उच्च न्यायालय ने कहा था कि राज्य को अपने स्थायी नागरिकों की अचल संपत्तियों के संबंध में उनके अधिकार से जुड़े कानूनों को बनाने में पूर्ण संप्रभुता है। न्यायमूर्ति कुरियन जोसेफ और न्यायमूर्ति आरएफ नरीमन की पीठ ने कहा कि जम्मू-कश्मीर को भारतीय संविधान के बाहर और अपने संविधान के तहत रत्ती भर भी संप्रभुता नहीं है। राज्य का संविधान भारत के संविधान के अधीनस्थ है।
पीठ ने कहा कि अतएव, उसके निवासियों का खुद को एक अलग और विशिष्ट वर्ग के रूप में बताना पूरी तरह गलत है। हमें उच्च न्यायालय को यह याद दिलाने की जरूरत है कि जम्मू-कश्मीर के निवासी सबसे पहले भारत के नागरिक हैं। शीर्ष अदालत ने वित्तीय आस्तियां प्रतिभूतिकरण एवं पुनर्गठन तथा प्रतिभूति हित प्रवर्तन अधिनियम, 2002 के प्रावधानों को संसद की विधायी क्षमता के अंतर्गत आने का जिक्र करते हुए कहा कि इन्हें जम्मू-कश्मीर में लागू किया जा सकता है।
पीठ ने जम्मू कश्मीर उच्च न्यायालय के इस फैसले को दरकिनार कर दिया कि राज्य विधानमंडल से बने कानूनों पर असर डालने वाला संसद का कोई कानून जम्मू कश्मीर में लागू नहीं किया जा सकता।
शीर्ष अदालत ने कहा कि उच्च न्यायालय का फैसला ही गलत अंत से प्रारंभ होता है अतएव वह गलत निष्कर्ष पर भी पहुंच जाता है। यह कहता है कि जम्मू-कश्मीर के संविधान में अनुच्छेद पांच के सदंर्भ में राज्य को अपने स्थायी नागरिकों की अचल संपत्तियों के संदर्भ में उनके अधिकारों से जुड़े कानूनों को बनाने का पूर्ण संप्रभु अधिकार है।
पीठ ने कहा कि हम यह भी कह सकते हैं कि जम्मू-कश्मीर के नागरिक भारत के नागरिक हैं और कोई दोहरी नागरिकता नहीं है जैसा कि दुनिया के कुछ अन्य हिस्सों में कुछ अन्य संघीय संविधानों में विचार किया गया है।
शीर्ष अदालत का फैसला उच्च न्यायालय के निर्णय के विरूद्ध भारतीय स्टेट बैंक की अपील पर आया है। उच्च न्यायालय ने कहा था कि वित्तीय आस्तियां प्रतिभूतिकरण एवं पुनर्गठन तथा प्रतिभूति हित प्रवर्तन (एसएआरएफएईएसआई) अधिनियम का जम्मू कश्मीर के संपत्ति हस्तांतरण अधिनियम, 1920 से टकराव होगा। (एजेंसी)