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संसद के साथ सड़क पर शक्ति परीक्षण

संसद में सत्ता और प्रतिपक्ष के टकराव से शीतकालीन सत्र केवल कुछ घंटों के औपचारिक कामकाज और आरोप-प्रत्यारोप एवं भारी हंगामे के साथ समाप्त हो गया। आजादी के बाद नोटबंदी के सबसे बड़े सरकारी फैसले से पूरे देश के साथ संसद भी हतप्रभ एवं दिशाहीन दिखाई दी।
संसद के साथ सड़क पर शक्ति परीक्षण

अब दोनों पक्ष सड़क पर राजनीतिक अभियान एवं शक्ति परीक्षण करना चाहते हैं। इसमें कोई शक नहीं कि भारतीय जनता पार्टी को लोकसभा में बहुमत ही नहीं उत्तर भारत के अधिकांश राज्यों में सत्ता एवं संगठन की ताकत है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बहुत सोच-विचार कर निर्णायक राजनीतिक आर्थिक दांव खेला है। उनके निर्णय पर भाजपा नेताओं की ओर से कहीं भी असहमति के स्वर नहीं उठे। उनका निर्णय पार्टी के लिए आदेश है। सांसदों, विधायकों, पार्टी पदाधिकारियों, मातृ संस्‍था संघ के कुछ नेताओं को कार्यकर्ताओं एवं जन सामान्य को जवाब देने में कई स्‍थानों पर मुश्किलें भी आ रही हैं। लेकिन विरोध तो दूर असहमति का साहस कोई नहीं जुटा सकता। पार्टी के वयोवृद्ध नेता लालकृष्‍ण आडवाणी ने संसद न चलने और लोकसभा अध्यक्ष एवं संसदीय कार्य मंत्री द्वारा कोई रास्ता नहीं निकाले जाने पर अफसोस के साथ संसद सदस्यता त्यागने की इच्छा आपसी बातचीत में अवश्य व्यक्त कर दी, लेकिन इस नाराजगी में प्रतिपक्ष के रुख पर भी आक्रोश मानकर मोदी-शाह टीम ने संयमित ढंग से कड़वा मीठा घूंट पी लिया। दूसरी तरफ राजनीतिक धमाके की तरह कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने प्रधानमंत्री के विरुद्ध व्यक्तिगत भ्रष्‍टाचार के गंभीर आरोप केवल लोकसभा में बताने का कड़ा रुख अपना लिया। इससे तनाव बढ़ना स्वाभाविक था। नतीजा यह हुआ कि संसद के पूरे सत्र में विमुद्रीकरण पर प्रधानमंत्री ने कोई वक्तव्य नहीं दिया और न ही राहुल गांधी अपने आरोप को पेश कर सके। मोदी 8 नवंबर से 15 दिसंबर तक टी.वी. चैनलों एवं सार्वजनिक सभाओं-कार्यक्रमों में नोटबंदी को भ्रष्टाचार, अवैध धंधों, नकली नोटों के अपराध एवं आतंकवाद से निपटने का सबसे बड़ा हथियार घोषित करते रहे। वहीं संपूर्ण प्रतिपक्ष करोड़ो मजदूरों, किसानों, निम्‍न और मध्यम वर्ग के लोगों के लिए आए संकट का दुःखड़ा सुनाते रहे। आने वाले दिनों में दोनों पक्ष हर राज्य में जनता के दर्द और राहत के मुद्दों पर आवाज उठाएंगे। भाजपा-संघ के कार्यकर्ताओं के लिए यह दौर संभवतः इमरजेंसी से भी अधिक चुनौतीपूर्ण है। वहीं प्रतिपक्ष को अपने-अपने प्रभाव क्षेत्रों में खोई जमीन पर पुनः अधिकार की कोशिश करनी है। लोकतंत्र में सड़क की लड़ाई भले ही जनहित की हो, उसके खतरे बहुत हैं। उत्तर प्रदेश-पंजाब जैसे राज्यों के आगामी विधानसभा चुनावों पर इस टकराव का असर होगा, लेकिन चुनावी हार-जीत से अधिक बड़ा मुद्दा संपूर्ण भारत की अर्थव्यवस्‍था कुछ महीनों तक बिगड़ने एवं दूरगामी परिणामों की दृष्टि से बेहद गंभीर एवं महत्वपूर्ण है। लेकिन सत्ता के क्रांतिकारी फैसले एवं प्रतिपक्ष के लोकतांत्रिक अभियानों को कौन रोक सकता है? आम जनता केवल ‘अच्छे दिनों’  की नई आस ही लगा सकती है।

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