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पुरी और गुजरात में जगन्नाथ की रथयात्रा शुरू, जानिए इसका महत्व और मान्यता

आज ओडिशा के पुरी और गुजरात के अहमदाबाद में भगवान जगन्नाथ की रथयात्रा निकाली जा रही है। गुजरात में...
पुरी और गुजरात में जगन्नाथ की रथयात्रा शुरू, जानिए इसका महत्व और मान्यता

आज ओडिशा के पुरी और गुजरात के अहमदाबाद में भगवान जगन्नाथ की रथयात्रा निकाली जा रही है। गुजरात में मुख्यमंत्री विजय रुपाणी ने रथ को खींच कर इस रथयात्रा की शुरुआत की। गुजरात में रथयात्रा से पहले भाजपा अध्यक्ष अमित शाह जगन्नाथ मंदिर में हुई मंगल आरती में शामिल हुए। वहीं, प्रधानमंत्री मोदी ने ट्वीट रथयात्रा की बधाई दी।

जिस तरह भारत में तमाम त्यौहारों का महत्व है, वैसे ही ओडिशा के पुरी में जगन्नाथ यात्रा का महत्व है। यहां की यात्रा सबसे भव्य होती है। यूनेस्को द्वारा पुरी के एक हिस्से को वर्ल्ड हेरिटेज यानी वैश्विक धरोहर की सूची में शामिल किए जाने के बाद से यह पहली रथ यात्रा है। इस बार की रथ यात्रा की थीम भी 'धरोहर' है।

कैसे निकलती है रथयात्रा

 इस रथयात्रा में तीन बड़े रथ निकलते हैं, जिसमें एक भगवान जगन्नाथ का, दूसरा उनके बड़े भाई बलराम और तीसरा सुभद्रा का होता है। रथयात्रा के जरिए पूरे शहर का भ्रमण किया जाता है। ये यात्रा मुख्य मंदिर से शुरू होकर 2 किलोमीटर दूर स्थित गुंडिचा मंदिर पर संपन्‍न होती है। जहां भगवान जगन्नाथ 7 दिन तक विश्राम करते हैं। मान्यता है कि गुंडिचा मंदिर भगवान जगन्नाथ की मौसी का घर है।

 हर साल यात्रा के लिए नए रथ का निर्माण होता है, जिसका आकार-प्रकार हर वर्ष एक ही जैसा होता है। मूल रूप से रथ के निर्माण के लिए नारियल की लकड़ी का प्रयोग होता है क्योंकि ये हल्की होती है। भगवान जगन्नाथ के रथ का रंग लाल -पीला होता है और यह अन्य रथों से आकार में भी बड़ा होता है।

भगवान जगन्नाथ के रथ में 18 पहिए लगे होते हैं, जबकि बलराम के रथ में 16 और सुभद्रा के रथ में 14 पहिए होते है। भगवान जगन्नाथ के रथ का नाम नंदीघोष, बलराम जी के रथ का नाम तालध्वज और सुभद्रा के रथ का नाम देवदलन होता है। भगवान जगन्नाथ के रथ की ऊंचाई साढ़े 13 मीटर होती है, रथ के घोड़ों का नाम शंख, बलाहक, श्वेत एवं हरिदाशव है तो वहीं हनुमान जी और नृसिंह इसके प्रतीक चिह्न हैं।

रथ को जिस रस्सी से खींचा जाता है, वह शंखचूड़ नाम से जानी जाती है, उसकी भी पूजा की जाती है। पुरी के राजा रथयात्रा से पहले सोने की झाड़ू लेकर मार्ग को साफ करते हैं, जिसके बाद रथ यात्रा आरंभ होती है।

क्या है मान्यता

माना जाता है कि कलयुग के प्रारंभिक काल में मालव देश पर राजा इंद्रद्युम का शासन था। वह भगवान जगन्नाथ का भक्त था। एक दिन इंद्रद्युम भगवान के दर्शन करने नीलांचल पर्वत पर गया तो उसे वहां देव प्रतिमा के दर्शन नहीं हुए। निराश होकर जब वह वापस आने लगा तभी आकाशवाणी हुई कि शीघ्र ही भगवान जगन्नाथ मूर्ति के स्वरूप में पुन: धरती पर आएंगे। यह सुनकर वह खुश हुआ।

आकाशवाणी के कुछ दिनों बाद एक बार जब इंद्रद्युम पुरी के समुद्र तट पर टहल रहा था, तभी उसे समुद्र में लकड़ी के दो विशाल टुकड़े तैरते हुए दिखाई दिए। तब उसेआकाशवाणी की याद आई और सोचा कि इसी लकड़ी से वह भगवान की मूर्ति बनवाएगा। फिर वह लकड़ी को महल में अपने साथ उठा लाया  तभी भगवान की आज्ञा से देवताओं के शिल्पी विश्वकर्मा वहां बढ़ई के रूप में  प्रगट हुए और उन्होंने उन लकडिय़ों से भगवान की मूर्ति बनाने के लिए राजा से कहा। राजा ने तुरंत इसकी आज्ञा दी।

लेकिन मूर्ति बनाने से पहले बढ़ई रूपी विश्वकर्मा ने एक शर्त रख दी। शर्त के मुताबिक, वह मूर्ति का निर्माण एकांत में ही करेगा और यदि निर्माण कार्य के दौरान कोई वहां आया तो वह काम अधूरा छोड़कर चला जाएगा। राजा ने शर्त मान ली। इसके बाद विश्वकर्मा ने गुंडिचा नामक जगह पर मूर्ति बनाने का काम शुरू कर दिया। कुछ दिन बाद एक दिन राजा भूलवश जिस स्थान पर विश्वकर्मा मूर्ति बना रहे थे वहां पहुंच गए। तब उन्हें देखकर विश्वकर्मा वहां से अन्तर्धान हो गए और भगवान जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा की मूर्तियां अधूरी रह गईं।

कहानी के मुताबिक, तभी आकाशवाणी हुई कि भगवान इसी रूप में स्थापित होना चाहते हैं। तब राजा इंद्रद्युम ने विशाल मंदिर बनवाकर तीनों मूर्तियों को वहां स्थापित कर ‌दिया। साथ यह भी आकाशवाणी हुई कि भगवान जगन्नाथ साल में एक बार अपनी जन्मभूमि जरूर आएंगे। स्कंदपुराण के उत्कल खंड के अनुसार राजा इंद्रद्युम ने आषाढ़ शुक्ल द्वितीया के दिन प्रभु के उनकी जन्मभूमि जाने की व्यवस्था की। तभी से यह परंपरा रथयात्रा के रूप में चली आ रही है। वहीं, एक दूसरी कथा भी जिसके अनुसार सुभद्रा के द्वारिका दर्शन की इच्छा पूरी करने के लिए श्रीकृष्ण और बलराम ने अलग-अलग रथों में बैठकर यात्रा की थी। सुभद्रा की नगर यात्रा की स्मृति में ही यह रथयात्रा पुरी में हर साल होती है।

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