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कुपोषण से लुप्त हो रहे कमार आदिवासी

‘ एक आदमी के लिए सात किलो चावल और दो किलो चना, क्या इससे गरीबी दूर होती है?’ कोंडागांव के नगरी संभाग के गांव उमर का सुखदेव यह सवाल करते हुए रुआंसा हो जाता है। उसकी पत्नी और तीन बच्चे खेत में मजदूरी करने गए हैं। सौ रुपये दिहाड़ी मिलती है और जंगल से मिलने वाली साग-भाजी तो अब पहले जैसी नहीं रही। सुखदेव का कहना है कि वह अपने बच्चों को पढ़ाना चाहता है। लेकिन सरकार ने सिर्फ साइकिल देकर अपनी जिम्मेदारी खत्म कर दी। उसकी छोटी बेटी नौवीं कक्षा में दो बार फेल हो गई थी तो स्कूल वालों ने तीसरी बार एडमिशन देने से इनकार कर दिया।
कुपोषण से लुप्त हो रहे कमार आदिवासी

नसबंदी की इजाजत नहीं

सुखदेव छत्तीसगढ़ की कमार आदिवासी समुदाय से है। गरीबी और गुमनामी में जी रहा यह समुदाय लुप्त हो रहे आदिवासियों में शुमार है। हालांकि सरकार ने इनके लिए विशेष सुविधाओं का प्रावधान किया है लेकिन सुखदेव और उसके जैसे कई कमार आदिवासियों से बात करके पता लगता है कि ये लोग उन योजनाओं से अनजान हैं। इसी समुदाय की जानकी देवी की दिञ्चकत यह है कि उसके नौ बच्चे हैं। उसका कहना है कि गरीबी, भुखमरी तो होगी ही। क्योंकि उन्हें नसबंदी की इजाजत नहीं है। जानकी देवी का कहना है कि या तो सरकार हमारा ठीक से पालन-पोषण करे, भर पेट खाने को दे या नसबंदी की इजाजत दे।

 

कुपोषण के शिकार आदिवासी

कुपोषण के शिकार तो सभी आदिवासी हैं लेकिन कमार समुदाय में हमने देखा कि हालत ज्यादा खराब हैं। सरकारी सूत्रों का कहना है कि कमार उनकी बात नहीं सुनते। दिन में भी महुआ की शराब या सुल्फी पीकर मस्त रहते हैं। यहां तक कि इनकी महिलाएं और बच्चे भी पीते हैं। लेकिन सुखदेव ने बताया कि ऐसा नहीं है। यह लोग झूठ बोलते हैं। सभी कमार नहीं पीते हैं। सुखदेव ने अपनी एक आपबीती सुनाई कि स्थानीय अस्पताल में जब डॉक्टर इलाज नहीं करता है तो लोग चिल्लाते हैं, डॉक्टर बोलता है कि यह कमार है, खूब हल्ला करता है इसे नगरी रेफर कर दो। सभी को लगता है कि कमार है तो दारू पिए होगा। 

 

दाल और दूध गायब है आदिवासी की थाली से

लेकिन असल बात से सरकार भी इनकार नहीं कर सकती है कि आदिवासियों की थाली में दाल और दूध से बनी चीजें नहीं हैं। छत्तीसगढ़ के बाकि आदिवासी इलाकों में भी यही हालात हैं। खासकर बच्चे गंभीर कुपोषण का शिकार हैं। राज्य सरकार के पास इससे निजात पाने के लिए योजनाएं भी हैं और बजट भी लेकिन वंचितों तक पहुंचना सरकार और संस्थाओं के लिए चुनौती है। देश के 70 फीसदी आदिवासी मध्य भारत में हैं। जंक फूड से दूर जंगल की सब्जी -भाजी खाने वाले देश के 54 फीसदी आदिवासी बच्चे यानी हर दूसरा आदिवासी बच्चा गंभीर कुपोषण का शिकार है। इस वर्ष मिलेनियम डेवलपमेंट गोल (शताब्दी विकास लक्ष्य) की मियाद भी खत्म हो रही है। ऐसे में मानव विकास इंडेक्स में आदिवासी बच्चों की यह हालत भारत को पीछे ले जाती है। देखने में आ रहा है कि जैसे-जैसे आदिवासी बच्चों की उम्र बढ़ रही है वैसे-वैसे वे शारीरिक तौर पर अक्षम हो रहे हैं। यूनिसेफ के आंकड़े बताते हैं कि 0-5 वर्ष की उम्र के 25 फीसदी, 6-11 वर्ष की उम्र के 35 फीसदी, 12-17 वर्ष की उम्र के 54 फीसदी, 18-23 वर्ष की उम्र के 75 फीसदी और 24 वर्ष एवं उससे ज्यादा उम्र के 61 फीसदी आदिवासी बच्चे कुपोषण की श्रेणी में हैं।

 

