पैदा कर दीं जिनके चलते कई बच्चों को स्कूल छोडऩा पड़ा। इसके कई कारण रहे हैं- जिस स्कूल में विलय किया गया है उसकी दूरी, स्कूल के समय में बदलाव जातिगत, धार्मिक तथा लैंगिक कारण।
इस अध्ययन से सामने आया कि कई स्कूल ऐसे थे जो दलित इलाकों में चल रहे थे और उन्हें ऐसे स्कूलों से मिला दिया गया जो दबंग जातियों के प्रभुत्व वाले इलाकों में थे। नए स्कूलों में जाकर जब दलित बच्चों को दबंग जातियों के हाथों भेदभाव का शिकार होना पड़ा तो वे पढ़ाई छोडऩे को मजबूर हो गए।
कुछ मामलों में लड़कियों के स्कूलों का विलय लडक़ों के स्कूलों के साथ कर दिया गया। लड़कियों के लिए अलग स्कूल खोलने का एकमात्र मकसद बालिका शिक्षा को बढ़ावा देना था क्योंकि कई परिवार सामाजिक-सांस्कृतिक कारणों से लडक़ों के स्कूलों में अपनी बच्चियों को भेजने पर राजी नहीं होते थे। विलय ने इन लड़कियों को शिक्षा से वंचित कर दिया। उदाहरण के तौर पर जयपुर में धानक्या बस्ती, जोटवाड़ा के लड़कियों के प्राथमिक स्कूल का विलय रैगर बस्ती के सह-शिक्षा स्कूल के साथ कर दिया गया जहां मुख्य रूप से लडक़े पढ़ते हैं। धानक्या बस्ती स्कूल में 165 हिंदू और मुस्लिम लड़कियां साथ पढ़ती थीं। लेकिन अब लड़कियों के माता-पिता बेहद नाराज हैं क्योंकि उन्होंने अपने समुदायों को बड़ी मुश्किलों से लड़कियों की शिक्षा के लिए तैयार करवाया था। अब ज्यादातर लड़कियां स्कूल छोड़ चुकी हैं। सांप्रदायिक सदभाव का उदाहरण रहा यह स्कूल अधिकारियों के अतार्किक फैसले का शिकार हो गया।
गुजरात में शिक्षा के अधिकार के लिए काम कर रहे डॉ. विक्रम सिंह अमरावत ने बताया कि गुजरात सरकार ने बाकायदा सरकारी आदेश जारी करके कहा कि जिन स्कूलों में छात्रों की उपस्थिति कम है, उन स्कूलों का विलय अन्य स्कूलों में कर देना चाहिए। उन्होंने बताया कि गुजरात में तकरीबन 13,450 स्कूलों को बंद करने की तैयारी हो चुकी है। उन्होंने बताया कि अकेले गांधीनगर में पांच सरकारी स्कूलों का विलय हो चुका है और इसने गरीब बच्चों पर प्रतिकूल असर डाला है।
इस तरह के निर्देश तमाम राज्यों ने जारी किए हैं। मध्यप्रदेश में पिछले साल 5 जुलाई को राज्य शिक्षा केंद्र ने युक्तियुक्तकरण (रैशनललाइजेशन) यानि विलय को लेकर एक निर्देश जारी किया था। विरोध होने पर उस समय तो थम गया था लेकिन अब फिर शुरू हो गया है। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के गृह जिले सिहोर में नौ सरकारी स्कूल बंद कर दिए गए और 37 स्कूलों का विलय दूसरे स्कूलों में कर दिया गया। खबर है कि पूरे राज्य में 3,500 स्कूलों को बंद कर दिया गया है। इसी क्रम में ग्वालियर के जिलाधिकारी ने विलय के लिए समिति गठित कर उसकी अनुशंसा पर अपने आदेश से जिले के 146 प्राथमिक स्कूलों एवं 8 मध्य स्कूलों का दूसरे स्कूलों के साथ विलय कर दिया है। इनमें से अधिकांश स्कूल शहरी बस्तियों एवं ग्रामीण इलाकों की हैं। कई कन्या प्राथमिक शालाओं को बालक प्राथमिक शालाओं में मिला दिया गया है। जन अधिकार मंच के राज्य समन्वयक संदेश बंसल कहते हैं, ' सरकार विलय के बहाने सरकारी स्कूलोंं को खत्म कर निजी शिक्षा व्यवस्था को बढ़ावा दे रही है।