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आजाद हिंदुस्तान में महिलाओं की कानूनी बेड़ियां | इंदिरा जयसिंह

अगर आजादी का मतलब विदेशी हुकूमत से आजादी है तो वह यकीनन हमने हासिल कर ली। लेकिन सवाल यह है कि क्या महिलाओं को परंपराओं-मान्यताओं की जकड़न से आजादी मिली ? या पुराने पड़ चुके कानूनों ने उन्हें दूसरे तरह की जकड़न में बांध दिया है, आजाद हिंदुस्तान के कानूनों की बेड़ियां ?
आजाद हिंदुस्तान में महिलाओं की कानूनी बेड़ियां | इंदिरा जयसिंह

बदले गए शुरुआती कानूनों में हिंदू पर्सनल लॉ था जिसमें हिंदू विवाह कानून 1955, हिंदू उत्तराधिकार कानून 1955 और हिंदू गोद लेना एवं रख-रखाव कानून (एचएएमए) 1956 शामिल थे। ये सब कानून मिलाकर पारिवारिक कानूनों का खाका तैयार करते हैं।

 

इनमें से कई में भेदभाव कारी प्रावधान थे जिनमें से कुछ तो आज भी कानून के भीतर मौजूद हैं। एचएएमए का अनुच्छेद 6 अब भी कहता है कि पिता ही किसी बच्चे का स्वाभाविक अभिभावक है और मां का स्थान उसके बाद आता है। हैरानी की बात है कि संसद ने आज तक इस कानून को संशोधित नहीं किया है। यह अनुच्छेद वास्तविक तौर पर महिलाओं को बच्चों का संरक्षण खो देने के डर से हमेशा घृणित अधीनता में बनाए रखता है क्योंकि वे विवाह टूटने की स्थिति में बच्चों का साथ खो देने की आशंका से आतंकित रहती हैं।

 

मुझे ऐसी कई महिलाओं के बारे में जानकारी है जो केवल बच्चों का संरक्षण खो देने के डर से हिंसा से ग्रस्त वैवाहिक बंधन में बनी रहीं, इस वजह से नहीं कि उन्हें अपने वैवाहिक रिश्ते के बचने या अच्छा चलने की कोई उम्मीद थी। सर्वोच्च न्यायालय ने यह कहते हुए इस कानून को हटाने के पक्ष में राय दी थी कि यह महिलाओं के खिलाफ  भेदभाव करता है लेकिन गीता-हरिहरन मामले से साफ  है कि ऐसा हुआ नहीं। आजाद भारत के कानूनों में असमानता का इससे मुखर एलान और देखने को नहीं मिलता। हाल ही में महिलाओं की स्थिति के बारे में एक उच्चाधिकार समिति ने इस कानून को हटाने की सिफारिश की थी। अब देखना यह है कि ऐसी कितनी उच्चाधिकार समितियों की सिफारिशों के बाद आखिरकार यह कानून देश के कानूनों की किताबों से बाहर का रास्ता देखेगा। इन समितियों के सुझाव दर सुझाव लागू होंगे या नहीं और होंगे तो कब।

 

इसी तरह, 2005 तक बेटियां पुश्तैनी संपत्त‌ि में बराबर के हिस्से की हकदार नहीं थीं जो एक तरह से पुरुषों की ज्येष्ठता के सामाजिक नियम को साबित करता था। इस बात की कोई तय परिभाषा नहीं है कि पुश्तैनी संपत्त‌ि में क्या आता है और यह देखते हुए कि अब हम ज्यादातर एकल परिवारों में रहते हैं, यह कानून बहुसंख्यक परिवारों पर लागू नहीं होता, खास तौर पर उन परिवारों पर जिनकी संपत्त‌ि खुद अर्जित की हुई है और पुश्तैनी प्रकृति की नहीं है। उन परिवारों के संदर्भ में भी जिनके पास पुश्तैनी संपत्त‌ि है, इस कानून का बमुश्किल ही कभी इस्तेमाल होता है क्योंकि बेटियां अपने भाइयों के प्रति प्यार और लगाव की वजह से राजी-खुशी अपने इस हक को त्यागने को तैयार रहती हैं। चूंकि उन्हें यह डर भी रहता है कि अगर उन्होंने ऐसा नहीं किया तो विवाह के बाद उनका अपने पैदाइशी परिवार से जितना भी सीमित संपर्क रहता है, वह भी खत्म हो जाएगा। हाल में तो माता-पिता अपनी वसीयत लिखने में ज्यादा खुश नजर आते हैं जिसमें वे बेटी को बाहर रखकर अपनी सारी संपत्त‌ि बेटे के नाम कर देते हैं। क्या ऐसा कोई कानून नहीं है जिसमें किसी व्यक्ति को अपनी संपत्त‌ि से बेटी या पत्नी को बाहर रखने वाली वसीयत करने से रोका जा सके? एक विधवा को अपने गुजरे पति से मिलने वाले हर हक से वंचित रखा जा सकता है, जिसके परिणामस्वरूप वह बेहद अभाव का जीवन गुजारती है या लाचारी में वृंदावन या किसी अन्य राज्य में किसी विधवा आश्रम में अपनी जिंदगी बिता देती है।

