दर्द हद से बढ़ जाए तो दवा बन जाता है...यह कहावत मानो वादी में साकार होती दिख रही है। पहलगाम की बैसरन वादी के जन्नत-सी शांति, सुकून और प्राकृतिक सौंदर्य की फिजा में पहली बार अचानक मंगलवार 22 अप्रैल की भरी दोपहरी निहत्थों का खून बहा, तो समूची कश्मीर घाटी जैसे दहल उठी। सब दूर लोग तौबा, तौबा कह उठे। दक्षिण से उत्तर, अनंतनाग से कुपवाड़ा, श्रीनगर से बडगाम तक हर जगह लोग सड़कों पर उतर आए। विरोध प्रदर्शन, कैंडल मार्च, इंसानियत के दुश्मनों को सबक सिखाने के नारे, हाथों में दहशतगर्दी से तौबा लिखी तख्तियां। स्कूल, दुकानें, कारोबारी इदारे बंद हो गए। सड़कों पर सन्नाटा पसर गया। हर जबान पर सबक सिखाने की मांग गूंज उठी। अगली सुबह अखबारों के पहले पन्ने पर काला बॉर्डर था और संपादकीय तथा सुर्खियां में “जवाबदेही” की मांग। मस्जिदों से ‘‘इंसानियत के कत्ल’’ की आवाजें उठीं। अगले जुमा की नमाज से पहले श्रीनगर के हजरतबल की ऐतिहासिक जामा मस्जिद में दो मिनट का मौन रखा गया। मीरवाइज उमर फारूक ने तकरीर में कहा, “यह दहशतगर्दी है, मासूमों का, इंसानियत का कत्ल है, इसका कोई औचित्य नहीं ठहराया जा सकता।” लगभग हर रंग-पांत की राजनैतिक पार्टी, संगठन, समूह के नेता ने निंदा की। 28 अप्रैल को विधानसभा का विशेष सत्र बुलाया गया और सर्वसम्मति से मृतकों के सम्मान और दहशतगर्दी के खिलाफ प्रस्ताव पारित किया गया।
अपनी चिंताएंः दिल्ली में 3 मई को प्रधानमंत्री मोदी से मिले मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला (बाएं)
अस्सी के दशक के आखिर (ठीक-ठीक 1988 या 1987 के चुनावों में भारी धांधली की शिकायतों के बाद) और नब्बे के दशक से आतंकवाद और खासकर पाकिस्तान की शह पर अलगाववाद के दौर के तकरीबन 35 वर्षों में पहली बार घाटी में किसी आतंकी वारदात के खिलाफ एक स्वर में खुलकर ऐसी नाराजगी का इजहार देखा गया। इस तरह वादी के अवाम ने समूचे देश को संदेश दिया कि ‘‘यह गम हमारा साझा है, हमसे इन दहशतगर्दों का कोई वास्ता नहीं,’’ और सीमा पार पड़ोसी को भी कि ‘‘हमारे नाम पर यह खून बहाना बंद करो, हम तुम्हारे नहीं।’’ अतिथि-सत्कार के लिए जाने जाने वाले कश्मीरी लोगों के लिए यह कत्लेआम भयावह था। आखिर बड़ी संख्या में वहां लोगों की रोजी-रोटी और राज्य की अर्थव्यवस्था भी सैलानियों-सैर-सपाटा के लिए आने वाले लोगों की आमद पर निर्भर रहती है। लेकिन इस कत्लेआम से कहीं कोई नस इससे ज्यादा भी धधक उठी है।
विधानसभा के विशेष सत्र में मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला के ये शब्द उसी का इजहार करत लगते हैं, ‘‘बेशक, आज के सिस्टम में सुरक्षा और पुलिस राज्य सरकार के जिम्मे नहीं है, लेकिन बतौर वजीरे आला और टूरिज्म मंत्री मैंने उनको (पर्यटकों को) बुलावा भेजा था। मैं उन्हें बाखैरियत वापस नहीं भेज सका। अब किस मुंह से माफी मांगूं। उन बच्चों को क्या कहूं, जिनके पिता नहीं रहे। उस लड़की को क्या कहूं, जिसकी चंद दिनों पहले शादी हुई थी और विधवा हो गई।’’ वे दहशतगर्दी के खिलाफ उस धधकती नब्ज पर हाथ रखते हैं, ‘‘हम यहां बैठे आधे से काफी ज्यादा लोग जख्म झेल चुके हैं। किसी के खुद पर हमला हुआ तो किसी के परिजन, रिश्तेदार नहीं रहे। अब इंतहा हो गई है।’’