Ó राजधानी भोपाल में सरकारी स्कूलों के परिसर निजी स्कूलों को दिए गए हंै। मध्यप्रदेश शिक्षक संदर्भ समूह के समन्वयक शिक्षक दामोदर जैन कहते हैं, 'यह शिक्षा पर ताला है, सिर्फ स्कूलों पर नहीं। Ó
एक तरफ सरकारी स्कूल बंद हो रहे हैं वहीं दूसरी तरफ सरकारी स्कूलों को निजी हाथों में सौंपा जा रहा है। ऐसा देश भर में हो रहा है, लेकिन बहुत खामोशी से। ये खबरें वहीं से आ पा रही हैं जहां सामाजिक संगठन सक्रिय हैं। कितने बड़े पैमाने पर यह हो रहा है, इसे मुंबई नगर निगम और चेन्नै नगर निगम द्वारा अपने स्कूलों को निजी-सरकारी साझेदारी चलाने के फैसले से देखा जा सकता है। इन दोनों महानगरों में निगमों के स्कूलों को निजी हाथों में सौंप दिया गया है। चेन्नै में अखिल भारत शिक्षा अधिकार मंच से जुड़े प्रिंस गजेंद्र बाबू ने आउटलुक को बताया कि यह एक पूरी रणनीति के तहत किया जा रहा है। इन स्कूलों का स्तर बढ़ाने के नाम पर यह संपत्ति निजी हाथों को सौंपी जा रही है। ठीक यही मुंबई नगर निगम ने किया है। (देखें बॉक्स) इसके लिए बकाया के नीति पत्र जारी किया गया जिसमें विश्व बैंक के निर्देशों और अध्ययन का जिक्र किया गया है।
अशिक्षा और गरीबी की मार झेल रहे देश में सरकारी स्कूलों पर ताला शिक्षा पर ताला है। यह उस कानून का सरासर उल्लंघन है जो देश के तमाम बच्चों को मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा पाने का अधिकार देता है। यह अधिकार निजी स्कूलों में नहीं संभव है। बच्चों को शिक्षा का मौलिक अधिकार देने के लिए अच्छे सरकारी स्कूल जरूरी है। जो सरकार बेहतरीन केंद्रीय विद्यालय और नवोदय विद्यालय चला रही है वही इन सरकारी स्कूलों को चलाने के लिए क्यों नहीं तैयार है, यह एक बड़ा सवाल है। शिक्षा के अधिकार पर काम कर रहे संदीप पांडे का कहना है कि जिस तरह से सरकारी अधिकारियों के लिए एयर इंडिया से सफर करना अनिवार्य है, उसी तरह से अगर यह भी नियम बना दिया जाए कि उनके बच्चों को सरकारी स्कूलों में पढऩा है, तो देखिए सारे स्कूल बेहतरीन स्कूलों में तब्दील हो जाएंगे। सरकारी स्कूलों को बचाने और उन्हें स्तरीय बनाने के लिए जो राजनीतिक इच्छाशक्ति चाहिए वह सिरे से गायब है। शिक्षा के अधिकार फोरम के अंबरीश राय का यह कहना सही प्रतीत होता है कि इन एक लाख स्कूलों को बंद करके सरकार ने शिक्षा के अधिकार के लिए खतरे की घंटी बजा दी है।
