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मोकामा टाल का बिगड़ रहा ‘सुर-ताल’

- उमेश कुमार राय बिहार के मोकामा टाल बाईपास की सड़क से आप गुजरेंगे, तो इसकी दोनों तरफ आपकी नजर जहां तक...
मोकामा टाल का बिगड़ रहा ‘सुर-ताल’

- उमेश कुमार राय

बिहार के मोकामा टाल बाईपास की सड़क से आप गुजरेंगे, तो इसकी दोनों तरफ आपकी नजर जहां तक जाएगी, खेतों में हरियाली की चादर ही नजर आएगी। इस हरियाली के बीच-बीच में मटर व सरसों के फूल देख लगता है कि चादर पर नक्काशी की गई हो।

गंगा नदी के दक्षिण की तरफ फैली इस हरियाली को देखकर कोई भी यही कहेगा कि बिहार के कृषि उत्पादन में इस क्षेत्र का अहम किरदार है। ऐसा है भी। मोकामा टाल क्षेत्र जिसे ताल क्षेत्र भी कहा जाता है, 1,06,200 हेक्टेयर में फैला हुआ है। इसमें बख्तियारपुर, बाढ़, फतुहा, मोकामा, मोर, बड़हिया और सिंघौल टाल क्षेत्र आते हैं। करीब 110 किलोमीटर लंबाई और 6 से 15 किलोमीटर की चौड़ाई में पसरा यह क्षेत्र ‘दाल का कटोरा’ तखल्लुस से भी मशहूर है।

इस भूखंड में केवल मिट्टी पायी जाती है, जो दाल की पैदावार के लिए सबसे उपयुक्त है। इसलिए यहां भारी मात्रा में दाल खासकर मसूर दाल का उत्पादन होता है। मसूर के अलावा किसान चना, मटर, राई की भी खेती करते हैं। लेकिन, कुछ सालों से यहां के हालात बदल रहे हैं और इस बदलते हालात ने टाल क्षेत्र के सुर-ताल को बिगाड़ दिया है।

पहले बारिश के सीजन में जुलाई-अगस्त से सितंबर तक यह टाल क्षेत्र दरिया में तब्दील हो जाता था और सितंबर के आखिर तक खुद-ब-खुद पानी निकल भी जाता था। इससे किसान समय पर दलहन की फसलें बो दिया करते थे और मार्च तक फसल काटकर निश्चिंत हो जाते थे। अब ऐसा नहीं है।

मोकामा टाल क्षेत्र में खेती करने वाले किसान रामनारायण सिंह कहते हैं, ‘यहां के 70 फीसदी किसान मसूर की खेती करते हैं। मसूर की बुआई के लिए जरूरी होता है कि सितंबर के आखिर तक खेतों से पानी पूरी तरह उतर जाए। लेकिन, कुछ सालों से पानी के निकलने में देरी हो रही है। इससे बुआई समय पर नहीं हो पाती है, जिस कारण उत्पादन भी बुरी तरह प्रभावित होता है।’

बादपुर के किसान सुनील कुमार बताते हैं, ‘पिछले एक दशक से ऐसा देखने को मिल रहा है। कई बार तो अक्टूबर तक पानी ठहरा रह जाता है, जबकि अक्टूबर तक मसूर की बुआई खत्म हो जानी चाहिए।’

पानी के अधिक दिनों तक ठहराव की वजह गंगा और टाल क्षेत्र से बहने वाली हरोहर नदी की तलहटी में गाद का जमना है। नदियों पर लंबे समय से काम करने वाले डॉ दिनेश मिश्र इसकी तस्दीक करते हुए कहते हैं, ‘गंगा नदी में गाद मोकामा टाल क्षेत्र के लिए सचमुच बड़ी समस्या है। इसका स्थायी समाधान निकाला जाना चाहिए।’

उल्लेखनीय है कि पूरे टाल क्षेत्र में मोरहर, लोकायन, पंचाने, सेइवा, कुम्हरी समेत एक दर्जन से अधिक छोटी नदियां बहती हैं। इन नदियों का उद्गमस्थल बिहार का दक्षिणी पठारी क्षेत्र व झारखंड है। इन नदियों की लंबाई करीब 200 किलोमीटर है। नदियों से 100 से अधिक पईन जुड़े हुए हैं, जिनसे होकर टाल क्षेत्र के खेतों में पानी पहुंचता है। ये नदियां और पईन आपस में मिलती हुई त्रिमोहान के पास एक धारा बन जाती है, जिसे हरोहर नदी कहा जाता है। हरोहर नदी लखीसराय में पहुंचकर किउल नदी से मिलती है। यहां से इसका नाम किल्ली हो जाता है। यह आगे चलकर गौरीशंकर धाम में गंगा में समा जाती है।

बारिश के दिनों में इन नदियों से होकर पानी टाल क्षेत्र के खेतों में अपना ठिकाना बनाता है। सितंबर में गंगा नदी का जलस्तर जब कम होने लगता है, तो इन नदियों व पईन के रास्ते पानी हरोहर नदी में पहुंचता है और हरोहर नदी से होकर पानी गंगा में गिरता है। हरोहर और गंगा नदी में गाद जम जाने के कारण इनकी जल संचयन क्षमता घट गई है। यही वजह है कि टाल क्षेत्र में पानी निर्धारित अवधि से अधिक समय तक जमा रह जाता है।

