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सुजेट जॉर्डन: जिंदादिल की ख्वाहिशों की मौत

यह एक ब्रांड की तरह ऐसी छवि बनाता है जिससे मुक्त हो पाना लगभग असंभव है। भारत में तो इससे बाहर निकल पाना और भी मुश्किल है क्योंकि यहां हर पड़ोसी के पास खास निगाहें, कान और जुबान है। जहां देखने वाले रात में खिड़की के पर्दों के पीछे से इंतज़ार करते हैं कि कौन कब घर लौटता है। कौन किससे मिलने आ रहा है। ख़ास तौर पर तब जब घर में कोई दूसरा न हो। बलात्कार की पीड़ा भोग चुके लोग खास तौर पर इसे जानते हैं क्योंकि यह जो भी सकारात्मक या रचनात्मक है उस पर धब्बा लगा देता है। सार्वजनिक कामों में इसकी कीमत चुकानी पड़ती है। अगर ‘पार्क स्ट्रीट बलात्कार पीड़ित’ की बात की जाए तो तब वह एक जीवंत पार्टीपसंद लड़की थी, जिसे नाइटक्लब पसंद थे। उसने एक छोड़ी की भूल की जिसने उसकी सारी ज़िंदगी बदल दी। वैसे भी जीवंत पार्टीपसंद लड़कियां आधी रात के आसपास सबके निशाने पर होती हैं। ख़ास तौर पर तब संदेहास्पद पहचान वाले शिकारी घूमते रहते हैं।
सुजेट जॉर्डन: जिंदादिल की ख्वाहिशों की मौत

शायद इसमें उसका कोई दोष नहीं था कि उसकी कहानी सुर्खियों में आयी। खास परिस्थितियों की वजह से यह घटना ज्यादा चर्चा में आई। उसे आधी रात के बाद एक मशहूर रोड पर तेज रफ्तार वाली कार से बाहर फेंक दिया गया। जब उसने न्याय मांगने की कोशिश की तो उसे निर्ममता से कहा गया कि सारी कहानी ‘सजानो घोटना’ है। फर्जी है। बढ़ा-चढ़ाकर पेश की गई है। यह उसका दुर्भाग्य था और यह ममता बनर्जी सरकार का भी दुर्भाग्य था कि सजानो घोटना वाला मुहावरा उनसे जुड़ गया। इसे कई बार सही और गलत संदर्भों में उद्धरित किया गया। इसे ‘पार्क स्ट्रीट बलात्कार पीड़िता’ की कहानी के तौर पर परिभाषित किया गया।

वह एंग्लो-इंडियन परिवार से ताल्लुक रखने वाली दो बेटियों की तलाकशुदा मां थी और अपने नाम की निजता को हर हाल में बनाये रखना चाहती थी। मुझे उसका नाम जानने में काफी वक्त लगा। और मुझे उसका नाम इसलिए पता नहीं चला कि मैं जानना चाहती थी। मीडिया को भी यह निजता अपने हित में लगती थी। लेकिन जब एक ऐक्टिविस्ट ने उसे नाम सार्वजनिक करने के लिए प्रेरित किया और बताया कि नाम छिपाने कोई कोई मतलब नहीं। एक बार फिर यह घटना सुर्खियों में आई। हालांकि तब भी कुछ अखबारों को उसका नाम छापना ठीक नहीं लगा। इससे हुआ यह कि कोलकाता में अगर पहले इस नाम की चर्चा नहीं थी तो अब हर कोई उसका नाम फुसफुसा रहा था। इस घटना की जानकारी उसकी दो बेटियों की स्कूल पहुंचने पर वहां उनके साथ भेदभाव किया गया।