नई परेशानीः 20 दिन के नवजात के साथ पाकिस्तानी मां
जामा मस्जिद में मीरवाइज उमर फारूक ने अपनी तकरीर में कहा, ‘‘इस भीषण वारदात ने जो गहरा दर्द और आक्रोश पैदा किया है, वह सभी सियासी लामबंदियों और लेबलों से परे है। खुद दहशतगर्दी का शिकार होने के नाते, मैं हमेशा इंसानियत और बेकसूर लोगों को निशाना बनाने वाली हिंसा के खिलाफ खड़ा रहा हूं।’’ वे 1990 के दशक में अज्ञात हमलावरों के हाथों अपने पिता मीरवाइज मोहम्मद फारूक की हत्या का जिक्र कर रहे थे। पहली बार शायद इस वारदात ने वह गांठ खोल दी, जिसके साए में खौफ जिंदा था। वह खौफ फना हुआ तो तमाम सियासी गोलबंदियों और मुख्यधारा की पार्टियों के नेताओं के दर्द एक स्वर में उभर आए। नेशनल कॉन्फ्रेंस (एनसी) के मुख्य प्रवक्ता तनवीर सादिक ने इसे ‘‘इंसानियत पर हमला’’ बताया। उन्होंने हिंसा के खिलाफ राष्ट्रीय एकता पर जोर दिया। उन्होंने कहा, ‘‘हम देश और उन परिवारों के साथ खड़े हैं जिन्होंने अपने प्रियजनों को खो दिया है।’’
सादिक और उनकी पार्टी के परिवहन मंत्री सतीश शर्मा श्रीनगर में लाल चौक के दुकानदारों और आम लोगों के डल झील तक कैंडल मार्च में शामिल हुए। नेशनल कॉन्फ्रेंस ने अलग से मुख्यमंत्री के राजनैतिक सलाहकार नासिर असलम वानी के नेतृत्व में लाल चौक में जुलूस निकाला और सभा की। पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (पीडीपी) की अध्यक्ष महबूबा मुफ्ती ने भी अपनी पार्टी के वरिष्ठ नेताओं के साथ लाल चौक तक मार्च की अगुआई की, जिसमें एक तख्ती पर लिखा था: ‘‘यह हम सब पर हमला है।’’
डल झील पर और सड़क पर कारीगरों, बुनकरों, शॉल निर्माताओं, लकड़ी पर नक्काशी करने वालों, पेपर-मैशे कलाकारों, शिकारेवालों और हाउसबोट वालों ने कैंडल मार्च निकाला। ये सभी सीधे पर्यटन उद्योग से जुड़े हैं। ऐसे ही एक और कैंडल मार्च में शामिल श्रीनगर के जदीबल के पच्चीस वर्षीय शेख हारून कहते हैं, ‘‘हम उन परिवारों के साथ एकजुटता और हमदर्दी जताने के लिए जुटे हैं, जिन्होंने अपने प्रियजनों को खो दिया है। हमारे पास इस सदमे के लिए लफ्ज नहीं हैं। दहशतगर्दों को ढूंढ़कर खुलेआम फांसी पर लटका देना चाहिए।’’
इलेक्ट्रॉनिक्स कारोबारी सज्जाद अहमद कहते हैं, ‘‘कुरान कहता है कि किसी बेकसूर को मारना इंसानियत को मारने जैसा है। सैलानी हमारे मेहमान हैं; हमारे रहते ऐसा नहीं होना चाहिए था। इससे हम सभी शर्मिंदा हैं।’’ गुजरात में अहमदाबाद के एक टूर ऑपरेटर अजय मोदी भी एक ऐसे ही जलसे में शामिल थे। उन्होंने उम्मीद जताई कि देश के बाकी हिस्सों के लोग देख सकेंगे कि “कश्मीर से इस हत्याकांड पर कैसी आवाज उठी है।” ऐसे ही जुलूस, कैंडल मार्च पहलगाम से लेकर बारामुला तक हर छोटे-बड़े कस्बे में लोगों की हिंसा के खिलाफ जज्बे की गवाही दे रहे थे।
सीमा पार करते पाकिस्तानी नागरिक
कश्मीर में लोग पहलगाम और आसपास के लोगों की “बहादुरी और इंसानियत के जज्बे” को सलाम कर रहे हैं, जो अपनी जान की बाजी लगाकर फौरन बचाव और राहत में जुट गए। सबसे पहले हरकत में आने वाले कुली और पोनी-टट्टू वाले थे। पोनी वालों के संघ के अध्यक्ष तीस वर्षीय सैयद आदिल हुसैन शाह तो ‘‘इंसानियत और मेहमाननवाजी’’ के नए नायक की तरह देखे जा रहे हैं, जो एक आतंकवादी से बंदूक छीनने की कोशिश में जान बैठे।
