अखिलेश यादव ने 15 मार्च 2012 को मुख्यमंत्री पद की शपथ ली थी। उन्होंने कई योजनाएं शुरू की हैं। गरीबों के लिए समाजवादी पेंशन योजना और राम मनोहर लोहिया आवास योजना, युवाओं को ध्यान में रखकर लैपटॉप वितरण योजना, बेरोजगारी भत्ता जैसी योजनाएं शुरू की गईं। किसानों के लिए कामधेनु योजना का खासा असर दिखा। इनके अलावा ऊर्जा के क्षेत्र में काफी काम हुआ है। अखिलेश यादव की दखल से ही लखनऊ मेट्रो के निर्माण में तेजी से काम हो रहा है। कानपुर और वाराणसी जैसे कई अन्य जिलों में भी मेट्रो शुरू करने की योजना है। आगरा-लखनऊ एक्सप्रेस-वे को लेकर भी काफी तेजी से काम हो रहा है। यह योजना भी अखिलेश के ड्रीम प्रोजेक्ट में शामिल है। कई ऐसी योजनाएं हैं, जिनसे समाजवादी पार्टी की सरकार को बहुमत से सत्ता में आने में मदद मिली थी। उनमें से कई योजनाएं या तो बंद कर दी गई हैं या फिर उनका बजट कम कर दिया गया है। अल्पसंख्यकों के लिए पिछले वित्त वर्ष में विभाग को 2,283.73 करोड़ का बजट दिया गया था लेकिन इसमें से सिर्फ 57.2 फीसदी स्वीकृतियां ही जारी की गईं। अब तक सिर्फ 15.1 फीसदी धन ही विभाग खर्च कर पाया है। पिछड़ा वर्ग कल्याण विभाग भी बजट की धनराशि खर्च करने में पीछे है। वह भी तब, जब इस विभाग को 98 प्रतिशत धनराशि मंजूर हो चुकी है। विभाग को 1197.59 करोड़ का बजट मिला था जिसमें से सिर्फ 407.37 करोड़ रुपये ही खर्च हो पाए हैं। महिला कल्याण विभाग में सिर्फ 38.7 प्रतिशत ही खर्च हुआ। अखिलेश यादव ने पिछले वित्त वर्ष का बजट जारी करते समय ही उस वर्ष को किसान वर्ष घोषित किया था। इसके बावजूद किसानों की हालत बदतर होती गई। विभाग ने राज्य के कृषि विकास के लिए आवंटित धनराशि में से सिर्फ 46 प्रतिशत ही खर्च किया है। सरकार ने सूखा प्रभावित जिलों में प्रभावी कदम उठाने में देरी की। पारंपरिक रूप से पिछड़े बुंदलेखंड क्षेत्र की स्थिति बदतर हो गई। वहां से किसानों की आत्महत्या की खबरें आ रही हैं। पश्चिमी उत्तर प्रदेश के गन्ना उत्पादक किसान भी परेशान हैं। गन्ने के दाम पिछले कई वर्षों से नहीं बढ़ाए गए हैं, जिससे किसानों की नाराजगी बढ़ी है।
अखिलेश सरकार ने दसवीं उत्तीर्ण छात्रों को टैबलेट देने का वायदा कर उन किशोरों को अपनी तरफ आकर्षित किया था, जो उस समय वोटर नहीं थे। अब वे सब मतदाता बन चुके हैं लेकिन उन्हें न तो टैबलेट मिला और न ही लैपटॉप। शुरू के दो वर्षों में सरकार ने बजट में टैबलेट की व्यवस्था की थी लेकिन बाद में चुप्पी है। जब 2014 में मतदाताओं ने भाजपा के 73 सांसद चुन दिए तो सरकार ने लैपटॉप वितरण पर नियंत्रण लगाना शुरू कर दिया। बेरोजगारों के साथ भी सरकार ने छल किया। पहले घोषणा की थी कि सरकारी भर्ती की उम्र 35 साल होगी और इसके बाद नौकरी पाने वाले बेरोजगारों को एक हजार रुपये महीने भत्ता मिलेगा। सरकार ने साल भर तक भत्ता दिया। फिर सरकारी नौकरी की उम्र सीमा 40 करके भत्ता देना बंद कर दिया। इसी तरह से कन्या विद्याधन योजना भी एक साल चलाने के बाद सीमित कर दी गई। बीपीएल महिलाओं को दो-दो साड़ियां और बुजुर्गों को एक-एक कंबल देने का वायदा था। बजट में प्रावधान भी किया लेकिन आज तक किसी को न साड़ी मिली और न कंबल।
