मेरठ में पीएसी द्वारा चालीस मुसलमानों का कत्ल करनेका मुकदमा 27 साल चलने के बाद इस निष्कर्ष पर खत्म हुआ कि इस नरसंहार का कोई दोषी नहीं है। दिल्ली की निचली अदालत ने 1987 हाशिमपुरा नरसंहार के मामले में 16 आरोपियों को संदेह का लाभ देते हुए आरोपमुक्त कर दिया।
अदालत ने कहा कि सुबूतों, खास तौर पर आरोपियों की पहचान से जुड़े सुबूतों का अभाव में यह फैसला सुनाया। अदालत ने पीडि़तों के पुनर्वास के लिए मामला दिल्ली राज्य विधि सेवा अधिकरण के हवाले कर दिया। एडिशनल सेशन न्यायाधीश संजय जिंदल ने कहा कि आरोपी पुलिसवालों की शिनाख्त में वादी सफल नहीं हुए, इसलिए उनके खिलाफ कोई सजा नहीं सुनाई जा सकती। पीड़ितों के पुनर्वास का संज्ञान करते हुए अदालत ने इसे शीघ्र से शीघ्र करने की बात कही है।
इस मुकदमे से जुड़ी हुई अधिवक्ता वृंदा ग्रोवर ने आउटलुक से कहा कि अभी पूरा फैसला आना बाकी है। जितना अदालत ने अभी कहा है उससे यह साफ होता कि कोर्ट ने 1987 में हुए नरसंहार से इनकार नहीं किया है और इसीलिए पीड़ितों के पुनर्वास की बात कही है। जहां तक दोषी पुलिसकर्मियों की शिनाख्त और सबूत की बात है, तो यह तो राष्य और पुलिस प्रशासन का काम है ना कि पीड़ितों का। इसे पता लगाना चाहते तो पता 100 फीसदी लगाया जा सकता था कि 27 साल पहले 40 मुसलमानों का कत्ल करने कौन से सिपाही आए थे। यह सवाल तो राज्य सरकार से पूछा जाना चाहिए।
गौरतलब है कि मई, 1987 में उत्तर प्रदेश के मेरठ शहर के हाशिमपुरा मोहल्ले से तलाशी के नाम पर मुसलमानों को उठाकर पीएसी (प्रोवेंशियल आर्मड काउंस्टेबलरी) की 41वी कंपनी के जवानों ने गोली मारी थी। इसमें से 40 लोग हलाक हुए थे और कई छोटे बच्चे बच गए थे, कई घायल भी हुए थे। इस नरसंहार की चार्जशीट गाजियाबाद में 1996 में दाखिल की गई। यानी नौ साल तक यह मामला ऐसे ही लटका रहा। इंसाफ के इंतजार में परशान हो रहे हाशिमपुरा के पीड़ितों और उनके परिजनों ने आखिरकार 2002 में सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया और सुप्रीम कोर्ट के आदेश से सितंबर, 2002 में मुकदमे को दिल्ली स्थानांतरित किया गया। इस दौरान 19 आरोपियों में से तीन
सुनवाई के दौरान ही मर गए।
अभियोजन पक्ष ने इस फैसले को उच्च अदालत में चुनौती देने की बात कही है। पीड़ितों और परिजनों ने अदालत के फैसले से गहरी निराशा जताई है। पीड़ित परिवार की एक महिला ने कहा कि यह देश के लोकतंत्र का चेहरा है। 27 साल पहले 40 मुसलमानों का कत्ल हुआ और दोषी कोई नहीं। गाजियाबाद से लेकर दिल्ली तक हमने धक्के खाते हुए उम्र खत्म कर दी और अब हमारे पुनर्वास की बात हो रही है। किसी को यहां शर्म नहीं आती।