खूबसूरत नीली साड़ी में अमृता फोटो खिंचवाने से पहले अपने लंबे बाल समेट कर दाएं कंधे पर लेती हैं और अदा से खड़ी हो जाती हैं। फोटो अच्छा आना चाहिए। खुद को व्यवस्थित करने के क्रम में हाथों की चूडिय़ां इधर-उधर सरकती हैं और हल्की खनखनाहट उनकी खूबसूरत मुस्कराहट के साथ घुल-मिल जाती है। उनकी बड़ी बिंदी चमकती है और कान के झुमके हौले से गालों को छू कर, सहला कर अलग हो जाते हैं। फोटो खिंचवाते हुए वह चिंता भी कर रही हैं कि उनके लैपटॉप में कुछ प्रोग्राम इंस्टॉल हो जाएं ताकि अमेरिका में होने वाले स्वास्थ्य सम्मेलन में प्रेजेंटेशन देते वक्त उन्हें कोई परेशानी न आए। यह अमृता अल्पेश सोनी हैं जो एचएलएफपीपीटी (हिंदुस्तान लेटेक्स फैमिली प्लानिंग प्रमोशन ट्रस्ट) के साथ जुड़ी हुई हैं और छत्तीसगढ़ में एडवोकेसी ऑफिसर हैं। यह बताए बिना उनका परिचय अधूरा है कि वह एचआईवी पॉजिटिव हैं।
अमृता के लिए उस 6 मीटर की साड़ी को लपेटना उतना आसान नहीं था जितना सुन कर लगता है। वह बोलती भले ही सहजता से हैं, मगर उनके हाथों की अंगुठियां जिन्हें वह बात करते-करते बेध्यानी में घुमाती रहती हैं से पता चलता है कि पुरानी यादें उन्हें किस तरह परेशान करती हैं। अल्पेश सोनी से अमृता सोनी बनना उनके लिए जरूरी था। अल्पेश की काया में उन्हें छटपटाहट होती थी, मगर कोई नहीं था जो इसे समझ सकता। परिवार वाले भी नहीं। बहुत दिन उहापोह में बीते और अंतत: अमृता सोनी अस्तित्व में आ ही गई। अमृता कहती हैं, 'ऐसा कौन है जो अपनी पहचान नहीं चाहता। लोगों को नाम से पहचान बनानी होती है पर मुझे तो पहले अपनी शारीरिक पहचान बनाने में ही कई साल लग गए। मैं जब छह साल की थी तो कमर में लचक आ गई। घर में खूब डांट पड़ती कि सीधे चलो। मगर शरीर था कि लहरा ही जाता था। कक्षा तीसरी में थी, कुछ समझती नहीं थी। बस याद है तो इतना कि पापा सीधा चलने को लेकर मारते थे। थोड़ी बड़ी हुई तो तय किया गया मुझे दिल्ली भेज दिया जाए। घर से दूर रहूंगी तो शायद लडक़ों के तौर-तरीके सीख पाऊंगी। जब दिल्ली से लौटी तो तय कर लिया कि मुझे अपने 'समुदाय’ में जाना ही होगा। फिर 16 साल की उम्र में सर्जरी करा ली और अमृता बन गई। नाचती थी, गाती थी और जो मिले उसे मुकद्दर समझ कर ले लेती थी। इसी दौरान रायपुर में एक मिठाई की दुकान पर अक्सर जाना होता और वहां के मालिक अग्रवाल भैया से इतनी अच्छी बातचीत होने लगी कि वह कहते, 'तू मेरी छोटी बहन है। आ जाया कर। तेरे आने से दुकान की बरकत रहती है।’ उन्होंने आगे बढऩे में मदद की। मैंने 12वीं की परीक्षा दी और बीए करने के लिए जामिया-मिल्लया, दिल्ली आ गई। मेरे सारे दस्तावेज चूंकि अल्पेश सोनी के नाम से थे सो बीए की अंकसूची भी इसी नाम से मिली। उस पर लिंग भी पुरुष था, पर मन में सुकुन था कि मैं ग्रेजुएट हूं। पिता को जब बताने पहुंची तो उन्होंने सारे सर्टिफिकेट फाड़ दिए। वह इस बात से नाराज थे कि मैं समुदाय के साथ क्यों रहती हूं।’
इन सारे संघर्ष के बीच सन 2013 में उन्हें पता चला कि वह एचआईवी ग्रस्त हो गई हैं। तब उन्हें ऐसे लोगों की मुसीबतों के बारे में पता चला और उन्होंने ऐसे ही लोगों के लिए काम करने के बारे में सोचना शुरू किया। इस बीच उनकी मुलाकात अभिनव आर्या से हुई जो जिन्हें वह अपना गुरु मानती हैं। वह खुद एक ट्रांसजेंडर हैं और एक नामी कंपनी में काम करते हैं। उन्होंने अमृता को एचएलएफपीपीटी के बारे में बताया और वह इससे जुड़ गईं। छत्तीसगढ़ में अशिक्षा थी और सुदूर अंचलों में रहने वाले एचआईवी नाम से ही अनजान थे। ‘विहान-सूरज की नई किरण’ नाम से शुरू किए गए इस कार्यक्रम में अमृता ने ट्रक ड्राइवरों, उनके समुदाय की अन्य एचआईवी पीडि़त सदस्य, ग्रामीणों को जोड़ा और इस बारे में जागरूकता लाने का काम करने लगीं। अमृता ने ऐसे लोगों को खोजा जो पैसे की कमी की वजह से इलाज नहीं कराते थे, जिन्हें पता नहीं था कि इलाज कहां कराना और कैसे कराना है। वह उन लोगों को छत्तीसगढ़ के एंटी रीट्रोवायरल थेरेपी सेंटर (एआरटी) पर ले कर गईं और उनके इलाज में मदद कराई।
अमृता मानती हैं कि चूंकि वह खुद एचआईवी ग्रस्त थीं इसलिए लोगों से अलग तरह का संबंध जुड़ा और लोग आसानी से उनके करीब आ कर अपनी परेशानी बताने लगे। उन्हें एआरटी केंद्रों तक पहुंचने के लिए मुफ्त बस पास बनवाने के लिए उन्होंने छत्तीसगढ़ सरकार से मदद मांगी। जिन केंद्रों तक जाने के लिए सिर्फ निजी बस ऑपरेटर थे उनसे मुफ्त पास के लिए उन्होंने लंबी लड़ाई लड़ी। वह सचिव स्तर तक गईं ताकि एआरटी केंद्र तक जाने के लिए मरीजों को कोई परेशानी न आए। वह पहली ट्रांसजेंडर हैं जो स्वास्थ्य शिविरों में नोडल ऑफिसर रहीं हैं। अमृता कहती हैं, 'मैं चाहती हूं हमें अलग मत समझिए। हम आप लोगों जैसे ही हैं। कई लोग खुद में घुट रहे हैं क्योंकि दो वक्त का खाना, दो जोड़ी कपड़े और छत के अभाव में ऐसे लोग कहां जाएं जो पुरुष नहीं महिला हो कर जीना चाहते हैं। हमें समाज से बस प्यार चाहिए और कुछ नहीं।’
 
                                                 
                             
                                                 
                                                 
                                                 
			 
                     
                    