अगले महीने की गांधी जयंती यानी 2 अक्टूबर को स्वच्छ भारत अभियान के एक साल पूरे हो जाएंगे। मिली जानकारी के अनुसार नरेंद्र मोदी सरकार आगामी दो अक्टूबर को फिर 'कुछ बड़ा’ करने की तैयारी में है। खबर मिली है कि खुद भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने सभी राज्यों में भाजपा नेताओं को यह आदेश दिया है कि वे मैला प्रथा की समाप्ति और सफाई कामगारों के मुद्दों पर सक्रिय संगठनों ने सीधे संपर्क बनाएं। इन नेताओं को भाजपा केंद्रीय नेतृत्व में अलग-अलग राज्यों की जिम्मेदारी दी है। सामाजिक-आर्थिक-जातिगत जनगणना के ताजा आंकड़ों को आधार बनाकर विभिन्न राज्यों में मैला ढोने वाले लोगों, शुष्क शौचालयों के ब्यौरे का डाटाबेस तैयार किया गया है। इस डाटाबेस के साथ भाजपा नेता विभिन्न राज्यों में इस मुद्दे पर सक्रिय सामाजिक संगठनों को पार्टी के करीब लाने का काम कर रहे हैं।
बड़ा सवाल यह है कि क्या पिछले एक साल में सफाई कर्मचारियों की स्थिति में कोई अंतर आया। क्या साफ-सफाई करते हुए उनकी मौतों का ग्राफ थमा। तमाम दावों के बीच हो रही इन मौतों, जिन्हें समुदाय हत्याएं मानता है, की रोकथाम की किसी को फिक्र है भी की नहीं। देशभर में सीवर और सेप्टिक टैंक में मारे गए तकरीबन 1000 सफाई कर्मचारियों का पूरा विवरण गैर सरकारी संस्थाएं सरकार को सौंप चुकीं। सुप्रीम कोर्ट के वर्ष 2014 के फैसले के अनुसार, इन तमाम मौतों पर संबंधित मृतकों के परिजनों को 10 लाख रुपये मिलने चाहिए। उसे देने के लिए केंद्र और राज्य सरकारें इनकार के मूड में है। साथ ही, देश में वर्ष 2013 में मैला प्रथा के खात्मे के लिए पारित नए कानून के हिसाब से सीवर-सेप्टिक टैंक को साफ करने के लिए किसी भी इनसान को उतारना अपराध है और सुप्रीम कोर्ट के आदेश की अवहेलना हो रही है, कानून की अवहेलना हो रही है। एक जाति विशेष के लोगों को सीवर-सेप्टिक टैंक में मरने के लिए उतारा जा रहा है और उधर, करोड़ों रुपये स्वच्छ भारत अभियान के प्रचार पर फंूके जा रहे हैं।
सीवर और सेप्टिक टैंक में मरने वालों की संक्चया लगातार बढ़ रही है और केंद्र सरकार ने इसे रोकने के लिए एक भी कदम नहीं उठाया। जब ये पंक्तियां लिखी जा रही हैं और जब आप इसे पढ़ रहे होंगे, ठीक उसी वक्त देशभर में हजारों की संख्या में सफाई कर्मचारी सेप्टिक टैंक या सीवर में उतर रहे होंगे। जो भी उतर रहा होगा, वह अपनी जान जोखिम में डालकर ही उतर रहा होगा, क्योंकि सीवर में भरी विषवायु कभी बताकर जान नहीं लेती। मरने वालों के परिवारों की कितनी दयनीय स्थिति होती है, इसकी कल्पना भी मुश्किल है। इनके परिवार, परिवार के बच्चे जिंदा रहने के लिए कैसे संघर्ष करते हैं और उन्हें कैसे कहीं से कोई सहारा नहीं मिलता, ऐसी हृदयविदारक जिंदा कहानियां देश भर में पसरी हुई हैं (देखें बॉक्स)।
