जातीय आधार पर जनगणना की तेज होती मांग के बीच जनगणना में आदिवासी धर्म कोड की मांग भी जोर पकड़ रही है। आदिवासियों की आबादी वाले प्रदेशों में अब इसकी मांग तेज होने वाली है। लंबी राजनीति और सड़क पर आंदोलन, प्रदर्शन, मानव चेन निर्माण के बाद झारखंड विधानसभा से पिछले साल ही सरना आदिवासी धर्म कोड के संबंध में सर्वसम्मत प्रस्ताव पारित किया जा चुका है। जनजातीय समाज से आने वाले झारखंड के मुख्यमंत्री हेमन्त सोरेन ने भी इसे एजेंडे में शामिल कर रखा है। उन्होंने ऐसी चाल चली कि भीतर से असहमति के बावजूद भाजपा को विधानसभा में आम सहमति जाहिर करनी पड़ी। हालांकि आरएसएस आदिवासियों को हिंदू मानती रही है। इसके लिए उसने जागरण अभियान भी चलाया। इसके बावजूद संघ के विचारधारा से इतर झारखंड विधानसभा में भाजपा को आदिवासियों के लिए अलग धर्म कोड के पक्ष में मतदान करना पड़ा।
हेमंत सोरेन ने तो नीति आयोग की बैठक और हावर्ड कांफ्रेंस में भी इस मसले को उठाते हुए इसे जरूरी बताया था। कोरोना काल में जनगणना का काम प्रभावित रहने से इसकी मांग की आवाज भी मंद पड़ गई थी। इधर राष्ट्रीय आदिवासी इंडिजिनस धर्म समन्वय समिति ने अपने चिंतन बैठक में नई रणनीति तय की है। राष्ट्रव्यापी आवाज बुलंद करने के लिए पांच सितंकर को असम में राज्यस्तरीय बैठक करने के साथ छह सितंबर को महाराष्ट्र, 19 सितंबर को भोपाल, 22 दिसंबर को कोलकाता, 24 सितंबर को रांची, 26 सितंबर को रायपुर और दो अक्टूबर को गुजरात के गांधी नगर में बैठक कर अपनी-अपनी सरकारों पर दबाव बनाने, गोलबंदी की रणनीति तय करने का निर्णय किया है। चिंतन बैठक में झारखंड से पूर्व मंत्री देवकुमार धान, पूर्व मंत्री गीता उरांव, जयपाल सिंह सरदार जैसे लोग शामिल थे।
समन्वय समिति ने केंद्र सरकार से दिल्ली में आदिवासी भवन बनाने की मांग की है वहीं जनगणना कॉलम में आदिवासी धर्म-ट्राइबल धर्म कोड को शामिल करने के लिए राज्यों में मुख्यमंत्री और राज्यपाल को ज्ञापन सौंपने और देश भर में दो घंटे के लिए रेल का चक्का जाम करने का भी निर्णय किया गया है। राष्ट्रीय आदिवासी धर्म समन्वय समिति के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष देवकुमार धान के अनुसार हमारी मांग पूर्व की भांति जनगणना में आदिवासियों के लिए अलग धर्म कोड की व्यवस्था बहाल करना है। प्रारंभिक जनगणना से यह व्यवस्था थी। 1951 की जनगणना में भी आदिवासियों के लिए अलग कॉलम था जिसे 1961 की जनगणना में हटा दिया गया। यह आदिवासियों की पहचान, उनके अस्तित्व की लड़ाई है।