हांगझोंउ में जी-20 देशों के शिखर सम्मेलन से यह गलतफहमी दूर हो जानी चाहिए कि विभिन्न देशों की सीमाओं पर लगी मिसाइलें धमाके के संकेत हो सकते हैं। इसके विपरीत परस्पर विरोधी माने जाने वाले देशों ने अपने-अपने राष्ट्रीय हितों की महत्ता बनाए रखकर आर्थिक विकास के लिए मिलकर काम करने का संकल्प व्यक्त किया है। अमेरिका अपने मित्र देशों के साथ अफगानिस्तान, ईरान-इराक, सीरिया जैसे क्षेत्रों में भले ही सैन्य शक्ति का उपयोग करता रहा है लेकिन चीन-रूस के साथ किसी भी तरह का सैन्य टकराव मोल लेने के लिए नहीं सोच सकता है। यही स्थिति भारत की है।
चीन सीमा पर चलते रहे पुराने विवाद से निपटाने या पाकिस्तान को दी जाती रही सहायता का विरोध प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अवश्य किया लेकिन असली वायदा आर्थिक संबंध बढ़ाना, चीन सहित अंतरराष्ट्रीय व्यापार में असंतुलन खत्म करना एवं विश्व आर्थिक अनुशासन पर जोर दिया। आखिरकार, भारत से ज्यादा तनाव तो जापान और दक्षिण कोरिया को चीन के कारण रहता है। लेकिन दोनों देशों के प्रधानमंत्री बड़ी गर्मजोशी के साथ चीनी राष्ट्रपति शी जिन पिंग से मिले और आर्थिक संबंधों पर जोर दिया। वैसे भी इनके सर्वाधिक व्यापारिक संबंध चीन से ही हैं। दक्षिण चीन सागर क्षेत्र में चीन की दावेदारी पर पिछले महीनों में गंभीर वाकयुद्ध के बावजूद अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा चौगुने उत्साह के साथ चीनी राष्ट्रपति से मिले और आगे आर्थिक रिश्ते बढ़ाने पर चर्चा की। अमेरिका में चीनी पूंजी निवेश और चीन में भी अमेरिकी पूंजी कम नहीं है। जो हाथ पीछे खींचेगा- दोनों को भारी नुकसान हो सकता है। इसलिए दुनिया के समझदार नेताओं के लिए आर्थिक एजेंडा सर्वोपरि है। बयानबाजी और तैयारियां भविष्य की परिस्थितयों पर निर्भर होंगी।