केंद्र से लेकर राज्य सरकारों और जिला प्रशासन की खौफनाक अवहेलना झेलने को मजबूर ये विधवाएं, मृतकों के परिजन अब अपनी व्यथा समाज के सामने रखने को तैयार हो रहे हैं। देशभर में मैला मुक्ति के लिए सक्रिय संगठन-सफाई कर्मचारी आंदोलन ने पिछले दिनों देश की राजधानी दिल्ली में 22 राज्यों के प्रतिनिधियों के साथ तय किया कि देश भर में सीवर-सेप्टिक टैंक में होने वाली मौतों को एक बड़े आंदोलन के रूप में चलाया जाएगा। देशभर में सफाईकर्मियों के बीच आंदोलन विस्तृत सर्वे करा रहा है। इसके जरिये सीवर और सेप्टिक टैंक में काम करने वालों और मृतकों का ब्यौरा जुटाया जा रहा है। इन विधवाओं और उनके परिजनों का गुस्सा उबाल पर है। हैदराबाद में दलित बस्ती में बड़ी मुश्किल से जीवन बसर कर रही श्रीलता और उनकी आठ साल की बेटी ग्रीष्मा जब अपनी वेदना सुनाती हैं तो जातिगत दंश पर टिकी इस सफाई व्यवस्था का सत्य उजागर होती है। ग्लोरी बताती है कि वह डॉक्टर बनना चाहती है क्योंकि डॉक्टरों ने उसके पिता का इलाज ठीक से नहीं किया। पापा गटर से बाहर निकाले गए थे न, इसलिए कोई डॉक्टर उन्हें छूने को तैयार नहीं था। मैं डॉक्टर बनकर अपने लोगों का सही ढंग से इलाज करूंगी। यह कहकर ग्लोरी और उसकी मां दोनों रोने लगती हैं। लेकिन समाज में चुप्पी कायम रहती है। अब देश के अलग-अलग इलाकों में जीने की जद्दोजहद में लगी इन महिलाओं और मृतकों के परिजनों का दुख जब एक जगह जमा होगा तो ञ्चया वह सैनिटेशन के सही सवालों को उठा पाएगा, यह अभी देखना बाकी है।
इस मुद्दे पर सफाई कामगार समाज में किस कदर बेचैनी है, इस पर चर्चा आगे करेंगे। पहले एक नजर केंद्र सरकार की नीतियों और भाजपा की तैयारियों पर डालनी जरूरी है क्योंकि एक तरफ सफाई कामगार समाज बेतरह परेशान है, जातिगत दंश से बाहर आने को आतुर है और ठीक उसी समय इस समाज पर अपनी पैठ बढ़ाने के लिए केंद्र सरकार और भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) अपना पूरा जोर लगाए हुए है। दिल्ली में पार्टी के एक वरिष्ठ नेता ने नाम न छापने की शर्त पर बताया, 'इस काम के लिए पार्टी बहुत पैसा खर्च करने को तैयार है। पार्टी को इस मुद्दे पर आगे बढ़ने के लिए बड़ी संख्या में सफाई कर्मचारी समुदाय के लोग चाहिए ताकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के स्वच्छ भारत अभियान को सीधे उन तक पहुंचाया जा सके। पार्टी इस समुदाय में अपना मजबूत आधार बनाना चाहती है।’ इस उद्देश्य के लिए अलग-अलग राज्यों का प्रभार भाजपा नेताओं को सौंपा गया है और उनसे इसका नक्शा तैयार करने को कहा गया है। ये नेता अपना प्रभाव इस्तेमाल करके समुदाय के नेताओं को अपने साथ जोड़ने की भरपूर कवायद कर रहे हैं। वे समुदाय के नेताओं को यहां तक का भरोसा दे रहे हैं कि भाजपा उनके जरूरी खर्चे उठाने को तैयार है, बशर्ते वे समुदाय से पार्टी का सीधा संपर्क बनाएं। इस मद में अब तक भाजपा कितना खर्च कर चुकी