मोदी सरकार के दो साल के जश्न में इजाफा करते हुए पर्यावरण मंत्रालय एक के बाद एक उन नियमों को खत्म कर रहा है जिनसे उद्योग जगत को परेशानी हो रही थी। इसी क्रम में मंत्रालय ने नया दांव चला है पर्यावरण रक्षा कानून के तहत जलाभूमि (वेटलैंड) की शिनाख्त और रक्षा करने के नियमों को लचीला करने का। मंत्रालय ने यह प्रस्तावित किया है कि वर्ष 2010 के नियमों के तहत जलाभूमि को बचाने के लिए समयबद्ध प्रक्रिया को खत्म कर दिया जाएगा।
इसके साथ ही केंद्र सरकार ने यह भी प्रस्तावित किया है कि अभी जो सेंट्रल अथॉरिटी है जलाभूमि को बचाने के लिए उसे निष्क्रय करके सारा अधिकार राज्य सरकारों को दे दिया जाए। मोदी सरकार ने पिछले दो सालों में दो हजार से अधिक परियोजनाओं को मंजूरी दी है। इसमें अधिकतर के बारे में जो पर्यावरण आकंलन मूल्यांकन या सामाजिक मूल्यांकन किया जाना चाहिए था, वह भी पूरा नहीं हुआ था। इसी तरह से कई और नियमों की अनदेखी का लंबा सिलसिल चल रहा है।
पर्यावरण एंव वन मंत्रालय ने जलाभूमि के नियमों में तब्दीली को लेकर अपनी सिफारिशें प्रतिक्रिया के लिए खोल दी है। इस तरह से केंद्र ने अपनी मंशा साफ कर दी है कि वह जलाभूमि को बचाने और उनकी शिनाख्त करने की जिम्मेदारी को अपने सिर पर नहीं लेना चाहता है। दरअसल, अभी 2010 के नियमों के अनुसार और साथ ही अंतर्राष्ट्रीय कनवेंशन के अनुसार सरकारों की जिम्मेदारी जलाभूमि को बचाने की है। लेकिन भू-माफिया से लेकर तमाम सड़क परियोजनाओं की नजर इस भूमि को ही निगलने पर रहती है। इसी तरह से अभी मध्य प्रदेश में बाघ के लिए संरक्षित इलाके में हीरे की खान के लिए प्रस्तावित परियोजना को लेकर भी बहस गरम है। इस समय मध्य प्रदेश के छतरपुर जंगलों में हीरे की खान के लिए मंजूरी देने के प्रस्ताव पर गंभीरता से विचार चल रहा है। अभी इसे नकारा नहीं गया है। बताया जाता है कि मंत्रालय और राज्य सरकार दोनों ही इसके पक्ष में माहौल बनाने में हैं।
वर्ष 2010 के नियम जलाभूमि में सात तरह की गतिविधियों का पूरी तरह से निषेध करती है, जिनमें उद्योग, या बड़ी परियोजनाओं के लिए इसका इस्तेमाल करना भी शामिल है। बताया जाता है कि इससे मोदी सरकार में कई मंत्रालयों को अपनी परियोजनाओं को आगे बढ़ाने में मुश्किल हो रही है।