घोषणा की गई थी कि दो फसल देने वाली जमीन का अधिग्रहण किया गया, तो छह गुना मुआवजे के साथ एक युवक को नौकरी और बुजुर्ग को पेंशन दी जाएगी जो प्रस्तावित नीति तैयार की गई है, उसमें छह गुना मुआवजा का प्रावधान ही नहीं है। किसानों की उपज की लागत तय करने के लिए किसान आयोग बनाने का वायदा था। उपज पर लागत में 50 प्रतिशत जोडक़र समर्थन मूल्य निर्धारित करने और उसी दर पर खरीदे जाने का वायदा था। किसान आयोग को तीन महीने के भीतर अपनी रिपोर्ट देनी थी लेकिन अभी तक आयोग ही गठित नहीं हुआ। मुसलमानों को सच्चर कमेटी की रिपोर्ट के आधार पर दलितों की तरह अलग से आरक्षण देने के वादे पर भी सरकार मौन है। जेलों में बंद बेगुनाह मुसलमानों को भी रिहा करने पर खामोश रही। दसवीं उत्तीर्ण मुस्लिम बालिकाओं को आगे की पढ़ाई या विवाह के लिए तीस हजार रुपये का अनुदान देने की घोषणा की थी, लेकिन दो साल बाद योजना बंद कर दी गई।
व्यापारियों में भी असंतोष है। जिन वस्तुओं पर व्यापार-कर की दरें हरियाणा, दिल्ली, बिहार और मध्य प्रदेश से ज्यादा हैं, उन दरों को समान करने का वायदा भी अखिलेश यादव की सरकार भूल गई। कानून-व्यवस्था के मुद्दे पर सरकार लगातार फ्लॉप हो रही है। हालांकि कानून-व्यवस्था के मामले अखिलेश खुद देख रहे हैं। मायावती शासनकाल में हुए भ्रष्टाचार के खिलाफ आयोग गठित करने, दोषी मंत्रियों-अफसरों को जेल भेजने और मायावती द्वारा बनाए स्मारकों में अस्पताल व स्कूल खोलने व मूर्तियां हटाने की घोषणा पर काम नहीं हुआ है। विपक्षी दल लगातार सरकार को घेरने का काम कर रहे हैं। विरोधियों की बातों को नजरअंदाज करते हुए समाजवादी पार्टी के प्रवञ्चता और प्रदेश सरकार में मंत्री राजेंद्र चौधरी कहते हैं कि प्रदेश में सपा की सरकार बनते ही लोकतंत्र की स्थापना हुई। मुक्रत पढ़ाई, सिंचाई और दवाई की व्यवस्था हुई। नौजवानों, पिछड़ों और अल्पसंख्यकों के लिए नौकरी तथा शिक्षा का अवसर मिला। चौधरी राज्य सरकार की उपलब्धियां गिनाते हुए कहते हैं कि राजधानी लखनऊ में कैंसर अस्पताल, मेट्रो रेल, अंतरराष्ट्रीय स्टेडियम तथा आईटी हब पर तेजी से काम चल रहा है। आगरा-लखनऊ एक्सप्रेस वे और पूर्वांचल एक्सप्रेस वे जैसी योजनाएं बनी हैं। बिजली उत्पादन बढ़ा है। सड़कों के साथ पुल निर्माण कार्य भी तेजी से चल रहा है। तमाम उद्योग धंधे लगाने में देशी विदेशी उद्यमी रुचि ले रहे हैं। विकास के पैमाने पर अखिलेश सरकार लगातार काम कर रही है और मुख्यमंत्री को उम्मीद है कि अगले एक साल में जो काम अधूरे रह गए हैं, उन्हें पूरा कर पाएंगे।
लेकिन जानकार बताते हैं कि अब समय कम है। चुनावी साल में बहुत सारे वादे नहीं पूरे किए जा सकते। क्याेंकि तीन चार महीने पहले ही चुनाव की भूमिका बनने लगती है, आचार संहित लग जाती है। ऐसे में अब केवल सात-आठ महीने ही बचे हैं जिनमें काम किया जा सकता है। दूसरा संकट प्रदेश सरकार के सामने यह रहा है कि कई फैसलों पर कोई न कोई याचिका दायर हो जाती है जिसकी वजह से काम में देरी होती है। इसलिए कई फैसलों पर मुहर लगाने से पहले सोच-विचार करना होगा। प्रदेश सरकार विधान परिषद के मनोनीत सदस्यों की सूची अभी पूरी नहीं कर पाई है। इसके अलावा कई फैसले राज्यपाल के यहां विचाराधीन हैं जिन्हें पूरा करवा पाना भी चुनौती है।