है, या कितना करेगी, इस कयासबाजी में जाने से ज्यादा बड़ी बात यह है कि स्वच्छ भारत और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के मिशन 2019 को बड़े जनाधार तक पहुंचाने, पार्टी का विस्तार करने की बेतरह फिक्र भाजपा आलाकमान को है। बताया गया कि भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने तमाम राज्यों का जिम्मा जिन भाजपा नेताओं को सौंपा है, उन्हें वापस रिपोर्ट अमित शाह को ही करनी है। अगले तीन से चार महीने में इस समुदाय के भीतर पार्टी का बड़ा नेटवर्क तैयार करने की तैयारी है। इस तरह समुदाय और उसके नेताओं और सिविल सोसायटी के भीतर पैठ बनाने की फिक्र भाजपा को सता रही है। लेकिन इस समुदाय की बुनियादी जरूरतों और उनके जीवन को बचाने की दिशा में कोई सरकारी पहल पिछले एक साल में होती दिखाई नहीं पड़ती।
भाजपा के इस राजनीतिक दांव के बीच सफाई कर्मचारियों मौतें बदस्तूर जारी हैं। इन मौतों को रोकने के लिए केंद्र सरकार को सैनिटेशन को आधुनिक करने की दिशा में जो कदम उठाने चाहिए थे, वे कहीं से भी उसके एजेंडे में दिखाई नहीं दे रहे हैं। राज्यसभा सांसद और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के नेता डी.राजा ने आउटलुक को बताया कि कायदे से प्रधानमंत्री को स्मार्ट सिटी की घोषणा बंद करके स्मार्ट सैनिटेशन की घोषणा करनी चाहिए। सीवर सिस्टम को आधुनिक करने पर धन खर्च करना चाहिए। जब तक सैनिटेशन को जाति आधारित पेशे से मुक्त नहीं किया जाएगा, तब तक सफाई कर्मचारियों की मुक्ति नहीं होगी। इस संदर्भ में एक बड़ी विडंबना की ओर ध्यान देना जरूरी है। सीवर और सेप्टिक टैंक साफ करते समय मारे गए लोगों के परिजनों को सुप्रीम कोर्ट के आदेश के अनुसार 10 लाख रुपये दिए जाने हैं लेकिन उन्हें यह दिलाना बेहद मुश्किल है। सफाई कर्मचारी आंदोलन ने देश भर से करीब 800 मौतों का विस्तृत ब्यौरा जुटाया है लेकिन अभी तक बहुत ही कम केसों में राशि मिल पाई है। आउटलुक को यह सफाई कर्मचारी आंदोलन की दीप्ति सुकुमार ने बताया, जिनके नेतृत्व में 200 मृतकों का विस्तृत विवरण तमिलनाडु से जुटाने में संगठन को सफलता मिली। दीप्ति का कहना है, 'सरकार सिर्फ सीवर में होने वाली उन मौतों में मुआवजा देने को तैयार हो रही है, जहां उसके स्थायी कर्मचारी मरे। सवाल यह है कि अधिकांश मामलों में ठेके पर रखे गए मजदूरों को ही साफ करने के लिए ड्रेन में भेजा जाता है। और सुप्रीम कोर्ट का फैसला स्थायी और अस्थायी कर्मचारियों में कोई अंतर नहीं करता। इसके अलावा, मृतक के परिजनों को प्रशासनिक अधिकारी इस कदर डराते हैं, इतने कागजात मांगते हैं कि सारी प्रक्रिया पूरी करनी बेहद मुश्किल हो जाती है। सुप्रीम कोर्ट के फैसले के अनुसार वर्ष 1993 के बाद से हुई तमाम सीवर मौतों में 10 लाख रुपये का मुआवजा देना है, लेकिन अपनी तरफ से इस फैसले के अमल के लिए केंद्र सरकार ने कोई पहल नहीं की है।