वरिष्ठ पत्रकार अरुण जोशी कहते हैं, “मैंने 1988 में कश्मीर को कवर करना शुरू किया था, तबसे आज तक कभी भी ऐसा अचानक बंद और पीडि़तों के साथ हमदर्दी जताने लोगों को सड़कों पर उतरते नहीं देखा। कश्मीर ने पूरे देश को संदेश दिया कि कश्मीर इंसानियत और अपने मेहमानों के प्रति हमारे प्यार का प्रतीक है। यह भी कि हम अपने मेहमानों के लिए अपनी जान कुर्बान कर सकते हैं और यही आदिल शाह ने किया है। उन्होंने पर्यटकों को बचाने की कोशिश में खुद को कुर्बान कर दिया।’’
सियासी पेशबंदी
घाटी के मुख्यधारा के सियासी दलों ने इस मौके पर लगभग एक स्वर में केंद्र से अपनी शिकायतों को भी मुल्तवी कर दिया। यहां तक कि शुरू में सुरक्षा और खुफिया चूक का मामला भी नहीं उठाया गया। बैसरन घाटी में हमले के दिन न एक भी सिपाही की मौजूदगी थी, न कोई गश्ती टुकड़ी। सुरक्षाकर्मियों को वहां पहुंचने में डेढ़-दो घंटे लग गए। दिल्ली में सर्वदलीय बैठक में गृह मंत्रालय के अधिकारियों ने बताया था कि पुलिस की बिना इजाजत के बैसरन घाटी खोल दी गई थी। लेकिन बाद में स्थानीय प्रशासन से पता चला कि वह तो बेहद सर्दी के महीनों को छोड़कर पूरे साल खुली ही रहती है (विस्तृत जानकारी के लिए देखें साथ की रिपोर्ट)। लेकिन उमर अब्दुल्ला ने विशेष सत्र में कहा, ‘‘मैं इस मौके पर न सुरक्षा की जिम्मेदारी की बात करूंगा, न राज्य के दर्जे की मांग करूंगा। मैं पहलगाम आतंकी कत्लेआम का इस्तेमाल करके राज्य का दर्जा कैसे मांग सकता हूं?’’
एनसी प्रवक्ता सादिक ने कहा, “वह वक्त आएगा जब सियासत की बात होगी। आज वह दिन नहीं है। हम उन लोगों के साथ खड़े होना चाहते हैं जिन्होंने अपने प्रियजनों को खो दिया है।” पीडीपी के एक वरिष्ठ नेता कहते हैं, ‘‘ये दुखद हालात हैं। हम सभी बचाव की मुद्रा में हैं और नहीं चाहते कि हम इसका सियासी फायदा उठाते नजर आएं।’’
इसके बदले निशाने पर पाकिस्तान था। मुख्यमंत्री ने पहलगाम आतंकी हमले की “तटस्थ” जांच की बात पर कहा, “पहले तो उन्होंने यह भी नहीं पहचाना कि पहलगाम में कुछ हुआ। पहले उन्होंने कहा कि इसके पीछे भारत का हाथ है। जिन लोगों ने पहले हमारे खिलाफ आरोप लगाए, उनके लिए अब इस बारे में कुछ भी कहना मुश्किल है। मैं उनके बयानों को ज्यादा अहमियत नहीं देना चाहता।”
महबूबा मुफ्ती, पीडीपी की अध्यक्ष
अलबत्ता, सियासी नेताओं ने यह जरूर कहा कि “कश्मीरियों के साथ दुश्मनों जैसा व्यवहार नहीं किया जाना चाहिए।” महबूबा मुफ्ती ने कहा, ‘‘कश्मीर ऐसी जगह है, जिसे हर कोई प्यार करता है और यहां बार-बार वापस आना चाहता है। दिल्ली या देश के बाकी हिस्सों में मेरी बात सुनने वाले लोगों से मैं कहना चाहती हूं कि पहली बार कश्मीरियों ने खुलकर अपना पक्ष रखा है और दिल्ली को भी इसी तरह पेश आना चाहिए। जहां तक सुरक्षा का सवाल है, आप उससे निपटए, लेकिन आपको उन कश्मीरियों के लिए अलग रवैया अपनाने की जरूरत है जो इस मोड़ पर आपके साथ खड़े हैं।’’
