राज्य और पुलिस की इस तरह की हरकतें सीधे-सीधे नागरिकों की निजता पर हमला है। ये हमले लगातार बढ़ रहे हैं। यह हम सबके लिए गंभीर चिंता का विषय है। आज के दौर में जब नौजवान अपनी इच्छाओं के प्रति जागरूक हो रहे हैं, प्रेम और संबंधों में नए प्रयोग में जाने को आतुर हैं, तब राज्य और पुलिस उन्हें अपराधी कैसे बना सकती है। आज का नौजवान बहुत मुखर है और उसे इस तरह के घिसे-पिटे कानून के अंदर अपराधी नहीं बनाया जा सकता। यह उनका मौलिक अधिकार है, जिससे उन्हें वंचित करने के लिए हर राज्य में नैतिक पुलिसिंग का डंडा चलाया जाता है। इस तरह राज्य युवाओं में डर का माहौल पैदा करना चाहता है जो बेहद खतरनाक है।
ऐसा माहौल हर तरफ बनाया जा रहा है। कई बार मौजूदा कानून की आड़ में तो कई बार कानून के अभाव में। कानून का अभाव रखकर जिस तरह कार्यकारी आदेश से अरबों रुपये खर्च किए जा रहे हैं, वह बड़ी चुनौती है। मुझे तो कई बार लगता है कि आज पूरा लोकतंत्र दांव पर लगा है। आपातकाल में नागरिकों के निजता के अधिकारों का हनन हुआ था। 1975-76 में आपातकाल लगाते वक्त राज्य ने कहा था कि नागरिकों के मौलिक अधिकारों का कोई मतलब नहीं है। इकलौता यही दौर था जब नागरिकों की निजता पर सवाल उठा था। नागरिकों की निजता को सर्वोच्च मानते हुए सुप्रीम कोर्ट ने इसकी रक्षा की और आज, सन 2015 में केंद्र सरकार एक बार फिर नागरिकों को निजता का अधिकार, मौलिक अधिकार पर सवाल उठा रही है। इसे हम देश की सर्वोच्च अदालत में देख रहे हैं कि किस तरह आधार कार्ड और यूआईडीए के मामले पर चल रही सुनावई में सरकारी पक्ष निजता के अधिकार के विरोध में बयान दे रहा है। कितनी विचित्र बात है कि 2015 में भारत में निजता के अधिकार को छीनने की कवायद कितने खुलेआम चल रही है। मुझे लगता है कि आज यह सवाल हम सबके दिमाग में उठना चाहिए कि नागरिक के शरीर का ब्यौरा, उसके स्वास्थ्य का ब्यौरा, उसकी जिंदगी का हर ब्यौरा क्योंकर राज्य के पास होना चाहिए। क्यों हमें राज्य की सुविधा हासिल करने के लिए एक नंबर का मोहताज होना चाहिए। आखिर इतने बड़े पैमाने पर नागरिकों की निजता पर हमला क्यों बोला जा रहा है।
वह भी तब जब देश की सर्वोच्च अदालत ने साफ शब्दों में कहा कि आधार न होने की वजह से किसी को भी किसी भी प्रकार की सुधिवाओं से वंचित नहीं किया जा सकता। आधार संबंधी कोई बिल देश की संसद ने नहीं पारित किया है। संसद की स्थायी समिति की रिपोर्ट में आधार को लागू करने के तमाम तर्कों को खारिज करते हुए कहा कि इसे अभी नहीं लागू नहीं किया जाना चाहिए। संसदीय प्रक्रिया की इतनी बड़ी अनदेखी की जा रही है और देश की संसद खामोश है। आखिर क्यों एक एग्जीक्यूटिव आदेश को कानून से भी ऊपर का दर्जा दे दिया गया है और किसी को कोई फर्क नहीं पड़ा। इस पर जब हम सवाल उठाते हैं तो ऐसा लगता है कि राष्ट्रहित के खिलाफ बात हो रही है। कानून नहीं है, फिर भी नागरिकों में सरकार ने यह डर पैदा कर दिया है कि अगर उनके पास आधार नहीं है तो वे रसोई गैस सब्सिडी से वंचित हो जाएंगे, शादी का रजिस्ट्रेशन नहीं होगा, मतदाता पहचान पत्र को आधार नंबर से जोडऩा जरूरी है, बैंक खाते के लिए आधार जरूरी है यानी जितने भी जरूरी काम या योजनाएं हैं, सबके लिए आधार को अनिवार्य बनाया जा रहा है। जबकि केंद्र ऐसा नहीं कर सकता। लेकिन देखिए, ऐसा हो रहा है। इसकी वजहों की तलाश और उन वजहों को समझना बेहद जरूरी है। क्योंकि ऐसा नहीं कि मामला सिर्फ आधार का है, उसी समय में डीएनए प्रोफाइलिंग बिल लाया जा रहा है, आतंकवाद निरोधक संबंधी कानूनों की भीड़ जमा हो रही है, यानी चारों तरफ से नागरिक और उसकी निजता पर, बुनियादी अधिकारों पर सवाल खड़े हो रहे हैं।