हाल ही में कर्नाटक की राजधानी बेंगलूरु में राज्य के सामाजिक कल्याण मंत्री एच.अंजेनिया के घर के आगे 18 अगस्त 2015 को दो सफाई कर्मचारियों की सीवर लाइन में मौत हो गई। राजस्थान के अजमेर में 13 अगस्त 2015 को तीन सफाई कर्मियों की मौत हुई। आउटलुक के पास अभी तक तमिलनाडु, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, बिहार, महाराष्ट्र, चंडीगढ़, उत्तराखंड, मध्य प्रदेश, हरियाणा, दिल्ली, राजस्थान, पश्चिम बंगाल और उत्तर प्रदेश के 200 से अधिक सीवर-सेप्टिक टैंक में मारे गए लोगों का विस्तृत ब्यौरा है, जिसे सफाई कर्मचारी आंदोलन ने जुटाया है। देश के तकरीबन हर राज्य में सीवर लाइन-सेप्टिक टैंक को साफ करने के लिए एक जाति विशेष के इनसानों को उतारा जा रहा है, जो गैर-कानूनी है। हर जगह देश के इन नागरिकों की मौतें हो रही है, जिसके लिए किसी को कोई दोषी नहीं ठहराया जाता। उन्हें जो मुआवजा मिलना चाहिए, वह देने के लिए प्रशासन तैयार नहीं है। इन मौतों का ब्यौरा जुटाने का काम सरकार का होना चाहिए, उसमें उसकी दिलचस्पी नहीं है। सबसे अहम बात, सैनिटेशन-सीवर को आधुनिक करने की है ताकि किसी भी इनसान को इसे साफ करने के लिए अपनी जान जोखिम में न डालनी पड़े। इसके बारे में क्यों नहीं सरकार सोच रही।
स्वच्छ भारत अभियान का दम भरने वाली नरेंद्र मोदी सरकार इतने बड़े मुद्दे पर पूरी तरह क्यों खामोश बनी हुई है, यह सवाल जब सफाई कर्मचारी आंदोलन के नेता बेजवाड़ा विल्सन से पूछा तो उन्होंने दो टूक शब्दों में कहा, 'ये मौतें नहीं हैं, हत्याएं हैं। हमारी जाति के लोग सीवर-सेप्टिक टैंकों में मारे जाते हैं। कोई स्वच्छ भारत अभियान इस जातिगत गंदगी को साफ करने को तैयार नहीं है। वे इस पूरे ढांचे को यूं ही बनाए रखना चाहते हैं। हम देश भर से मृतकों के परिजनों को जुटाकर आंदोलन करेंगे कि हमें सीवर-सेप्टिक टैंक में मारने का हक किसी को नहीं है। एक ही सवाल है हमारा, ये हत्याएं कब बंद होंगी और इनका हत्यारा कब दोषी करार दिया जाएगा।’
बॉक्स
आसुंओं के साथ संघर्ष
इन तमाम औरतों के घर, शहर, राज्य अलग-अलग हो सकते हैं, जुबान अलग हो सकती है, लेकिन दुख की एक ही डोर से ये बंधी हैं। इनके पति, भाई, बेटे की जान सीवर-सेप्टिक साफ करते हुए गई। इन मौतों को वे सब हत्याएं मानती हैं। वे बेहद मुश्किल से घर-गृहस्थी चलाते हुए इन मौतों की हिसाब लेने के लिए, मृतकों को इंसाफ दिलाने के लिए सरकारी दक्रतरों के चञ्चकर भी काटती हैं, बैठकों में जाती है, रो-रोकर सूख चुकी आंखों में फिर-फिर दुख उमड़ता है, जिसे वे साड़ी के कोर से पोंछते हुए व्यथा कहती जाती हैं। तकरीबन सब की सब पन्नी या फाइल में से मृतकों की फोटो, उनकी मौत की छपी खबर की कतरन, एफआईआर की फोटो, पोस्टमार्टम रिपोर्ट आदि ऐसे संभाल कर रखती हैं, जैसे वे उनके जीवन की सबसे बेशकीमती चीज हो। अपने प्रिय की मौत के लिए इंसाफ की लड़ाई में उनके पास सबसे बड़े हथियार यही है।
