ऐसी खबरें रोजाना आ रही हैं। इस बीच रेल पटरी पार करते हुए हाथियों के झुंड रेलगाड़ियों से कुचले भी जा रहे हैं। पिछले दस माह के दौरान 43 हाथियों की हत्या हो चुकी है। जंगलों के सिकुड़ने से सिर्फ हाथी नहीं मारे जा रहे हैं, तेंदुओं पर भी आफत आ गई है। उन्हें भोजन की तलाश में बस्तियों की ओर रुख करना पड़ रहा है। इस साल के जनवरी से अक्टूबर के दौरान 23 गैंडे मारे जा चुके हैं।
आदमी और हाथी के संघर्ष पर राज्य सरकार की चुप्पी आश्चर्यजनक है। असम की वन मंत्री प्रमिला ब्रह्म कहना है कि वनों के लगातार सिकुड़ने और वन भूमि में बसावट बढ़ने से हाथियों को चारे की तलाश में बाहर निकलना पड़ता है। फिर वन विभाग अपने स्तर पर इस संघर्ष को टालने का प्रयास कर रहा है, लेकिन इसकी अपनी सीमा है। वन विभाग खुद को असहाय महसूस कर रहा है।
पिछले कुछ दिनों में रेलगाड़ियों की चपेट में आने से कम से कम पांच हाथियों की मौत हो चुकी है और कई घायल हुए हैं। ऐसे हादसे वैसी जगहों पर हुए हैं, जहां से हाथियों के गुजरने का इतिहास नहीं है। इसलिए रेलगाड़ियों की गति सीमा का कोई निर्देश नहीं होता है। यह दावा पूर्वोत्तर सीमा रेलवे का है। यानी अब हाथियों के झुंड अलग-अलग इलाके से गुजर रहे हैं। जबकि वन विभाग कहता है कि रेलवे उसके निर्देशों को नहीं मानता है। वन विभाग ने हाथियों के विचरण वाले इलाके में रेलगाड़ियों की गति नियंत्रित करने की सलाह दी है, लेकिन रेल प्रशासन उसे नहीं मानता है। उसी तरह शोणितपुर जिले में पतंजलि मेगा हर्बल पार्क के निर्माण के लिए किए गए गड्ढे में गिर जाने से एक मादा हाथी की मौत हो गई। उसके बच्चे राहत शिविर में रखा गया है ।
जंगली हाथियों की वजह से राज्य के कई ग्रामीण इलाके में लोग आतंकित हैं। कई ऐसे गांव हैं, जहां लोग पूरी रात जागकर गुजार रहे हैं कि क्या पता कब हाथियों का झुंड आ जाए। लोगों के घर और फसल तबाह हो रहे हैं। हाथी चाय बागानों में प्रवेश कर रहे हैं। बागानों को भी नुकसान हो रहा है। कई जगहों पर लोग हाथी से बचने के लिए तार के बाड़ में बिजली का प्रवाह कर देते हैं। करंट लगने से भी हाथी मारे जा रहे हैं।
आखिर क्या वजह से इतनी बढ़ी संख्या में हाथी जंगलों और पहाड़ों से उतरकर आबादी वाले इलाके में घूम रहे हैं। दरअसल जाड़ा आते ही जंगलों के घास सूखने लगते हैं। जंगल लगातार सिकुड़ रहे हैं और जंगलों के आसपास बसावट बढ़ी है। जिन इलाके में हाथी भोजन की तलाश में जंगलों से निकलकर आते थे, उन इलाके में नए-नए गांव बस गए हैं। खाली पड़ी जमीन पर खेती आरंभ हो गई है। एक जंगल से दूसरे जंगल जाने के लिए हाथी का निश्चित गलियारा होता है। भोजन की तलाश में हाथी हमेशा उसी गलियारे का इस्तेमाल करते हैं। लेकिन उन्हीं गलियारे में नए गांव बस गए। जिन इलाके में वे अपनी भूख मिटाते थे, वहां पर खेती होने लगी है । यानी हाथी आबादी वाले इलाके में नहीं गए, आदमी ने उनके इलाके का अतिक्रमण किया है। जंगलों के सिकुड़ने से उन्हें भोजन की तलाश में अक्सर बाहर निकलना पड़ता है। ऐसी घटनाओं ने आदमी और हाथी के संघर्ष को बढ़ावा दिया है। जिनके घर और फसल बर्बाद होती है, वे सरकार से क्षतिपूर्ति की मांग करते हैं, लेकिन मूक हाथी किससे फरियाद करें। ऐसे में वे अपना गुस्सा आदमी पर उतारते हैं। पहले इस तरह की टकराहट कम होती थी।
आदमी और हाथी के संघर्ष को टालने के लिए राज्य सरकार को हाथियों के गलियारे को मानवीय अतिक्रमण से मुक्त कराना चाहिए और सुरक्षित वन क्षेत्रों में बड़े पैमाने पर वृक्षारोपण कराना चाहिए, ताकि हाथियों को अपना भोजन जंगल के अंदर ही मिल जाए।