मेरा यह स्पष्ट मानना है कि सरकार जानबूझकर आधार संबंधी कानून को नहीं लेकर आई। एक एग्जीक्यूटिव आदेश से ही सारा मामला चलाया जा रहा है। दरअसल, आधार के मामले में सरकार खुद को एक कानून की सीमा में बांधने की इच्छुक नहीं है। वह अपने विकल्प खुले रखने चाहती है। धीरे-धीरे तमाम चीजें इससे जोड़ी जा रही हैं। मतदाता कार्ड को इससे जोड़ा जा रहा है। इस तरह लगातार इसे देश के नागरिकों पर अनिवार्य कार्ड के रूप में थोपा जा रहा है। सुप्रीम कोर्ट ने अभी एक बार फिर जिस तरह साफ किया कि किसी भी सूरत में आधार को अनिवार्य नहीं बनाया जा सकता, उससे ऐसी उम्मीद की जानी चाहिए कि एक के बाद एक योजनाओं को आधार से लिंक करने का जो सिलसिला बेधड़क चल रहा था और जो सुप्रीम कोर्ट के आदेश की अवमानना थी, उस पर रोक लगेगी।
मामला चूंकि अभी अदालत में है इसलिए ज्यादा कुछ नहीं कहा जा सकता पर यह तय है कि निजता की बहस को शुरू करने के राजनीतिक मायने हैं। मुझे इस बात पर भी बहुत आक्रोश है कि आखिर देश की संसद आधार पर चल रहे सारे ड्रामे पर इतनी खामोश क्यों है। क्यों सरकार इतनी आतुर है आधार को सर्वव्यापी करने में। क्यों सरकार नागरिकों की निजता पर कानूनी बहस करना चाहती है।
आधार पर लागू एग्जीक्यूटिव आदेश बाकी कानूनों पर हावी हो रहा है तो दूसरी तरफ केंद्र सरकार डीएनए प्रोफाइलिंग कानून लाने जा रही है। यह हमारे शरीर की निजता को हमसे छीनने की तैयारी हो रही है। एक भ्रम फैलाया जा रहा है कि यह सिर्फ अपराधियों का डेटा बेस बनाया जा रहा है। जबकि कानून का मसौदा देखकर साफ होता है कि यह डीएनए का राष्ट्रीय डेटा बैंक बनाने की बड़ी योजना का हिस्सा है। इसके तहत एक बार डेटा आने के बाद हमेशा के लिए सुरक्षा एजेंसियों के पास सुरक्षित रहेगा।
दरअसल, ये सारी कवायद पॉपुलेशन जेनेटिक और सर्विलांस का हिस्सा है। नागरिकों पर पैनी निगरानी रखने, उनका सारा ब्यौरा अपने पास रखने और जाति तथा समुदाय के आधार पर इस जानकारी को बांटने की खतरनाक कोशिश की जा रही है। जाति और समुदाय का वंशानुगत डीएनए प्रोफाइल है। और फिर इसे व्यावसायिक हितों के लिए कंपनियों को सौंपने की भी योजना है। इसे ही भांपते हुए सुप्रीम कोर्ट ने आधार मामले में स्पष्ट कहा कि इस डेटा का कहीं कोई और इस्तेमाल नहीं किया जाना चाहिए। आपराधिक मामलों में इस डेटा का इस्तेमाल करने की छूट जरूर दी है लेकिन उसमें भी साफ कहा है कि ऐसा सुप्रीम कोर्ट के निर्देश के बाद ही किया जा सकता है।
चाहे वह अभिव्यक्ति की आजादी का सवाल हो या फिर निजता का, इसमें सेंध लगनी शुरू हो गई है। इसके लिए कानून का सहारा जिस तरह सरकार ले रही है वह बहुत खतरनाक संकेत है। दवा कंपनियों, वैज्ञानिकों और खुफिया एजेंसियों को फायदा पहुंचाने के लिए कानून के जरिये रास्ता निकाला जा रहा है। आनुवंशिकता को आधार बनाकर यह तय करने की तैयारी हो रही है कि अपराधी मानसिकता रक्त या डीएनए में होती है। बीमारियों को भी इसी तरह से कयास पर टिकाया जा रहा है।
(लेखिका अंतरराष्ट्रीय कानूनविद हैं।)
(भाषा सिंह से बातचीत पर आधारित)