हमारे औपनिवेशिक अतीत से लेकर आज के भारत तक, स्वतंत्रता सेनानी, नेता, एक्टिविस्ट, आम आदमी, लेखक, स्तंभकार का कभी न कभी हर मर्ज की दवा ‘लाठी’ से आमना-सामना हुआ है। लाठी शक्ति का रूप है, जो ‘जिसकी लाठी उसकी भैंस’ मुहावरे से उपजा है और जो सांकेतिक रूप से बेंत के रूप में भी जरूरतमदों को सहयोग देती है।
हाल ही में मैं बहुमुखी लाठी की जद में आया जब मैं हाथरस के बुलगढ़ी गांव गया था, जहां आरोप है कि चार उच्च जाति के लड़कों ने 19 साल की दलित लड़की के साथ बलात्कार किया, जिसके बाद अपने जख्मों से लड़ते हुए वह जिंदगी से हार गई।
बहुमत के दंभ पर सवार सरकार ने नागरिक कार्यकर्ता के नाते भी हमें अपने मूल कर्तव्य को निभाने से रोकने के लिए जबर्दस्त बंदोबस्त किया था। सरकार का ज्यादातर वक्त राजनैतिक विरोधियों के दमन में ही गुजरता है। तो, वहां शोषित और वंचितों के साथ खड़े होने का मतलब है, जबर्दस्त डर का सामना! स्थानीय अधिकारी मुझे भीड़ को रोकने के लिए बनाए गए बैरीकेड के पास ले गए और जैसे ही एक महिला पत्रकार ने मेरा इंटरव्यू शुरू किया, लाठियों की बरसात शुरू हो गई। चंद सेकंड में ही उत्तर प्रदेश की ‘ठोको’ पुलिस ने खुद को गौरवान्वित किया, जैसा अब एक वायरल वीडियो में देखा जा सकता है। उन्होंने हमें घेरा और धोनी के हेलीकॉप्टर शॉट की शानदार छाप हम पर छोड़ने लगे। मथुरा का एक युवा अभी तक सिर की चोट के कारण अस्पताल में भर्ती है।
जब हम पर अंधाधुंध लाठियां बरसाई जा रही थीं, उस पल पुलिसवालों को दार्शनिक संदेश देने और उन्हें गरिमा की याद दिलाने का समय नहीं था। उस वक्त आगे की लड़ाई लड़ने के लिए खुद को और अपने आसपास के दूसरे लोगों को बचाना जरूरी था। यहां तक कि एक पखवाड़े बाद देश जब राज्य की इस क्रूर छवि से आगे बढ़ गया और ऊर्जा, ऑक्सीजन और पानी देने वाली थ्री इन वन टर्बाइन के अभिनव प्रयोग पर चर्चा करने लगा, मैं ऐसा नहीं कर पाया। शायद वजह लाठियों से दिमाग की झनझनाहट हो, लेकिन मैं अपने दिमाग से उन तीन मसलों को नहीं झटक सकता, जो हम भारत के लोगों को झुकने पर मजबूर कर रहे हैं, भले इंडिया के लोग ऐसा न महसूस करते हों।
एक तो, शोषण और अत्याचार-अनाचार के दायरे में जाति भेदभाव और स्त्री होने का अभिशाप है। दरअसल स्त्रियां ही हमेशा सबसे घृणित अपराधों का लक्ष्य होती हैं। हाथरस में जो हुआ, वही इसी हकीकत का इजहार है। दुखद यह भी है कि हाथरस के मुकाबले भीषण या उससे भी अधिक घिनौने अनगिनत मामले हमारे आसपास हर समय होते रहते हैं।
दूसरे, औपनिवेशिक सत्ता का दमनकारी प्रतीक लाठी अब भी अपने ही नागरिकों के खिलाफ आधुनिक राज्य का पसंदीदा हथियार बना हुआ है। सत्ता में बैठे लोग विरोधियों को दबाने के लिए बातचीत करने या भीड़ को नियंत्रित करने के तरीकों के बजाय अंधाधुंध लाठी का इस्तेमाल करते हैं। हम हिंसा के प्रति जैसे चेतन-शून्य हो गए हैं और पुलिसिया लाठी के आदी हो गए हैं। यह कहना कोई गुस्सा नहीं जगाता कि हमने लाठी खाई है। अक्सर ‘पिटने’ के बाद यह वाक्य गर्व की तरह बोला जाता है। इससे तो अत्याचारियों को शह ही मिलती है। चाहे महामारी के डर से शहरों से पलायन करने वाला मजदूर हो, फसल की अच्छी कीमत के लिए आंदोलन करने वाले किसान हों या विपक्षी नेता, पुलिस के लाठी-डंडों से कभी दूर नहीं होते। मुझ पर हुए लाठीचार्ज को मैं न केवल अनैतिक बल्कि उत्तर प्रदेश पुलिस के मैनुअल का उल्लंघन भी कहता हूं, जो कहता है कि बल प्रयोग तभी हो सकता है, जब भीड़ ‘लाठीचार्ज करने के इरादे की स्पष्ट चेतावनी’ के बावजूद तितर-बितर होने से मना करे। ऐसे में, राज्य सरकार राज्य पुलिस में हिंसा की संस्कृति को संस्थागत रूप दे रही है। मेरे दादा चौधरी चरण सिंह ने 1977 में देश का पहला पुलिस आयोग बनाया था और 43 साल बाद भी हम एक विश्वसनीय, प्रभावी और संवेदनशील पुलिस बनाने के लिए सुधारों की आवश्यकता पर बहस कर रहे हैं।
तीसरे, कब किसानों की लाठी अत्याचार का प्रतीक बन गई? किसानों के लिए लाठी परंपरा से विरोध या सामाजिक शक्ति का प्रतीक रही है, चाहे वह खेतिहर हो या हाथरस के परिवार जैसा खेतिहर मजदूर। बुजुर्गों के लिए यह सहारा है। शक्तिहीन के लिए यह जानवरों से बचने का हथियार रहा है। आज जब लाठी राज्य की ताकत बन गई है, इनमें से हर लाठी विराम ले चुकी है।
(रालोद उपाध्यक्ष की आपबीती)