“आंखों की रोशनी जाने के बाद भी इन्शा ने अपनी दुनिया अंधेरे में नहीं जाने दी, उसके हौसले से उसका जीवन रोशन है”
लाल फिरन और चौखाने वाला स्कार्फ पहनी इन्शा मुश्ताक अपनी आंखों को बार-बार रगड़ रही थी। उसके माथे पर अब भी भर चुके जख्मों के निशान बाकी हैं। वह उन जगहों को छू रही थी। उस खोखल को भी, जहां कभी आंखें हुआ करती थीं। हंसते हुए वह कहती है, “कुछ दिनों से यहां मुझे खुजली सी महसूस होती है, मैं इसे साफ करने की कोशिश करती हूं।” हम सेडो गांव में उसके घर के पहले माले पर बैठे हुए थे। थोड़ी दूरी पर उसके पिता भी बैठे थे। बातचीत के बीच में वह टोक कर उन दिनों और तारीखों की याद दिला रही थी जब वह अस्पताल में भर्ती थी। अभी हाल ही में बारहवीं की परीक्षा के नतीजे आए हैं। इन्शा को 500 में से 367 अंक मिले हैं। घर पर मिलने वालों का तांता लगा हुआ है। कुछ तो उसकी कामयाबी पर बधाई देने के लिए गुलदस्ते लेकर पहुंचे थे।
वह उस दिन को याद करती है जब उसकी दुनिया बदल गई। वह 2016 की जुलाई की 11 तारीख थी। शाम का वक्त था। उसे अपने चाचा के घर जाना था, जिनका पांच माह पहले ही इंतकाल हुआ था। वह बताती है, “उनके जाने के बाद यह पहली ईद थी, हम सब वहां जाने को तैयार थे।” तभी उसे बाहर कुछ आवाज सुनाई दी। वह खिड़की पर देखने गई कि क्या हो रहा है। उसका घर सड़क के किनारे है। जैसे ही उसने खिड़की खोली, छर्रों की बौछार ने उसका चेहरा बेध दिया। सब अंधेरे में डूब गया।
वह कहती है, “मैं गिर पड़ी। मैंने कुरान पाक को याद किया पर कुछ बोल नहीं पाई। सिर में भीतर से भयंकर जलन हो रही थी। मुझे लगा था कि मेरा माथा गोलियों से छलनी हो चुका है।”
उसे शोपियां के जिला अस्पताल ले जाया गया। अस्पताल घर से 15 किलोमीटर दूर है। छर्रों से भरे चेहरे को देखकर डॉक्टर कांप गए। वह बताती है, “अस्पताल के रास्ते में मुझे सबकी बात सुनाई दे रही थी लेकिन खुद के मुंह से एक शब्द नहीं निकल रहा था।”
डॉक्टरों ने उसे श्रीनगर के श्री महाराजा हरि सिंह अस्पताल में रेफर कर दिया। अगले चार दिन वह कोमा में रही। होश आने पर उसे कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा था। दर्द भरी हंसी के साथ वह कहती है, “सब कुछ काला था। मेरी आंखों और चेहरे पर पट्टियां बंधी हुई थीं। ऐसा लगा कि मेरे माथे पर गहरा घाव है, पट्टी हटते ही मैं देख पाऊंगी।”
इन्शा का बुरी तरह जख्मी चेहरा जुलाई 2016 में कश्मीरियों के आक्रोश का बायस बना था, जिसके दबाव में पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी की सरकार को दखल देना पड़ा। मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती ने उसे हर तरह की मदद का वादा किया। श्रीनगर के अस्पताल में महीना भर गुजारने के बाद इन्शा को दिल्ली के आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) लाया गया। यहां वह करीब दो महीना रही। इस बीच एक बार मुफ्ती उससे मिलने भी आईं। यहां उसका ऑपरेशन हुआ। यहीं उसने अपने पिता को किसी से कहते हुए सुना था कि अब उसकी आंखों की रोशनी कभी वापस नहीं आ सकेगी।
वह कहती है, “उस दिन मैं खूब रोई थी। उससे पहले मुझे थोड़ी उम्मीद थी। अब्बू मुझे दिलासा दे रहे थे कि रोशनी वापस आ जाएगी।”
इन्शा को 13 सितंबर 2016 को मुंबई के आदित्य ज्योति अस्पताल ले जाया गया जहां डॉ. एस. नटराजन ने करीब 24 दिनों तक उसका इलाज किया। डॉ. नटराजन इस अस्पताल के निदेशक थे और ऑक्युलर ट्रॉमा सोसायटी ऑफ इंडिया के अध्यक्ष भी थे। 2016 में वे तीन बार कश्मीर गए थे, जहां पैलेट के शिकार 200 से ज्यादा कश्मीरियों की आंख का उन्होंने ऑपरेशन किया था। घाटी में इस नाते उनका काफी नाम था। इन्शा के पिता मुश्ताक अहमद के मुताबिक नटराजन ने ही उन्हें बताया था कि इन्शा की आंख की रोशनी वापस आने की कोई गुंजाइश नहीं बची है। वे कहते हैं, “इसके बाद हमारी सारी उम्मीदें टूट गईं।”
