“खीरू महतो को राज्यसभा का टिकट देकर नीतीश ने एक तीर से किए कई शिकार”
झारखंड में जदयू के प्रदेश अध्यक्ष 69 वर्षीय खीरू महतो को राज्यसभा में भेजकर बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने सब को चौंका दिया। खुद खीरू को भी इसकी उम्मीद नहीं थी। उन्होंने आउटलुक से कहा कि उन्हें भनक तक नहीं थी, घोषणा के बाद जानकारी मिली। इस चाल से नीतीश कुमार ने एक तीर से कई शिकार किए। कभी बहुत भरोसे के रहे मगर तिरछे चल रहे केंद्रीय मंत्री आरसीपी सिंह को कुछ किनारे लगाने के अलावा झारखंड में पार्टी को मजबूती देने के इरादे से भाजपा को दोहरा संदेश दिया। झारखंड में पिछले दो विधानसभा चुनावों में जदयू का एक भी विधायक नहीं है। 2019 में अकेले 40 सीटों पर लड़ी जदयू का वोट प्रतिशत भी 2005 में 4.6 से घटकर एक प्रतिशत के अंदर ही रह गया। फिर खीरू कुर्मी जाति से हैं, जिनकी आबादी झारखंड में 22 प्रतिशत तक बताई जाती है।
वरिष्ठ पत्रकार सुधीर मिश्र कहते हैं, “अपने स्वजातीय आरसीपी के कद को लेकर चिंतित नीतीश ने अपने समाज को खुश करने के लिए ही शायद खीरू को चुना।” इसका एक मकसद झारखंड में कुर्मियों का समर्थन वापस पाने की कोशश भी हो सकती है, जिनका रुझान भाजपा की ओर चला गया है। अलबत्ता, खीरू के पक्ष में एक बात यह भी जाती है कि उन्होंने कभी पाला नहीं बदला। हमेशा नीतीश के साथ रहे।
झारखंड से राज्यसभा जाने वाले खीरू पहले कुर्मी नेता हैं। 1978 में मुखिया का चुनाव जीतकर राजनीति में कदम रखने वाले खीरू 2005 में मांडू से विधायक रहे। उस दौरान भी वे थोड़े समय के लिए प्रदेश अध्यक्ष की बागडोर संभाल चुके हैं। पिछले साल सितंबर के मध्य में उन्हें फिर प्रदेश अध्यक्ष की बागडोर सौंपी गई। जॉर्ज फर्नांडिस के भी करीबी रहे खीरू समता पार्टी से लेकर नीतीश के साथ बने हुए हैं। खीरू कहते हैं कि राज्य में पार्टी को मजबूत करना पहली प्राथमिकता है और वे जिलों और प्रखंडों का दौरा करके पार्टी को मजबूत करेंगे। जानकारों के अनुसार कोशिश यह है कि चाहे पार्टी जीतने की हैसियत में न आए मगर वोट कटवा की भूमिका निभाने की हैसियत में जरूर आ जाए।
जब राज्य बना तो चुनाव में जदयू के समर्थन से ही सरकार बनी थी। तब पांच विधायक थे, सब के सब मंत्री बने। मगर जदयू के हाथ खींच लेने से अर्जुन मुंडा को अपदस्थ होना पड़ा था। राज्य बनने के बाद 2005 के पहले विधानसभा चुनाव में जदयू के छह विधायक चुने गए थे। 2005 के विधानसभा चुनाव में जदयू-भाजपा के साथ 19 सीटों पर लड़ा और 6 सीटों पर जीत हासिल की। 2009 के चुनाव में जदयू ने 14 सीटों पर उम्मीदवार दिए मगर सिर्फ दो सीटों पर सिमट कर रह गया। पिछले दो विधानसभा चुनाव में तो नीतीश कुमार की चुनावी सभाएं ही नहीं हुईं।
महतो का कहना है कि झारखंड में पार्टी के लिए बहुत संभावनाएं हैं। वे भी नीतीश के शराबबंदी एजेंडे के हिमायती हैं, क्योंकि उसके बिना सामाजिक विकास की उम्मीद नहीं की जा सकती। बिहार ने जाति आधारित जनगणना का निर्णय किया है इसलिए वे भी झारखंड में इसके लिए आवाज उठाएंगे। क्या वे संगठन को ताकत दे पाएंगे? इस सवाल पर उन्होंने कहा, पर्याप्त अवसर दिए बगैर “मुझे हटा दिया गया, मेरे हटने के बाद संगठन कमजोर होता गया।”
महतो के विरोध में बात करने वाले भी कम नहीं है। वरिष्ठ पत्रकार सुधीर मिश्र कहते हैं, “खीरू महतो ने कोयला सिंडिकेट से अच्छी संपत्ति अर्जित की है। खीरू के बूते पार्टी की किसी चमत्कार की उम्मीद बेमानी है। ये अपने इलाके में एक चापाकल (हैंडपंप) तक नहीं लगवा पाएंगे।”
लेकिन इन सबसे इतर नीतीश झारखंड में पार्टी की हैसियत अच्छी तरह जानते हैं। यहां लंबे समय से भाजपा सत्ता से जुड़ी रही है। वहीं बिहार में भाजपा के साथ चल रहे जोड़-घटाव के बीच उनका इरादा झारखंड में भी पैर पसारने का है। जदयू झारखंड में आयातित नेताओं के लिए चुनाव जीतने का मंच बना रहा। दूसरे दल के जिस नेता को टिकट नहीं मिला उसने जदयू से लड़कर अपनी सीट हासिल की लेकिन पार्टी की हालत नहीं सुधरी। अब देखना है कि नीतीश के इस दांव से झारखंड जदयू की झोली में आता है या नहीं।