पहाड़ों के देस झारखंड भी कई माउंटेन मैन हैं। जिन्होंने बिहार के गया के दशरथ मांझी की तरह पहाड़ काटकर रास्ता बना दिया। दूरी घटा दी। आम लोगों की सहूलियत बढ़ा दी। दशरथ मांझी ने जब पहाड़ काटकर रास्ता बनाया तो पूरी दुनिया में ख्यात हो गये। बड़ा सम्मान मिला। फिल्म बनी। मगर इन दशरथ मांझियों को वह सम्मान और ख्याति नहीं मिल पाई है।
झारखंड के गिरिडीह जिला के भेलवा घाटी के रहने वाले डोमन मियां और इस्लाम मियां ने झारखंड से सटे बिहार के जमुई जिला के चकाई ब्लॉक के सुदूर मड़वा पहाड़ी को काटकर चार किलोमीटर (मड़वा पहाड़ी से सोनो के रजोन तक ) का रास्ता निकाला तो इस पहाड़ी गांव से जमुई मुख्यालय की दूरी 60 किलोमीटर घट गई। इस गांव से जमुई जाना हो तो चकाई होते हुए जाना पड़ता है। इस स़ड़क से जमुई, खैरा और सोनो के लोगों के लिए भी गिरिडीह और कोडरमा जाना आसान हो गया। ये दोनों पशु चराते थे उसी दौरान 2017 में इन्हें ख्याल आया कि क्यों न पहाड़ को काटकर रास्ता बनाया जाये। और दोनों मड़वा पहाड़ को काटने में जुट गये। देखा देखी बाद में कुछ ग्रामीणों का भी साथ मिला और तीन साल में पहाड़ काटकर चार किलोमीटर का रास्ता निकाल दिया। यह नक्सल प्रभावित वही घाटी है जहां 2005 में 11 सितंबर को माओवादियों ने 17 ग्रामीणों को मौत के घाट उतार दिया था और विस्फोट कर उनके घर उड़ा दिये थे।
इसी से मिलता जुलता किस्सा झारखंड के धनबाद जिला के टुंडी के गंगापुर गांव का है। फर्क इतना है कि यहां के ग्रमीण दशरथ मांझी बन गये। लॉकडउन के दौरान जुटे और एक माह के भीतर ही पहाड़ काटकर दो किलोमीटर का रास्ता निकाल दिया। रास्ता निकला तो गिरिडीह जाने की दूरी 40 किलोमीटर कम हो गई। दरअसल लॉकडाउन के दौरान अनेक मजदूर गांव लौटे थे। काम की तलाश में करीब के गिरिडीह जिला की सीमा में प्रवेश करना पड़ता था। बीच में पड़ने वाले राज बांस पहाड़ के कारण चालीस किलोमीटर का सफर तय करना पड़ता था। पहाड़ के कटने से अब दो किलोमीटर का सफर तय कर गिरिडीह सीमा में प्रवेश कर जाते हैं। आने-जाने की समस्या दिखी तो ग्रामीण युवकों ने बैठक कर इस पहाड़ को काटकर रास्ता बनाने का निर्णय किया। फिर मार्च के अंत में शुरू हो गये। रोजाना कोई एक सौ लोग खंती, गैंता और कुदाल, टोकरी लेकर जुटे तो एक महीने में ही दस फीट चौड़ा दो किलोमीटर लंबा रास्ता बना दिया।
अब बात करते हैं कुंडलीपुर गांव की। पलामू जिला के नक्सल प्रभावित मनातू प्रखंड का सुदूरवर्ती गांव है। प्रखंड मुख्यालय से कोई 20-22 किलोमीटर दूर। आदिवासी बहुल कोई सात सौ की आबादी है। बिहार की सीमा से कोई 12 किलोमीटर दूर। यहां के ग्रामीणों ने पहाड़ काटकर सात किलोमीटर का रास्ता निकाल दिया। अब ट्रैक्टर गांव तक पहुंची रहा है। इसी सितंबर माह में रास्ता बनाने का काम पूरा हुआ। पहाड़ और चार नदी-नालों को पार करके ही यहां जाना संभव होता है। गर्मी के दिनों में तो काम चल जाता था मगर बारिश के मौसम में यह गांव टापू में बदल जाता था। जब कोई बीमार पड़ता था तो डोली, खाट में लाद कर ले जाना पड़ता था।
बिहार की ही सीमा से सटे है उग्रवाद प्रभावित चतरा जिला। चतरा जिला के कान्हाचट्टी प्रखंड से कोई 25 किलोमीटर दूर गड़िया, अमकुदर, बनियाबांध, नारे व धवैया गांव पहाड़ की तलहटी में बसा है। यहां के ग्रामीणों ने दस साल में पहाड़ काटकर दो किलोमीटर सड़क का निर्माण किया। जब मौका मिलता काम में जुट जाते। पिछले साल रघुवर सरकार की विदाई के समय इस सड़क के निर्माण का काम पूरा हो चुका था। गांव के लोगों को जिला व प्रखंड मुख्यालय जाने के लिए दस-बारह किलोमीटर पैदल सफर करना पड़ता था। पहले पहाड़ की चढ़ाई उसके बाद आगे का सफर। हाई स्कूल जाना हो या कान्हाचट्टी या ईटखोरी बाजार में फसल ले जाना हो, आसान हो गया है। लोगों ने पहाड़ काटकर रास्ते तो बना दिये मगर अब भी सरकार का ध्यान इनकी ओर ठीक से नहीं गया है। ग्रामीणों की मांग है कि उनके द्वारा बनाये गये रास्तों को कालीकृत कर पक्का बना दिया जाये ताकि सवारी-गाड़ी के आने में सहूलियत हो।
झारखंड के "मांझी" सम्मान के हकदार, किसी ने पहाड़ काटकर 40 किलोमीटर रास्ता घटाया तो किसी ने 20 किलोमीटर दूर कर दी कम
पहाड़ों के देस झारखंड भी कई माउंटेन मैन हैं। जिन्होंने बिहार के गया के दशरथ मांझी की तरह पहाड़ काटकर...
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