उत्तर प्रदेश में एक बार फिर भीड़ ने पुलिसवाले की जान ले ली। बुलंदशहर में भीड़ की हिंसा में एक पुलिसकर्मी की मौत को लोग भूले भी नहीं थे कि गाजीपुर के नौनेरा क्षेत्र में शनिवार को हुई पत्थरबाजी की घटना में पुलिस कॉन्स्टेबल सुरेश वत्स ने अपनी जिंदगी गवां दी। महीने भर के भीतर दो अलग-अलग घटनाओं में भीड़ का हिंसक चेहरा सामने आना फिक्र की बात तो है ही साथ ही दोनों ही घटनाओं में भीड़ के निशाने पर पुलिस का होना कानून व्यवस्था के लिहाज से चिंता का विषय माना जा रहा है।
प्रदेश में योगी सरकार के आते ही कानून व्यवस्था को लेकर कई बड़े दावे किए गए थे। अपराधिक तत्वों पर डर बैठाने के लिए पुलिस ने भी लगातार कई एनकाउंटर किए। लेकिन मौजूदा घटनाएं कुछ उलट तस्वीरें दिखा रही हैं। इसे लेकर उत्तर प्रदेश के पूर्व पुलिस महानिदेशक (डीजीपी) प्रकाश सिंह ने कई वजहें गिनाई हैं। पूर्व डीजीपी सिंह ने आउटलुक को बताया कि समाज में पुलिस के प्रति आदर या भय खत्म होना अथवा कम होना किसी राज्य के लिए अच्छे संकेत नहीं है। जिस तरह यूपी में पुलिस पर हमले हो रहे हैं और कश्मीर में फौज पर हमले हो रहे हैं। यह दरअसल, सरकार पर हमले की तरह है। इस तरह के हमले किसी भी सरकार की कमजोरी को दिखाता है।
उन्मादी भीड़, बेबस पुलिस?
आमतौर पर पुलिस व्यवस्था को सरकार की सत्ता की शक्ति के तौर पर देखा जाता है। मजबूत पुलिस तंत्र को मजबूत शासन का आधार समझा जाता है। ऐसे में इसके कमजोर होने पर सरकार पर सवाल उठने शूरू हो जाते हैं। हाल फिलहाल में उत्तर प्रदेश में कभी गोकशी के नाम पर गुस्साई भीड़, तो कभी अपनी मांगो को लेकर नाराज भीड़ पुलिस पर पथराव करने और गोली चलाने से नहीं चूक रही है। इन घटनाओं को लेकर अक्सर बहस होती है जिसमें एक पक्ष समाज को तो दूसरा पक्ष पुलिस को दोषी मानकर चलता है। वहीं कुछ लोग इसे राजनीति से भी जोड़कर देखते हैं। पूर्व डीजीपी सिंह का कहना है कि ऐसी घटनाओं के लिए किसी भी एक पक्ष को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता। जनता के साथ-साथ पुलिस की ओर से भी कई तरह की चूक हो जाती है। इस ओर इशारा करते हुए उन्होंने कहा, “इंस्पेक्टर से कैसे कोई उनका पिस्तौल छिन सकता है? इसका मतलब कहीं ना कहीं हमारी ओर से भी असावधानी हो रही है। इन घटनाओं के अलावा अन्य मामलों को देखें तो जनता के भीतर पुलिस के प्रति असंतोष जैसी भावना भी देखी गई है।”
अत्याधुनिक उपकरणों की कमी, सूचना तंत्र फेल
उत्तर प्रदेश ही नहीं देश के अन्य राज्यों में भी पुलिस भीड़ को काबू करने में अक्सर नाकाम रहती है। पिछले साल हरियाणा के पंचकूला में डेरा समर्थक पुलिस को दौड़ाते नजर आए। पिछले महीने उत्तर प्रदेश के ही शामली में पुलिस के सामने लोगों की भीड़ ने पीसीआर वैन से खींचकर राजेंद्र कश्यप नाम के युवक को पीट-पीटकर मौत के घाट उतार दिया और पुलिस मूकदर्शक बनी रही। ऐसे में सवाल उठता है कि क्या पुलिस को भीड़ से निबटने का शऊर नहीं है? इस पर सिंह कहते हैं कि अभी भी दंगा निरोधक उपकरणों की भारी कमी है। इसे लेकर प्रशिक्षण का अभाव है। साथ ही किसी घटना की संवेदनशीलता को भांपने को लेकर सूचना तंत्र भी कमजोर नजर आ रहा है। जनता की अराजकता और पुलिस की कमजोरी से ऐसा वाकया हो रहा है। जनता की आक्रामकता और पुलिस की अपूर्ण तैयारी इन दोनों वजहों से ऐसे मामले घटित हो रहे हैं।
खटाई में पुलिस रिफॉर्म
विभिन्न सरकारों की ओर से समय-समय पर नियुक्त आयोगों की सिफारिशों में औपनिवेशिक काल के पुलिस बल को आधुनिक बनाने की बात बार-बार कही गई है, लेकिन वे ठंडे बस्ते में बंद होती रहीं। दुनिया में हिंदुस्तान उन देशों में से है जहां आबादी के मुकाबले पुलिस का अनुपात सबसे कम है। यहां 1,000 लोगों पर एक पुलिसकर्मी है, जबकि वैश्विक औसत है, 1000 लोगों पर दो पुलिसकर्मी। इसके अलावा पुलिसकर्मियों को पर्याप्त वेतन, छुट्टियां भी नहीं मिल रही है। जानकार प्रशिक्षण, उपकरण या प्रेरणा की बेहद जरूरत बताते हैं। प्रकाश सिंह के मुताबिक, पुलिस रिफॉर्म की गति बहुत धीमी है या फिर यह भी कह सकते हैं कि ये बात खटाई में चली गई है। वर्तमान में पुलिस, अभियोजन, न्यायपालिका सबमें संपूर्णता के साथ सुधार की अनिवार्य आवश्यकता है।