 

बाकी पर्सनल लॉ नहीं छेड़े गए। शाहबानो मामले के बाद मुसलिम पर्सनल लॉ को संशोधित करने की एक कोशिश को भी बाद में पलट दिया गया जिसकी परिणति और भी दमनकारी और भेदभावपूर्ण हो गई और महिलाओं को उनकी बाकी जिंदगी के लिए गुजारे भत्ते के हक से वंचित कर दिया गया। अगर दानियाल-लतीफी मामले में भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने दखल नहीं दिया होता तो 'मुसलिम महिला तलाक में अधिकारों का संरक्षण’ कानून के पारित होने के बाद तो तलाकशुदा मुसलिम महिलाओं को और भी बेबसी की जिंदगी गुजारने को मजबूर होना पड़ता जिसमें इदात की अवधि के लिए महज तीन महीने के गुजारे भत्ते का प्रावधान किया गया था। इस कानून ने मुसलिम महिलाओं के अधिकारों का तो जमकर हनन किया ही, हिंदू दक्षिणपंथियों को इस राजनीतिक विरोध का हथियार भी थमा दिया कि यह कानून मुसलिमों का तुष्टीकरण करने वाले कानूनों में से ही एक है।

 

पारसियों में समुदाय से बाहर विवाह करने वाली किसी महिला को अग्नि के मंदिर में अपने पिता के अंतिम संस्कार में शामिल होने की इजाजत नहीं दी जाती क्योंकि उसे पारसी नहीं माना जाता। महिलाओं के खिलाफ  भेदभाव इतना तगड़ा है कि उसे बिलकुल परित्यक्त के तौर पर माना जाता है यानी जब महिलाओं की बात आती है तो रक्त की कथित शुद्धता की धारणा इनसान के स्वाभाविक प्यार एवं लगाव पर भारी पड़ जाती है।

 

तलाक की अर्जी देना महिलाओं को खाली हाथ ही छोड़ देता है क्योंकि हमारे पास ऐसा कोई कानून नहीं है जो किसी वैवाहिक बंधन के टूटने की स्थिति में वैवाहिक या संयुक्त संपत्त‌ि में महिला के अधिकार को सुरक्षा प्रदान करता हो। इसी वजह से महिलाएं यह महसूस करती हैं कि उनके लिए किसी हिंसक वैवाहिक बंधन से बाहर जाने की कोशिश करने के बजाय उसमें बने रहने की कोशिश करना ही बेहतर है। इसे क्रूरता ही कहा जाएगा कि किसी महिला को खराब वैवाहिक संबंध में बने रहने के लिए मजबूर किया जाए क्योंकि वह अपने भविष्य को लेकर आशंकित है। इस अन्याय को तुरंत ही सुधारा जाना चाहिए। हिंदू महिलाओं को किसी विवाह के टूटने की स्थिति में संपत्त‌ि में उनका वाजिब हक दिलाने के लिए एक कानून लाने की कोशिश नाकाम रही और उसे वापस लेना पड़ा। ऐसा लगता है कि संपत्त‌ि का अधिकार पुरुष विशेषाधिकार का आखिरी परकोटा या मोर्चा है।