पंचलम्माः
उनके एक हाथ में एक पन्नी थी और दूसरे हाथ से बेटे का हाथ पकड़ रखा था। लड़के का नाम शंकर और उसकी मां का नाम पैंचलम्मा था, भावविहीन चेहरे और आवाज के साथ चेन्नई की रहने वाली पंचलम्मा बिल्कुल सीधे-सीधे कहना शुरू किया, मेरे पति का नाम मालकोंदइया था, उम्र 48 साल थी। उनकी मौत एक सेप्टिक टैंक की सफाई करते समय 16 जुलाई 2014 को हुई। मैं सिर्फ और सिर्फ एक बात कहना चाहती हूं, -‘ये समाज हमें इनसान नहीं समझता। अपनी गंदगी साफ करने के लिए हमें गटर में ढकेलता है। आज मेरे घर में आदमी नहीं है और इसका कारण सिर्फ और सिर्फ आप हैं। किसने मारा मेरे आदमी को, वह बीमारी से नहीं मरा, दुर्घटना में नहीं मरा, उसे तो मारा है...ये हत्या है, हत्या। इसके हत्यारे बाहर घूम रहे हैं.. और लोगों को गटर में उतारने की तैयारी में। न ये हत्याएं रुकेंगी और न ही कभी ये हत्यारे पकड़े जाएंगे।’ ये सारी बातें पैंचलम्मा बिना आवाज में कोई तल्खी लाए या गुस्सा लाए कहती हैं। मैं उनके चेहरे को बहुत ध्यान से देखती हूं- कहीं कोई शिकन नहीं। वह सारी बातें तमिल में कह रही थीं, जिसका अनुवाद कुछ साथी कर रहे थे। आज घर के बुजुर्ग कहने लगे, घर में कोई मर्द नहीं रहा, कैसे चलेगा। सवाल पैसे का नहीं है। कोई एक करोड़ रुपये भी दे तो मेरे बच्चों का पिता वापस नहीं आएगा।’
नागम्मा:
चेन्नई के तांबरम में रहने वाली नागम्मा अभी साफ-सफाई का काम करके बच्चियों को पाल रही हैं। बड़ी बेटी शैला 11वीं और छोटी आनंदी नौवीं में। दोनों को अपने पिता कनैया की याद नहीं जिनका निधन 2007 में एक सेप्टिक टैंक की सफाई करते हुए दो अन्य लोगों के साथ हुआ था। इसमें सुरअम्मा का बेटा भी शामिल था। नागअम्मा पूछती है, यह कोई नहीं बताता कि सिर्फ हमारे (जाति) लोगों की मौत ञ्चयों गटर में होती है। बाकी जात के लोग तो सेप्टिक टैंक या सीवर में नहीं मरते। क्या आप हमें यह बताना चाहते हैं कि ऊपर से ही हमारी मौत गंदगी में लिखी है। मैं नहीं मानती ऐसे हत्यारे नियम को। हमारे आदमी समाज की गंदगी साफ करते-करते जान धोएं, हम विधवा होकर जीवन बिताए, भारी मुश्किलों से बच्चों को पाले। मन करता है जला दूं ये सब। और फिर पूरी नफरत से नागअम्मा थूकती हैं। पल्ले से मुंह और आंख पोंछती हैं।
श्रीलता:
मेरे हसबैंड का नाम वी.चंद्रशेखर, 2013, जून 21 को गटर में एक्सीडेंट हुआ, बाद में मौत हो गई। गटर की विषवायु उन्हें खा गई। मेरी बेटी ग्रीष्मा को डॉक्टर बनना है क्योंकि उसने देखा कि उसके पिता का अस्पताल में इलाज नहीं हुआ। गटर से निकाला था, तो कोई डॉक्टर छूने को तैयार न था। मुझे भी सफाई का काम दे रहे थे, मैं नहीं चाहती। हमें क्यंू इस गंदगी में मरने के लिए ढकेलते हैं। हमारे आदमी को मारते हैं और कोई नहीं पकड़ा जाता, क्यंू?