Advertisement

रियल स्टेट: कानून का हथौड़ा, सरकार का बुलडोजर

“सुपरटेक की जुड़वा इमारतों को गिराया जाना कहीं शहरी नियोजन में विध्वंस के सिलसिले की शुरुआत तो...
रियल स्टेट: कानून का हथौड़ा, सरकार का बुलडोजर

“सुपरटेक की जुड़वा इमारतों को गिराया जाना कहीं शहरी नियोजन में विध्वंस के सिलसिले की शुरुआत तो नहीं?”

अगस्त के आखिरी हफ्ते में समाचार चैनलों पर राष्ट्रीय जश्न की मुद्रा में एक नियोजित विध्वंस की उलटी गिनती चल रही थी। नोएडा के सेक्टर 93ए में स्थित सुपरटेक की जुड़वा रिहायशी इमारतों को विस्फोटक लगाकर 28 अगस्त को उड़ाया जाना था। भारत में ऐसा पहली बार हो रहा था। दिन इतवार का था, लिहाजा दिल्ली के कुछ लोग नोएडा निकलने की तैयारी में थे। जो नहीं जा सकते थे, वे टीवी के आगे आंखें गड़ाए बैठे थे। इन्हीं में एक थे 75 बरस के मेडिकल उपकरण डीलर एम. जे. सिंह, जिन्होंने उत्तेजना में अपनी एक परिचित शिवांगी को फोन लगाकर कहा, ‘नोएडा जाओ, देखो क्या हो रहा है, सीखने को मिलेगा।’ दिल्ली में किराये पर रहने वाली मेडिकल प्रोफेशनल शिवांगी उस दिन को याद करते हुए पूछती हैं, ‘गिरा दी गईं उन इमारतों में सीखने जैसा क्या था?’

सवाल वाजिब है। क्या इस घटना पर जश्न मनाने के अलावा हम कुछ सीख सकते हैं? जो ढांचा हजार परिवारों को छत मुहैया करवा सकता था वह आज कुछ करोड़ का मलबा है। सुपरटेक के मालिकान की मानें तो महज पंद्रह सेकंड में उनके 500 करोड़ रुपये हवा हो गए। इस राशि में सैकड़ों लोगों की गाढ़ी कमाई शामिल है। हजारों मजदूरों का खून-पसीना शामिल है। टनों सीमेंट, लोहा, लकड़ी शामिल है और शहर में पक्के मकान की वे ख्वाहिशें शामिल हैं जिसकी आस में कुछ लोगों ने अपने गांव के कच्चे मकान भी शायद गंवा दिए होंगे। इन दो इमारतों के बनने में शामिल तमाम ठोस और महीन चीजें दांव पर इसलिए लगा दी गईं क्योंकि अदालत का आदेश था।

सुपरटेक की जुड़वा इमारतें (सेयान और एपेक्स)नोएडा प्राधिकरण की मंजूरी से बनाई गई थीं। इनके निर्माण में कानूनों का उल्लंघन बिल्डर और अफसरों की मिलीभगत से हुआ था। उससे दुखी थे अगल-बगल की सोसायटियों में रहने वाले लोग। अपनी नौ साल की अदालती लड़ाई में कामयाब रहने के बाद भी लाखों के फ्लैटों में रहने वाले ये लोग आज खुश नहीं हैं। बीते 7 सितंबर को हुई नोएडा प्राधिकरण की समीक्षा बैठक में इन्होंने शिकायत की कि अब इन्हें वहां मशीनें चलने से दिक्कत हो रही है। दूसरी ओर जिन लोगों के मकान गिराए गए जुड़वा टावरों में थे, उनमें कई को अब तक पूरी तरह मुआवजा नहीं मिल सका है। टेलिविजन चैनलों पर इनमें से कई के रोते हुए चेहरे देश देख चुका है।

बेघरों का देश

इस देश में जिनके घर कानून के फरमान पर चुपचाप उजाड़े जा रहे हैं, वे सुपरटेक के ग्राहकों जैसे खुशकिस्मत नहीं हैं। जिस दिन सुपरटेक की इमारतें गिराई गईं, उससे दस दिन पहले तक दक्षिणी दिल्ली में (2022 में) 473 आवासीय ढांचे ढहाए गए और 157 संपत्तियों को सील किया गया। दो साल पहले आई हाउसिंग एंड लैंड राइट्स नेटवर्क (एचएलआरएन) की एक रिपोर्ट की मानें तो अकेले 2019 में देश भर के शहरी व ग्रामीण इलाकों में 22000 मकान गिराए गए और एक लाख से ज्यादा लोग बेघर हुए। रिपोर्ट कहती है कि ये आंकड़े और ज्यादा हो सकते हैं। रिपोर्ट की मानें तो कोविड महामारी के दौरान कम से कम 20,000 लोगों को बेघर कर दिया गया।

सुपरटेक के विध्वंस की भव्यता अपनी जगह, पर ‘फोर्स्ड इविक्शंस इन इंडिया’ नाम की यह रिपोर्ट बताती है कि 2017 और 2018 में कुल साढ़े चार लाख से ज्यादा लोगों को उनके घरों से बेघर किया गया, जिनके पुनर्स्थापन का काम 2019 तक सरकारें पूरा नहीं कर सकी थीं। रिपोर्ट ने इस बात पर चिंता जतायी है कि रिहाइशों के विध्वंस के बाद जमीनों का कोई वैकल्पिक इस्तेमाल नहीं किया गया, फिर आखिर लोगों को उजाड़ा क्यों गया।