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खतरे की घंटी
शिक्षा का अधिकार फोरम एक राष्ट्रव्यापी मंच है, जिसमें विभिन्न संगठनों की शिरकत है, जो इस कानून के सही ढंग से लागू करने के लिए तैयार किया गया है। इस फोरम के राष्ट्रीय संयोजक अंबरीश राय से आउटलुक की ब्यूरो प्रमुख भाषा सिंह की हुई बातचीत के अंश
राष्ट्रीय स्तर पर स्कूलों की बंदी और विलय क्या शिक्षा के अधिकार के लिए खतरे की घंटी है
शिक्षा का अधिकार बहुत संघर्षों के बाद मिला है और इसे मारने की तैयारी बहुत समय से चल रही है। अगर सरकारी स्कूल ही नहीं रहेंगे तो वंचित समुदाय के बच्चों के लिए शिक्षा का विकल्प ही खत्म हो जाएगा। यह शिक्षा के अधिकार के लिए खतरे की घंटी है।
बंदी के पीछे क्या वजह है
निजी क्षेत्र के लिए जगह बनानी। यह बड़े पैमाने पर हो रहा है। चाहे वह सरकारी स्कूलों को निजी सरकारी साझेदारी में देने का फैसला हो या फिर बंद करने का, सब से सरकार शिक्षा मुहैया कराने की जिम्मेदारी से पिंड छुड़ाना चाहती है। उच्च शिक्षा और तकनीकी शिक्षा का 75 फीसदी हिस्से पर निजी क्षेत्र का कब्जा हो ही चुका है, अब प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा को भी उन्हें खोल देने की तैयारी हो गई है।
शिक्षा मौलिक अधिकार बनने के बाद भी ये अड़ंगे क्यों
शिक्षा के अधिकार को अधिकार नहीं एक योजना के तौर पर देखा जा रहा है। इसे लागू करने की राजनीतिक इच्छाशक्ति नहीं है। इस अधिकार के लिए मानव संसाधन मंत्रालय ने 53 हजार करोड़ रुपये मांगे थे, मिले 25 हजार करोड़ और नई सरकार ने भी सिर्फ 28 हजार करोड़ रुपये दिए। इससे प्राथमिकता साफ हो जाती है।
सरकार इस अधिकार और सर्वशिक्षा अभियान की समीक्षा करने जा रही है, इसका क्या निहितार्थ है
अगर सरकार इस अधिकार के उदेश्यों की समीक्षा करती और इसे हल्का करना चाहती है, तो दिक्कत है। बाकी कानून के क्रियान्वयन में होने वाली दिक्कतों की समीक्षा हो और उसे सुधारा जाए तो अच्छा है।
सरकारी स्कूलों को मारने की साजिश
शिक्षा के निजीकरण के खिलाफ समान शिक्षा के अधिकार को लेकर लंबे समय से सक्रिय शिक्षाविद् अनिल सदगोपाल अखिल भारत शिक्षा अधिकार मंच से जुड़े हुए हैं। उनसे भाषा सिंह की हुई बातचीत के अंश
स्कूलों को इस तर्क पर बंद किया जा रहा है कि यहां बच्चे नहीं आ रहे है
यहीं सबसे दिलचस्प पहलू है। पहले मारने की सारी तैयारी कर लीजिए और फिर कहिए कि अरे यह तो मर रहा है। सरकारी स्कूलों को पूरी सोची-समझी रणनीति के तहत बर्बाद किया गया, शिक्षा का स्तर गिराया गया, शिक्षकों की अभूतपूर्व कमी की गई और अब कहा जा रहा है कि ये स्कूल खराब हैं इन्हें बंद किया जाना चाहिए। जो लोग अज यह तर्क दे रहे है कि सरकारी स्कूल आर्थिक रूप से चलाना घाटे का सौदा है, दरअसल वे शिक्षा के निजीकरण के पक्षधर हैं।