हालांकि, केंद्रीय एजेंसियों की आतंकवाद से जुड़े होने के आरोप में घरों को ढहाने और लंबे समय से शादी-ब्याह में यहां घर बसा चुके कथित पाकिस्तानी नागरिकों को वापस भेजने की कार्रवाई के बढ़ते विरोध की वजह से कश्मीरी नेता दुविधा में हैं। रिपोर्ट लिखे जाने तक सुरक्षा बलों की कार्रवाई में विस्फोटकों के जरिए करीब 10 मकान ढहाए जा चुके हैं। इन कार्रवाइयों में आसपास के कई अन्य घरों को नुकसान पहुंचाया है। रिपोर्टों से पता चलता है कि पहलगाम के लगभग 200 लोगों सहित 1,500 से अधिक लोगों को गिरफ्तार किया गया है।
मुख्यमंत्री ने अपील की कि “बेकसूर लोगों को नुकसान न पहुंचाया जाए।” महबूबा मुफ्ती ने कहा कि केंद्र को सावधानी से काम करना चाहिए और दहशतगर्दों और आम लोगों के बीच फर्क करना चाहिए।
सज्जाद लोन की पीपुल्स कॉन्फ्रेंस ने इस मुद्दे को लेकर अदालत का रुख किया है। लोन ने माइक्रोब्लॉगिंग साइट एक्स पर एक पोस्ट में घाटी में बड़े पैमाने पर दहशतगर्दी के खिलाफ लोगों के सड़क पर उतरने को “पिछले 78 वर्षों में विरली घटना” कहा और केंद्र से मांग की कि लोगों को “सामूहिक दंड” न दिया जाए। लोन ने लिखा, ‘‘मुझे उम्मीद है कि केंद्र के नेता समझेंगे कि पहलगाम में हुए जघन्य कत्लेआम के बाद क्या हासिल हुआ है, ताकि ये बहुमूल्य उपलब्धियां बरबाद नहीं हों।’’
खैर, 2025 का मंजर कितना अलग है, इसका गहरा एहसास जरूरी है। 22 अप्रैल की शाम घिरने के पहले ही कुछ ही घंटों में समूची कश्मीर घाटी खामोश हो गई। लोग स्तब्ध थे। जैसे-जैसे पर्यटक सामान पैक करके पहली फ्लाइट या ट्रेन की तलाश में निकल पड़े, घाटी में धीरे-धीरे कुछ बदल रहा था। 26 लोगों की जान लेने वाले आतंकी हमले ने लोगों को एक मंच पर ला खड़ा किया। आम लोग और सभी धड़ेबंदियों के नेता एक आवाज में बोलने लगे। इसके लिए किसी राजनैतिक या सामाजिक संगठन को आह्वान नहीं करना पड़ा।
सरोकारः आतंकी हमले का विरोध करते मीरवाइज
अब जरा इसके उलट 2016 का वह मंजर याद कीजिए, जब जुलाई में 22 वर्षीय आतंकवादी नेता बुरहान वानी अनंतनाग के कुकरनाग में सुरक्षा बलों के साथ गोलीबारी में मारा गया था। हजारों लोग वानी के गृहनगर त्राल में उसके जनाजे की नमाज में हिस्सा लेने जुट आए थे। भारी भीड़ के कारण नमाज कई बार अता करनी पड़ी। यही नहीं, दक्षिण, मध्य और उत्तरी कश्मीर में जगह-जगह जनाजे की नमाज पढ़ी गई। वानी की मौत की खबर से पूरी घाटी में प्रदर्शनों का सिलसिला शुरू हो गया था। कथित तौर पर सुरक्षा बलों के कई ठिकानों पर हमले हुए, पत्थरबाजी हुई और झड़पों में प्रदर्शनकारी जख्मी हुए। कई लोग, खासकर नौजवान छर्रो से गंभीर घायल हुए, कई की आंखों की रोशनी चली गई। श्रीनगर, पुलवामा, अनंतनाग, शोपियां, सोपोर, कुपवाड़ा और कुलगाम में कर्फ्यू लगा। कुछ ऐसा ही माहौल 5 अगस्त 2019 में अनुच्छेद 370 और 35ए के हटाए जाने के बाद था, जब महीनों तक कर्फ्यू जैसा माहौल कायम रहा और सियासी नेताओं की गिरफ्तारी हुई थी।
विशेष दर्जे हटाने और राज्य का दर्जा घटाने की दुखती रग कायम है, मगर इस मौके पर मुल्तवी हो गई लगती है। 2024 में एनसी ने विधानसभा में “विशेष दर्जा और राज्य की बहाली पर सतर्क संकल्प” पेश कर चुकी है। उस दौरान भी पीडीपी जैसे दलों ने उमर अब्दुल्ला सरकार की प्रस्ताव में “अनुच्छेद 370, 35ए जैसे शब्दों से बचने” के लिए आलोचना की थी। उन दलों ने नए वक्फ संशोधन पर कड़ा रुख न अपनाने के लिए एनसी की भी आलोचना की थी। एक नेता कहते हैं, “अनुच्छेद 370, वक्फ विधेयक जो नहीं कर सके, वह कत्लेआम ने कर दिया है।” यानी सियासी एका।