कयास लगाए जा रहे हैं कि सुपरटेक की इमारतें जहां ढहाई गई हैं वहां बिल्डर कोई और आवासीय परियोजना बनाएगा या कोई मंदिर बनाया जाएगा। नोएडा स्थित आम्रपाली बिल्डर के एक प्रोजेक्ट में अपनी बीस साल की कमाई लगाकर अंतत: दिल्ली छोड़ चुके पत्रकार अजीत सिंह यादव पूछते हैं, ‘सुपरटेक के टावरों में क्या नोएडा के सरकारी दफ्तरों को नहीं बसाया जा सकता था? लोगों को आसानी होती, सारा काम एक ही जगह हो जाता?’ यह सवाल कई लोगों ने उठाया है कि टावर गिराने की क्या जरूरत थी, उनका वैकल्पिक इस्तेमाल क्यों नहीं हो सकता था।

एचएलआरएन की रिपोर्ट कहती है कि अवैध बताकर ज्यादातर गरीबों के मकान तोड़े जाते हैं। सुपरटेक के दोनों टावर गरीबों के रहने लायक नहीं थे, फिर भी तोड़े गए। 500 करोड़ से ज्यादा का नुकसान हुआ। क्या इस फैसले का कोई और भी अर्थ है? 

विध्वंस उर्फ शहरी नियोजन

बीती 13 जुलाई को जमात-ए-उलेमा-ए-हिंद की एक याचिका पर सुप्रीम कोर्ट के न्यायमूर्ति बीआर गवाई और पीएस नरसिंह ने देश भर के राज्यों में चल रहे ध्वस्तीकरण अभियानों पर रोक लगाने का आदेश देने से इनकार कर दिया था। इस कानूनी फरमान से क्या यह अर्थ निकाला जा सकता है कि विध्वंस अब शहरी नियोजन की नीति का आधिकारिक हिस्सा बन जाएगा और किसी को आवास से वंचित करना कानूनन जायज होगा? युनिवर्सिटी ऑफ टोरन्टो के भूगोल व नियोजन विभाग के प्रोफेसर जेसन हैकवर्थ लिखते हैं कि अमेरिका और अन्य पश्चिमी देशों में विध्वंस शहरी नियोजन नीति का एक अनिवार्य अंग रहा है। बीते 40 वर्षों में अमेरिका के 49 शहरों में बसी 269 रिहाइशों में आधे आवास खत्म किए जा चुके हैं। यह वह पट्टी है जहां 1980 से ही औद्योगिक गिरावट दर्ज की गई है। समानताओं की उपेक्षा नहीं की जा सकती, खासकर तब जबकि भारत आर्थिक मंदी, महंगाई और बेरोजगारी के कुचक्र में लंबे समय से फंसा हुआ है। 

तोड़ने की महामारी

अब, जबकि नोएडा के टावरों के बहाने विध्वंस के समर्थन में एक आम धारणा बनाई जा चुकी है, तो यह सिलसिला रुकने वाला नहीं है। सितंबर के पहले हफ्ते में सुप्रीम कोर्ट में गुरुग्राम के सात रिहायशी टावरों को गिराने के लिए एक याचिका लगाई गई है। ये टावर सेक्टर 37-डी में सरकारी नवरत्न कंपनी नेशनल बिल्डिंग्स कंस्ट्रक्शन कॉरपोरेशन (एनबीसीसी) के बनाए हुए हैं। इनमें कुल 800 के आसपास फ्लैट हैं जिनके खरीदार अवकाश प्राप्त आइएएस अधिकारी हैं। इन टावरों को गिराए जाने से सरकारी खजाने को 700 करोड़ रुपये के नुकसान का अंदाजा है।

नोएडा में कई अधूरी, विफल और भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ी आवासीय परियोजनाओं को पूरा करने का काम सुप्रीम कोर्ट द्वारा एनबीसीसी को दिया गया था। आम्रपाली की परियोजना उन्हीं में एक थी। अजीत कहते हैं, ‘सरकारी कंपनी भी पैसा बनाने में लगी है। हमें कहा गया कि दो करोड़ रुपया और दीजिए, रेट बढ़ गया है। उम्मीद कर रहे हैं कि इस साल मकान मिल जाएगा, लेकिन कैसा होगा पता नहीं।’ गौर करने वाली बात है कि बीती फरवरी में सुप्रीम कोर्ट में आम्रपाली के निवासियों की ओर से पैरवी करते हुए उनके वकील ने नोएडा में एनबीसीसी के बनाए मकानों की गुणवत्ता पर भी सवाल उठाया था।

विकास के नाम पर ध्वंस के इस तमाशे के बीच नहीं भूलना चाहिए कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 2022 के अंत तक देश के सभी बेघरों को एक मकान दिलवाने का वादा किया था। सरकारी वेबसाइट के अनुसार अब तक केवल 62.43 लाख मकान बनकर तैयार हुए हैं जबकि लक्ष्य करीब तीन करोड़ का है। और 2022 खत्म होने में केवल तीन महीने बचे हैं।

अब आप हिंदी आउटलुक अपने मोबाइल पर भी पढ़ सकते हैं। डाउनलोड करें आउटलुक हिंदी एप गूगल प्ले स्टोर या एपल स्टोर से
Advertisement
Advertisement
Advertisement
  Close Ad