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जम्मू-कश्मीरः दो पाटन के बीच

पीडीपी और भाजपा की सरकार में हितों और वोटबैंक का टकराव शुरू। जम्मू-कश्मीर की नई सरकार बनने के बाद से लगातार खबरों में बनी हुई है। राज्य के मुख्यमंत्री मुफ्ती मुहम्मद सईद अलगाववादी नेता मसर्रत आलम को छोड़ने के बाद क्या तीन और कट्टरपंथी राजनीतिक कैदियों को छोड़ने का साहस जुटाएगी, जिसमें आशिक हुसैन फक्टू का नाम भी शामिल है।
जम्मू-कश्मीरः दो पाटन के बीच

 पिछले 22 सालों से श्रीनगर जेल में बंद फक्टू कश्मीर में जेल में सबसे अधिक समय से बंद राजनीतिक कैदी हैं। भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) और पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (पीडीपी) की साझा सरकार बनने के समय मुख्यमंत्री मुफ्ती मुहम्मद सईद ने खुद कहा था कि यह उत्तरी और दक्षिणी ध्रुव का गठबंधन है। कश्मीर की वादी में रहने वाले लोग हों या फिर जम्मू और लद्दाख के निवासी सब जानते हैं कि इन दो पार्टियों का यह परस्पर गठबंधन नहीं है। इसकी टकराहट बाहर आनी ही थी, लेकिन इतनी जल्दी कश्मीर से लेकर दिल्ली में ससंद तक इसकी गूंज फैल जाएगी, इसका अंदाजा नहीं था। मसर्रत आलम की रिहाई पर जितना भी हंगामा हो रहा है लेकिन हकीकत यह है कि मसर्रत की रिहाई की प्रक्रिया मुफ्ती के मुख्यमंत्री बनने से पहले ही शुरू हो गई थी। यानी जब केंद्र में मोदी सरकार के नेतृत्व वाली राष्ट्रपति शासन चल रहा था। वैसे भी आलम पर 2010 में सेना के खिलाफ फैले आक्रोश के खिलाफ हुए प्रदर्शनों में पथराव का दोषी बताया गया था। हालांकि उन्हें तमाम अदालतों से जमानत मिलती रही लेकिन उन्हें तुरंत ही पब्लिक सेफ्टी कानून के तहत गिरफ्तार कर लिया जाता था। जम्मू-कश्मीर सरकार द्वारा भेजी गई रिपोर्ट के अनुसार फरवरी 2010 से आलम को आठ बार पब्लिक सेफ्टी कानून के तहत पकड़ा गया था। राज्य सरकार ने साफ किया कि आलम फिर से गिरफ्तार करने का कोई आधार नहीं है। हालांकि केंद्र सरकार ने उसे नाक का सवाल बनाते हुए राज्य सरकार से मसर्रत आलम के खिलाफ तमाम मामलों को फिर से खोला जाए।

एक बात साफ है कि मुख्यमंत्री मुफ्ती मुहम्मद सईद इस हंगामे से विचलित नहीं होने जा रहे हैं, क्योंकि वह बहुत सोच समझ के कदम उठा रहे हैं। इसी बीच एक और महत्वपूर्ण घटनाक्रम में कुनन पोशपारा बलात्कार कांड में केंद्र सरकार के समर्थन में जम्मू-कश्मीर की सरकार खड़ी हुई। फरवरी 23, 1991 में कुपवाड़ा जिले के दो गांवों कुनन औऱ पोशपारा में 4 राजपुताना राइफल्स के सिपाहियों ने महिलाओं के साथ सामूहिक बलात्कार किया था। इस पर जम्मू-कश्मीर उच्च न्यायालय ने पीड़ित महिलाओं को दो लाख रुपये का मुआवजा देने का फैसला दिया था। इस फैसले के खिलाफ केंद्र सरकार के साथ राज्य सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में अपील की। इस केस पर लंबी लड़ाई लड़ने वाले संगठन कोलिशन ऑफ सिविल सोसायटी के खुर्रम परवेज ने आउटलुक को बताया कि इससे राज्य की राजनीति साफ होती है। एक तरफ जहां मुफ्ती आजादी के पक्षधरों और राजनीतिक बंदियों की रिहाई पर कदम उठा रहे हैं, वहीं भारतीय सेना द्वारा ढहाए गए जुल्म के खिलाफ खड़े होने को तैयार नहीं हैं। खुर्रम का मानना है कि मुफ्ती मुहम्मद सईद द्वारा ये कदम उठाए जाने बहुत स्वाभाविक हैं। उन्हें अपने वोटबैंक को यह स्पष्ट संकेत देना जरूरी है कि वह अपने एजेंडे से पीछे नहीं हटे हैं। खुर्रम का मानना है कि भाजपा के लिए ये तमाम कदम हैरानी वाले नहीं है। अगर इसे भारतीय मीडिया इतना तूल नहीं देता तो शायद ये बड़ी खबर भी न बनते। पीडीपी के प्रवक्ता नईम अख्तर ने बताया कि पिछली बार भी 2002 में एनडीए की सरकार के समय भी हमने गिलानी, यासीन मलिक और शहबीर शाह को छोड़ा था। इस बार भी हम इंसाफ करना चाहते हैं, ताकि राज्य में अमन रहे।     

आने वाले दिनों में कश्मीर में दोनों पार्टियों के बीच तनाव बढ़ने वाला है। पीडीपी के लिए यह फायदेमंद है। अभी तक उसे कश्मीर में भारत की  पक्षधर पार्टी के तौर पर देखा जाता रहा है, यह छवि तोड़ने के लिए उसे अपने वादे पूरे करने होंगे। दरअसल 2014 में हुए चुनावों ने जम्मू-कश्मीर के बीच ध्रुवीकरण को पूरा कर दिया है। जम्मू में जिस तरह से भाजपा के पक्ष में ध्रुवीकरण हुआ, वैसा कश्मीर घाटी में नहीं हुआ। कश्मीर घाटी में पीडीपी, नेशनल कॉन्फ्रेंस, कांग्रेस सबको वोट पड़ा। मुख्यमंत्री मुफ्ती की कोशिश है कि अब पीडीपी के पक्ष में ध्रुवीकरण हों। यह तभी संभव है जब वह हुर्रियत की जगह ले। उधर भाजपा पहली बार सत्ता में साझेदार हुई है। कश्मीर सरकार के कदमों से भाजपा की राष्ट्रीय छवि पर सीधा असर पड़ रहा है, लिहाजा उसके आक्रामक रुख अख्तियार करना राजनीतिक मजबूरी है। आलम की रिहाई पर संसद में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सफाई को इसी कड़ी में देखा जा सकता है।

 खुरर्म परवेज (मानवाधिकार कार्यकर्ता)

मुफ्ती राजनीतिक बंदियों की रिहाई पर कदम उठा रहे हैं, पर भारतीय सेना के जुल्म के खिलाफ खड़े होने को तैयार नहीं।   

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