कामधुनी बलात्कार कांड के खिलाफ हुए प्रदर्शनों में उसने बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया था। यह बलात्कार कांड और भी वीभत्स था। प्रदर्शन के दौरान वह अपना चेहरा छुपाना चाहती थी लेकिन वह अपना स्कार्फ घर में ही भूल गई थी। किसी ने उसे बताया कि यह ऊपर वाले की मर्जी है। हालांकि बलात्कार से तबाह हुए लोगों के लिए संघर्ष करने वाली बलात्कार पीड़िता की भूमिका में रहना उसके लिए एक रास्ता होगा। लेकिन दिल से वह एक सामान्य लड़की थी। वह अपने मां होने और अल्पसंख्यक समुदाय से ताल्लुक होने को लेकर सचेत थी। ऐसा लगता था कि वह ‘पीड़ित’ की चिप्पी से बाहर निकलकर अपने नाम के साथ रोजमर्रा की एक साधारण जिंदगी जीना चाहती थी।

उसके समुदाय के सदस्य ने ऑस्ट्रेलिया से फेसबुक पर मुझसे संपर्क किया और कहा कि मैं नौकरी तलाश करने में उसकी मदद कर दूं। तभी मुझे ‘पार्क स्ट्रीट बलात्कार पीड़ित’ का नाम पता चला। कुछ दिन बाद मुझे उसका नंबर भी मिल गया। क्योंकि मैंने कहा था कि बिना किसी से बात किये उसके लिए काम तलाशना मुश्किल है। सारी बातें एक अवास्तविक किस्म के वातावरण में हुई। मैंने पूछा, ‘पार्क स्ट्रीट बलात्कार पीड़िता?’ एक आवाज सावधानी से पूछती है, ‘तुम्हारा मतलब एसजे से है?’

वह एक रिसेप्शनिस्ट या टेलीफोन ऑपरेटर बनना चाहती थी, क्योंकि कुछ वक्त पहले वह यह काम कर चुकी थी। जहां उसके साथ सारा घटनाक्रम हुआ था वहीं होटल पार्क स्ट्रीट में रिसेप्शनिस्ट की एक जगह खाली थी। मैंने सोचा कि अगर बात बन जाती है तो यह भी एक पोयटिक जस्टिस होगा। मैंने होटल मैनेजमेंट को जानने वाले एक इवेंट मैनेजर से बात की। तब मुझे बताया गया, ‘आप आगे कुछ मत कीजिए।’

वह कविताएं लिख रही थी और उन्हें फेसबुक पेज पर पोस्ट कर रही थी। तब उसने मेरे ऊपर कुछ भरोसा जाहिर किया और मुझे अपनी दुनिया में झांकने का मौका दिया। मैंने उसका संपर्क एक एनजीओ के मुखिया से करा दिया जिसने मुझे बताया कि उसका जीवन पटरी पर आ गया है और दूसरी महिलाओं की काउंसिलिंग कर रही है। एक बार एनजीओ के मुखिया ने उसे एसजे से पुकारने की बजाय उसका पूरा नाम लिया। मैंने उसे कुछ काव्यपाठों में बुलाने की कोशिश की तो मुझे पता चला कि मेरे कवि मित्रों में कोई उसका नाम नहीं जानता था। वह कभी आ नहीं पाई। एक बार उसका इंटरव्यू हो रहा था, दूसरी बार कोर्ट केस चल रहा था, वह मुद्दा उसका पीछा नहीं छोड़ रहा था।

जब मैंने फेसबुक पर उसकी मौत की खबर पढ़ी तो लगा कि निर्भया फिल्म पर प्रतिबंध के बाद आने वाली कई ख़बरों की तरह यह भी झूठ है। लेकिन तब खबरों की बाढ़-सी आ गई। ‘भारत ने उसका कत्ल कर दिया। हमने उसका कत्ल कर दिया।’ मेरे उस नंबर पर कई फोन आ रहे थे जिसे मैं बहुत कम इस्तेमाल करती हूं। भाग्य बीच में आ गया और ‘पीड़िता’ की चिप्पी के बिना एक सामान्य जीवन के लिए चल रही लड़ाई का अंत हो गया।

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