हल क्या है
नीति में परिवर्तन करना। चाहे वह सर्व शिक्षा अधिकार हो या शिक्षा का मौजूदा कानून-दोनों इसी चक्रव्यूह में फंसने थे। इन्हें यहीं पहुंचना था। मेरा स्पष्ट मानना है कि शिक्षा के अधिकार का मकसद ही यही था कि सरकारी स्कूलों कचरणबद्ध ढंग से खत्म किया जाए। अच्छी-सस्ती शिक्षा और दø अध्यापकों की जिम्मेदारी राज्य की होनी चाहिए तभी हम इस ढांचे को बचा सकते हैं। आपने शिक्षा को देने का काम दो हजार से पांच हजार रुपये पर ठेके पर रखे अध्यापकों के हवाले कर दिया, फिर शिक्षा के स्तर में उन्नति बेमानी बात है।
कब से यह प्रक्रिया शुरू हुई
पिछले एक दशक से यह सिलसिला चल रहा है। लेकिन पिछले एक दो सालों में इसने विकराल रूप ले लिया है। सरकारी स्कूलों-निगम स्कूलों की जमीन को निजी हाथों में देने की तैयारी है। मध्यप्रदेश में स्कूलों को बंद करके शॉपिंग मॉल बनाए गए हैं। कर्नाटक सरकार ने 2013 में अलग से एक समिति बनाई थी ऐसे स्कूलों की शिनाख्त करने के लिए।
गरीब-दलित-अल्पसंख्यक बच्चों पर मार
भारत ज्ञान विज्ञान समिति की राजस्थान शाखा की अध्यक्ष कोमल श्रीवास्तव ने राजस्थान में स्कूलों की बंदी और विलय पर एक ऐतिहासिक रिपोर्ट प्रकाशित करके इस मुद्दे पर सघन चर्चा शुरू करवाई। पेश है आउटलुक की ब्यूरो प्रमुख भाषा से हुई बातचीत के अंश
आपकी रिपोर्ट के बाद राजस्थान सरकार ने कई स्कूल फिर खोले
जी, सही कहा आपने। लेकिन अभी भी हजारों स्कूल बंद है। लाखों बच्चों का भविष्य प्रभावित हो रहा है। यह दुखद है।
इन बच्चों में किस समुदाय या समूह के बच्चे ज्यादा है
निश्चित तौर पर गरीब और वंचित समुदाय के। हमने पाया कि अगर दलित बस्ती का स्कूल बंद कर दिया गया तो वहां के बच्चे सवर्ण जाति के इलाके के स्कूलों में नहीं जा रहे। मुस्लिम बस्ती के बच्चे भी दूसरे स्कूलों में जाने से डरते हैं। लकडिय़ों की शिक्षा पर तो बेहद बुरी मार पड़ी है। लड़कियों के स्कूलों को लडक़ों के स्कूलों के साथ मिला दिया गया है या बहुत दूर कर दिया गया है। उनके घर वालों ने इन बच्चियों की पढ़ाई बीच में ही छुड़ा दी है। इसी तरह से कई मामलों में प्राथमिक विद्यालय को माध्यमिक विद्यालयों के साथ विलय कर दिया गया है। यहां छोटे बच्चों के लिए न तो शौचालय हैं और न ही कोई जगह। दलित बच्चे और गरीब बच्चे स्कूल छोडक़र अब कूड़ा बीनते नजर आते हैं और जुआ खेलते दिखाई देते हैं। जितने हक उन्होंने हासिल किए थे वे एक ही आदेश से खत्म हो गए।
बच्चे स्कूल पर पढ़ रहे हैं, यह तो कानून का उल्लंघन है
सरासर उल्लंघन है। लेकिन सरकारें सुने तब ना। वह तो शिक्षा को बिजनेस बनाने पर तुली है। कल्याणकारी भाव तो खत्म हो गया है। गरीब के बच्चों को शिक्षा से महरूम किया जा रहा है।