पहलगाम हमले के अगले दिन श्रीनगर में केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने सुरक्षा बैठक में मुख्यमंत्री या राज्य सरकार के किसी मंत्री को बुलाना जरूरी नहीं समझा, क्योंकि निर्वाचित सरकार की उसमें कोई भूमिका नहीं है। अलबत्ता, 3 मई को दिल्ली में मुख्यमंत्री उमर की भेंट प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से हुई। उमर ने प्रधानमंत्री से क्या चिंताएं जाहिर कीं, यह जानकारी सार्वजनिक नहीं हुई।
उधर, केंद्र पाकिस्तान के खिलाफ सिंधु नदी जल संधि को मुलत्वी करने, पाकिस्तान से व्यापारिक रिश्ते तोड़ने, पाकिस्तानी नागरिकों का वीजा खत्म करने और राजनयिक रिश्तों को घटाने के अपने कदम को और कड़ा कर चुका है। पाकिस्तान भी जवाबी कार्रवाई में शिमला समझौते पर विराम लगा चुका है। लेकिन 3 मई को पाकिस्तान के बैलेस्टिक मिसाइल के परीक्षण के बाद भारत ने चिनाब नदी पर बगलिहार बांध का फाटक बंद कर दिया है, जो सिंधु नदी प्रणाली की अहम हिस्सा है। इन उपायों और संधियों-समझौतों को मुल्तवी करने के अपने मायने हैं और इन पर बहुत चर्चा भी हो चुकी हैं (देखें, साथ की रिपोर्टें, संधियों का ब्यौरा और नजरिया)। दिल्ली में सुरक्षा मामलों की कैबिनेट समिति के साथ सेनाध्यक्षों की बैठक भी हो चुकी है। फिर, 4 मई को नौसेना और वायु सेना प्रमुखों की प्रधानमंत्री निवास में बैठक भी हुई। इसके अलावा नियंत्रण रेखा पर तनाव भी तारी हो रहा है। नियंत्रण रेखा पर गोलीबारी की भी खबरें हैं। लेकिन युद्ध शायद इस पर भी निर्भर करता है कि अंतरराष्ट्रीय परिस्थितियां क्या हैं।
फिलहाल ज्यादातर देशों ने भारत के साथ एकजुटता दिखाई है और संयुक्त राष्ट्र में आतंकवाद के खिलाफ नया प्रस्ताव भी पारित किया है। अमेरिका के उप-राष्ट्रपति जे.डी. वेंस ने, जिनके भारत दौरे के दौरान यह हमला हुआ, भारत को जवाबी कार्रवाई के हक को स्वीकार किया है, लेकिन राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने बस इतना कहा कि ‘‘दोनों देश सुलझा लेंगे, यह हजारों वर्षों से चल रहा है।’’
हालांकि हमले के एक दिन बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी बिहार की एक सभा में ऐलान कर चुके हैं कि दोषियों को बख्शा नहीं जाएगा। इससे पूरे देश में एक तरह का बदले का माहौल है। लेकिन अब ये सवाल भी उठने लगे हैं कि लगभग दो हफ्ते बाद भी वे चार-पांच आतंकी नहीं पकड़े जा सके, जो फौजी वर्दी में आए और कत्लेआम करके निकल गए। हालांकि सेना और राष्ट्रीय जांच एजेंसी (एनआइए) की जांच जारी है।
बहरहाल, दो दशकों बाद आम लोगों, खासकर सैलानियों के इस कत्लेआम से कश्मीर में आया बदलाव सबसे अहम है, जिसे संजोने की दरकार है। देश में उन कट्टरवादियों से भी सावधान रहने की दरकार हो सकती है, जो इसकी आड़ में सांप्रदायिक चिंगारी को भड़काने की कोशिश कर रहे हैं। ऐसी खबरें कई जगहों से आईं कि कश्मीरी छात्रों और व्यापारियों को कुछ तत्व परेशान कर रहे हैं। इससे बचने की दरकार है, क्योंकि तभी देश दहशतगर्दी और पाकिस्तान को भी सबक सिखाने की दिशा में दृढ़ संकल्प के साथ आगे बढ़ पाएगा।