राजनीतिक तौर पर भी अखिलेश के सामने बड़ी चुनौती है। एक तरफ जहां बहुजन समाज पार्टी की सुप्रीमो मायावती 2012 में खोई हुई सîाा को दुबारा हासिल करने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगा देंगी, वहीं भारतीय जनता पार्टी भी यूपी में मोदी के नाम को भुनाने की पुरजोर कोशिशें करेंगी। अखिलेश यादव के सामने सबसे बड़ी चुनौती अपने वोट बैंक को संभाले रखने की तो है ही, उन्हें उन वोटों की भी चिंता करनी पड़ेगी जो मायावती के खिलाफ सत्ताविरोधी लहर के रूप में समाजवादी पार्टी के खाते में चले आए थे। समाजवादी पार्टी भले ही अल्पसंख्यकों को अपने साथ मानती हो और भाजपा को सांप्रदायिक पार्टी बताती रही हो, लेकिन वह अभी तक मोदी सरकार के खिलाफ कोई मुद्दा बनाने में असफल रही है। मुजफ्फरनगर के 13 दिन तक हुए दंगों में जिस तरह हजारों लोग प्रभावित हुए, उसमें भी सपा सरकार यह समझा पाने में असफल रही वह मुस्लिमों की हितचिंतक है। अखिलेश सरकार को इस साल यह साबित करना होगा कि उनकी सरकार में अल्पसंख्यक महफूज हैं।
इसके अलावा आम लोगों की भी अलग तरह की शिकायतें हैं। इलाहाबाद के अरुण पाठक कहते हैं कि आगरा के पेठे और इलाहाबाद के अमरूदों का कोई विज्ञापन नहीं होता है। उसी तरह प्रदेश में भले ही अखिलेश की सरकार चल रही हो, लेकिन हर कोई कहता है कि मुलायम की सरकार है। गांव के आदमी का भी वही जवाब होता है कि चाहे अखिलेश की कहो, चाहे शिवपाल की, चाहे रामगोपाल की या फिर आजम खां की....बात एकै है कि सरकार मुलायम की है....। अखिलेश यादव खुद कई बार कह चुके हैं - उनके बारे में लोग नहीं जानते हैं कि प्रदेश का मुख्यमंत्री कौन है। दरअसल, मुलायम सिंह की जड़ें इतनी गहरी हैं कि अपने नाम को स्थापित कर पाना अखिलेश यादव के लिए आसान काम नहीं हो रहा लेकिन अखिलेश यादव ने हाल के दिनों में अपनी युवा टीम को लेकर जो फैसला लिया है उससे युवाओं में उत्साह नजर आया है। भारतीय जनता पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष डॉ. लक्ष्मीकांत वाजपेयी कहते हैं कि सरकार के पास अपने किसी भी वायदे को पूरा करने का कोई समय ही नहीं बचा है। विधान सभा में विपक्ष के नेता स्वामी प्रसाद मौर्या का मानना है कि लुटने के बाद होश में आने का भी वक्त नहीं बचा है अखिलेश सरकार के पास। मौर्या का कहना है कि अगर सरकार के पास बसपा कार्यकाल के भ्रष्टाचार के खिलाफ कुछ भी प्रमाण होता तो सरकार उन्हें छोड़ने वाली नहीं थी। सरकार ने जनता को ठगने के लिए बसपा पर भ्रष्टाचार के आरोप लगाए थे। जो भी आरोप-प्रत्यारोप का दौर तो अब चलता रहेगा और चुनावी साल में किस तरह योजनाएं परवान चढ़ेंगी, प्रदेश की जनता को क्या फायदा होगा, कानून व्यवस्था पर लगाम कैसे कसेगी इन मुद्दों को लेकर भी अखिलेश यादव को बड़ी चुनौती का सामना करना होगा।
साथ में कुमार पंकज