बस्तर के जंगलों से हटा दी गईं राशन की दुकानें

छत्तीसगढ़ जैसे राज्य में कुपोषण और उसे दूर करने वाली योजनाओं की जमीनी हकीकत यह है कि बड़ी संस्थाएं और सरकार घने जंगलों के अंदर बसे गांवों में नहीं जा पा रही हैं। तीन महीने पहले यूनिसेफ के एक अधिकारी को नक्सलियों ने तीन घंटे तक बंधक बनाकर रखा। इस बारे में बात किए जाने पर पीयूसीएल छत्तीसगढ़ की अध्यक्ष सुधा भारद्वाज बताती हैं कि दिक्कत यह है कि बस्तर के अंदरूनी गांवों से राशन की दुकानें ही हटा दी गई हैं। अब ये दुकानें कैंपों में शिफ्ट कर दी गई हैं। दूर-दूर स्थित दुकानों से राशन लेने मर्द नहीं जाते ताकि कहीं पुलिस उन्हें गिरफ्तार न कर ले। महिलाओं को भी यह कहकर कम राशन दिया जाता है कि वे यह राशन नक्सलियों के लिए ले जा रही हैं।

हालांकि छत्तीसगढ़ सरकार ने कुपोषण से निपटने के लिए नवाजतन योजना और आंगनवाडिय़ों में आने वाले बच्चों के लिए विशेष योजनाएं शुरू की हैं। छत्तीसगढ़ के महिला एवं बाल विकास सचिव दिनेश श्रीवास्तव कहते हैं कि प्रशासन की सबसे बड़ी चुनौती है कि बच्चों को आंगनवाड़ी लेकर आएं। क्योंकि एक दफा बच्चा आंगनवाड़ी आ गया तो कुपोषित नहीं रहेगा। श्रीवास्तव के अनुसार विभाग ने विशेष प्रकार के आहार तैयार करवाएं हैं जो उम्र के अनुसार कुछ-कुछ देर में बच्चे को देने हैं। इसके अलावा बच्चों को गर्म भोजन भी दिया जाता है। श्रीवास्तव अनुसार सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि गांवों में तथाकथित प्राइवेट स्कूल खुल जाने से दिक्कत पेश आ रही है। लोग अपने बच्चों को प्राइवेट स्कूल में भेजना चाहते हैं जहां वे एबीसीडी भी सीख सकें। इसलिए हमने एक योजना के तहत आंगनवाड़ी में बच्चों को खेल-खेल में पढ़ना-लिखना सिखाना शुरू कर दिया है।

 

योजनाएं

कुपोषण से मुक्ति के लिए राज्य सरकार ने आंगनवाडिय़ों को ही मजबूत करने की योजना बनाई है। राज्य के धमतरी जिले के आयुक्त भीम सिंह बताते हैं, धमतरी में 29 फीसदी आदिवासी बच्चे कुपोषित हैं। अतिकुपोषित बच्चों को सप्ताह में एक दफा अंडा भी दिया जा रहा है। आंगनवाडिय़ों में एक की जगह दो दफा खाना कर दिया गया है। लेकिन धमतरी में नक्सलियों का इतना प्रभाव नहीं है। पास के ही जिले कांकेर में, जो कि नक्सल प्रभावित है, 33 फीसदी बच्चे कुपोषण प्रभावित हैं। मुश्किल यह है कि जो बच्चे कुपोषण से बाहर आ जाते हैं उनकी स्थिति बरकरार रखना मुश्किल है। जरा से बीमार या दस्त लगे नहीं कि वे दोबारा कुपोषण के शिकार हो जाते हैं। इसके लिए सरकार ने सुपोषण दूत बनाए हैं जो स्वयंसेवी हैं।

 

आदिवासियों में कुपोषण की वजह

हम अगर कारणों की बात करें तो नगरी के एसडीएम संदीप अग्रवाल बताते हैं कि बेशक ये आदिवासी अपनी सब्जी -भाजी सब खाते हैं लेकिन इनके खाने में दाल, दूध और दूध से बनी चीजें शामिल नहीं हैं। ये लोग बच्चों को एक दफा सुबह खिलाते हैं, खेत जाने के बाद फिर शाम को खिलाते हैं। जबकि कुपोषण के शिकार बच्चों को समय-समय पर खिलाना जरूरी होता है। गौर करने लायक बात यह भी है कि कुपोषण दूर करने की सारी योजनाएं आंगनवाड़ी पर आधारित हैं। जबकि प्रदेश की छोटी-बड़ी मिलाकर 47,000 आंगनवाड़ियों में सिर्फ 10 फीसदी में बिजली है। आंगनवाड़ी कार्यकर्ता का काम इतना बढ़ा दिया गया है लेकिन पिछले कई सालों से उसे 4,000 रुपये मासिक मानदेय ही मिल रहा है। इन 47,000 आंगनवाडिय़ों में 3 से 6 साल के 21 लाख बच्चे जाते हैं।

 

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