इन्शा अपने परिवार के साथ चेक-अप के लिए मुंबई से दिल्ली के एम्स आई, फिर अक्टूबर 2016 के पहले हफ्ते में कश्मीर लौट गई। वह कश्मीर में चल रहे आंदोलन का चेहरा थी। तमाम विश्वविद्यालयों के छात्र उससे मिलने आया करते थे। वे उसके लिए तोहफे लेकर आते थे। इलाज के शुरुआती दो महीनों के भीतर उनके साथ उसका लगाव हो गया था। उसे लगता था कि वे उसके दोस्त बन गए हैं। वह लौट कर घर आई तो सारे छात्र उसे भूल चुके थे। उसका दिल छलनी हो गया।
वह कहती है, “अब मेरा कोई दोस्त नहीं है, बस मां है। वही मेरी सब कुछ हैं।”
कश्मीर के स्वास्थ्य विभाग के मुताबिक हिज्बुल मुजाहिदीन के उग्रवादी बुरहान वानी की हत्या के बाद उभरे आंदोलन में करीब 10,000 लोग जख्मी हुए थे। इनमें 6,205 लोग पैलेट का शिकार हुए थे। 1100 लोग ऐसे हैं जिनकी आंखें छर्रे से जख्मी हुई थी। इनमें से ज्यादातर लोगों की आंखों की रोशनी जा चुकी है। इन्शा भी उन्हीं लोगों में से एक है।
2017 में इन्शा ने हेल्पर की मदद से दसवीं की परीक्षा पास की। दसवीं के बाद उसने श्रीनगर के दिल्ली पब्लिक स्कूल में नाम लिखवाया क्योंकि वहां ब्रेल पद्धति से शिक्षण की सुविधा थी। 2018 में उसे सेंटर फॉर पीस एंड जस्टिस (सीपीजे) नाम की एक संस्था की मदद से दिल्ली पब्लिक स्कूल में दाखिला मिला। संस्था के अध्यक्ष नादिर अली को स्कूल की फीस की चिंता थी। वे बताते हैं कि एक रात अचानक उनके पास रघु रमन का फोन आया। वे शिक्षा के क्षेत्र में धर्मार्थ काम करते हैं। नादिर कहते हैं, “रमन ने बताया कि वे उसके दाखिले का खर्च उठा लेंगे। तब मुझे राहत मिली।”
राजबाग में अली की संस्था का दफ्तर है। संस्था ने इन्शा के लिए वहीं पास में दो कमरे का मकान किराये पर ले लिया ताकि इन्शा और उसका छोटा भाई नफी वहां रह कर पढ़ सकें। अली का दफ्तर इन्शा का दूसरा घर बन गया।
इन्शा ग्यारहवीं और बारहवीं की पढ़ाई के लिए सीपीजे में नियमित आती थी। वहीं एक विधि स्नातक शरीका जरगर उसकी दोस्त बन गई। नादिर बताते हैं, “शुरू में तो उसे पढ़ाना थोड़ा मुश्किल था। अचानक वह किताबें फेंक देती थी और कहती कि उसे अब नहीं पढ़ना है।” फिर धीरे-धीरे उसने हकीकत को स्वीकार करना शुरू कर दिया।
इन्शा अपने शिक्षकों की तारीफ करती है। वह कहती हैं, “सभी टीचर बहुत अच्छे हैं, खासकर गौहर। वह मुझे समाज विज्ञान पढ़ाते थे।” श्रीनगर के एक स्थानीय नेता उसे बधाई देने आए थे। वे खुद को बबर शेर कहते हैं। उनका नाम सुनकर वह हंस देती है।
इन्शा कहती है, “मैं अभी स्नातक करूंगी, फिर बाद में आइएएस निकालूंगी और नेत्रहीनों के लिए काम करूंगी। नेत्रहीनों के लिए जागरूकता नहीं है और ऐसे स्कूल भी कम हैं जो ब्रेल पढ़ाते हों।” वह बताती है कि उसे लोगों से मिलने-जुलने में दिक्कत होती है, “मेरे शरीर के भीतर अब भी छर्रे हैं। डर लगता है कि कहीं मुझे कोई इन्फेक्शन न हो जाए।”
हादसे से पहले इन्शा स्कूल से लौटने के बाद आम तौर से घर पर ही रह कर होमवर्क करती थी। इसके लिए वह देर तक जगती थी। वह बताती है, “जब मेरी आंखें थीं, मैं डॉक्टर बनना चाहती थी। मेरा पसंदीदा रंग नेवी ब्लू था और अब भी है। हां, उसका अहसास अब हलका है पर अब भी वह मेरा पसंदीदा रंग है।”
इन्शा कभी-कभार शरीका के साथ श्रीनगर में टहलने जाती है। कुछ लोग उसके पास आकर बातें भी करते हैं। वह बताती है, “कुछ लोग मुझे सांत्वना देने आते हैं, कुछ मुझे अंधा कहते हैं, कुछ गप मारते हैं। कुछ तो मेरे मुंह पर ही कहते हैं कि सरकार का लाभ मुझे मिला है। शहर में लोग ज्यादा बातें करते हैं। कुछ लोग पूछते हैं मुझसे कि सरकार से मुझे क्या-क्या मिला।”
इन सब बातों से हालांकि उसे कोई फर्क नहीं पड़ता। उसने अपना लक्ष्य तय कर लिया है। वह कहती है कि वह खूब मेहनत कर पढ़ेगी। वह खुद अपना घर साफ करती है, बरतन धोती है और दावा करती है कि किसी को उसके कमरे में एक कतरा धूल भी नहीं मिल सकती। कैसे करती है वह ये सब? अगर उससे यह पूछा जाए, तो वह नाराज होकर जवाब देती है, “जैसे सब लोग करते हैं।”
इन्शा कहती है, “अगर कभी मेरी आंखें लौट आईं तो सबसे पहले मैं अपने अम्मी-अब्बू को देखना चाहूंगी।”