टाल विकास समिति के संयोजक आनंद मुरारी इस संबंध में कहते हैं, ‘नदियों के साथ पईन की लंबाई को जोड़ दें, तो करीब 500 किलोमीटर में ये नसों की तरह पूरे टाल क्षेत्र में फैले हुए हैं। पानी की निकासी का एक मात्र जरिया हरोहर नदी है। इस नदी में गाद जमा हुआ है। हरोहर नदी से पानी किसी तरह निकल भी जाये, तो वह गंगा में नहीं जा पाता क्योंकि गंगा में भी गाद की मोटी चादर बैठ गयी है।‘ स्थानीय किसानों के अनुसार, पिछले 25-30 सालों से हरोहर नदी में ड्रेजिंग नहीं हुई है।

आनंद मुरारी बताते हैं, ‘पहले 15 से 20 दिनों में टाल क्षेत्र से पानी निकल जाया करता था, लेकिन अब एक महीना से भी अधिक समय लग जाता है। इससे मसूर की बुआई 15 से 30 दिन देरी से होती है।’

मोकामा टाल क्षेत्र की बनावट ऐसी है कि कम बारिश हो, तो उल्टी तरफ से यानी गंगा से हरोहर नदी के रास्ते टाल क्षेत्र में पानी आ जाता है, लेकिन गाद के कारण ऐसा नहीं हो पा रहा है। इससे यहां के किसानों को यदा-कदा सूखे का सामना भी करना पड़ता है।

गंगा में गाद जमने की मूल वजह फरक्का बराज को माना जा रहा है। बिहार के सीएम नीतीश कुमार ने कई मौकों पर खुद भी यह बात कही है कि फरक्का बराज के कारण गंगा में गाद जम रहा है जिससे बिहार से पानी की निकासी में मुश्किल आती है और राज्य को नुकसान होता है। फरक्का बराज ही मोकामा टाल क्षेत्र की कृषि उत्पादकता में भी बराज बन रहा है।

आनंद मुरारी ने बताया कि कभी सूखा तो कभी ज्यादा दिनों तक टाल क्षेत्र में जलजमाव रहने से दाल के उत्पादन में 25 से 30 प्रतिशत तक की गिरावट आ गयी है।

जलजमाव और सूखाड़ के अलावा एक और बड़ी समस्या यहां के किसानों के माथे पर हर साल शिकन ला देती है। वह है दाल की फरोख्त के लिए मार्केट का न होना। मोकामा टाल क्षेत्र में ऐसे किसानों की संख्या सैकड़ों में है जो अच्छी कीमत नहीं मिलने के कारण पिछले साल की दाल अब तक रखे हुए हैं।

सुनील कुमार अपने दालान में रखी मसूर दाल की दो दर्जन से अधिक बोरियां दिखाते हुए कहते हैं, ‘सरकार ने मसूर दाल का न्यूनतम समर्थन मूल्य 4250 रुपये प्रति क्विंटल तय किया है, लेकिन व्यापारी 3200 से 3500 रुपये से ज्यादा देने को तैयार नहीं । ऐसे में हम करें, तो क्या करें!’ 

मोकामा अंचल के चिंतामणिचक के किसान भवेश कुमार का कहना है कि एक क्विंटल मसूर के उत्पादन में 4500 से 5 हजार रुपये खर्च हो जाते हैं। सरकार उत्पादन खर्च से भी कम न्यूनतम समर्थन मूल्य तय करती है,  इसके बावजूद व्यापारी उचित दाम नहीं देते हैं। उन्होंने कहा, ‘औने-पौने दाम पर हम दाल बेचने को मजबूर हो जाते हैं, क्योंकि दाल बेच कर ही हमें अगले सीजन के लिए दहलन की फसल बोनी पड़ती है।’

यहां यह भी बता दें कि मोकामा टाल क्षेत्र की प्रकृति ऐसी है कि साल में एक ही फसल की खेती हो पाती है – रबी के सीजन में। बाकी समय टाल क्षेत्र में पानी की किल्लत रहती है। इस वजह से यह वृहत्तर भूभाग 6 महीने तक यों ही उदास पड़ा रहता है। किसान चाहते हैं कि कोई वैकल्पिक व्यवस्था की जाये, ताकि वे खरीफ सीजन में भी खेती कर सकें।

राजेंद्र एग्रीकल्चरल यूनिवर्सिटी के एग्रोनॉमी डिपार्टमेंट के चीफ साइंटिस्ट डॉ विनोद कुमार ने कहा, ‘मोकामा टाल क्षेत्र में खरीफ के सीजन में तो फसल उगाना संभव नहीं है, लेकिन गरम फसलें उगायी जा सकती हैं। इसके लिए टाल क्षेत्र में जल संचयन की व्यवस्था करनी होगी। जल संचयन की व्यवस्था होने पर सिंचाई के लिए पानी तो मिलेगा ही, साथ ही किसान मछली पालन कर भी अपनी आय में इजाफा कर सकते हैं।’

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