 

काम की जगहों पर भी भेदभाव की कहानी बहुत प्रत्यक्ष है। समान वेतन कानून 1976 में समान काम के लिए समान वेतन की गारंटी दी गई है। लेकिन व्यवहार में किसी महिला के काम को किसी पुरुष के काम की तुलना में कम आंका जाता है। सुप्रीम कोर्ट ने एयरहोस्टेस की बराबरी से जुड़े नर्दिश मिर्जा मामले में इस भेदभाव को खत्म करने का एक सुनहरा मौका गंवा दिया और यह कहा कि महिलाएं निचले ग्रेड में भर्ती पाती हैं और इसलिए उनके काम की तुलना पुरुष के काम से नहीं की जा सकती। यही वह मौका था, जब कोर्ट यह कह सकती थी कि महिलाओं एवं पुरुषों के काम की एक समान अहमियत है और वह रोजगार प्रदाता कंपनी एयर इंडिया को उनके साथ बराबरी का सुलूक करने का निर्देश दे सकती थी।

 

क्रेच जैसी सुविधाएं भारत के सर्वोच्च न्यायालय जैसे प्रतिष्ठानों तक में उपलब्‍ध नहीं हैं जिसके कारण महिलाओं को अपने बच्चों की देखरेख करने के लिए अपने कॅरिअर के शुरुआती सालों में काम छोड़ना पड़ जाता है।

 

यौन उत्पीड़न महिलाओं के लिए काम छोड़ने की प्रमुख वजहों में से एक बना हुआ है। यह शर्मनाक है कि कानून अब तक इसे रोक पाने में कामयाब नहीं हो पाया है। यौन उत्पीड़न की शिकायत करने वाली महिलाओं को अब भी अविश्वास से देखा जाता है और उन्हें उन विलेन के तौर पर माना जाता है जो छोटी-मोटी वजहों से झूठी शिकायतें कर देती हैं। जब किसी कानून को लागू करने की मंशा ही न हो तो उस व्यक्ति को झूठा साबित करने के लिए कोई भी वजह ढूंढ़ी जा सकती है जो कानून का इस्तेमाल करना चाहता है। काम की जगहों पर अब भी मूलत: आदमियों की ही दुनिया है, जहां पुरुषवादी संकीर्णता उसके कॅरिअर की ऊंचाई की तरह चढ़ती है। हम देखते हैं कि कोई कथित अपराधी जितनी ही ऊंची हैसियत अर्जित करता है, उतना ही उसके चारों और न केवल पुराने लड़कों का काबिल नेटवर्क होता है बल्कि वह सत्ता का ढांचा भी होता है जो यह सुनिश्चित करता है कि उसके विशेषाधिकार एवं सर्वोच्चता को चोट पहुंचाने वाला कोई काम न हो।

 

 ज्यादा महत्वपूर्ण बात यह है कि हमारे पास महिलाओं की बराबरी के लिए कोई वांछनीय कानून नहीं है। इसकी तत्काल जरूरत है क्योंकि संवैधानिक गारंटियां आवश्यक समाधान सुझाने के लिए पर्याप्त नहीं हैं। वर्मा आयोग ने इस तरह के कानून का सुझाव दिया था लेकिन केंद्र ने ऐसा कानून तैयार करने की दिशा में कोई कदम नहीं उठाया है। परिणामस्वरूप निजी क्षेत्र इस बात का दावा करते रह सकता है कि वह किसी संवैधानिक गारंटी से बाध्य नहीं है और ये गारंटियां केवल सार्वजनिक क्षेत्र पर ही लागू होती हैं। इस तरह लाखों कामगार महिलाएं भेदभावपूर्ण एवं हिंसक माहौल में असुरक्षित छोड़ दी जाती हैं।

 

दिल्ली में आप सरकार ने इस तरह के कानून का वादा किया है और अब हमें यह देखने के लिए इंतजार करना होगा कि यह कानून कब पारित होगा और शायद यह भविष्य के लिए उक्वमीद की किरण जगाएगा।

(लेखिका भारत की पहली महिला एडिशनल सॉलीसिटर जनरल रह चुकी हैं) 

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