यूजी कृष्णमूर्ति, (उप्पलुरी गोपाल कृष्णमूर्ति) अद्वितीय भारतीय दार्शनिक और महान आध्यात्मिक विभूति थे। वे गुरु-विरोधी, आध्यात्मिक शून्यवादी, बिना दर्शन के दार्शनिक के रूप में वर्णित हुए। वे आत्मज्ञान खोजने वालों के कभी मददगार नहीं रहे, पर उनके व्याख्यानों और पुस्तकों से बड़ी संख्या में अनुयायी आकर्षित हुए। कृष्णमूर्ति ने आध्यात्मिक गुरुओं द्वारा बताए मार्गों को खारिज किया। उन्होंने कहा, ‘‘मेरी ओर रोशनी की आशा से देखने वालों के लिए मेरे पास कोई संदेश नहीं है, सिवाय इसके कि आत्मज्ञान प्राप्ति की सभी प्रणालियां बकवास हैं। मनोवैज्ञानिक उत्परिवर्तन असंभव है अतः जागरूकता के माध्यम से उस तक पहुंचने की बातें बकवास हैं। प्राकृतिक अवस्था केवल जैविक उत्परिवर्तन के माध्यम से हो सकती है।” उनका विद्रोही रुख पसंद करने वालों ने उनके ज्ञान का लाभ उठाया।
कृष्णमूर्ति का जन्म 1918 की 9 जुलाई को आंध्र प्रदेश के मसूलीपट्टम के ब्राह्मण परिवार में हुआ था । उनकी माँ ने ‘यूजी’ को जन्म देने के सात दिन बाद, मृत्यु से पूर्व, बेटे के लिए ‘भावी आध्यात्मिक संत’ होने की भविष्यवाणी की थी। कृष्णमूर्ति के पिता ने पत्नी की मृत्यु के तुरंत बाद दूसरा विवाह किया अतएव उन्होंने पिता का स्नेह कभी नहीं जाना। उनका पालन-पोषण नाना-नानी ने किया। कृष्णमूर्ति के नाना, तुम्मलपल्ली गोपाल कृष्णमूर्ति (टीजी कृष्णमूर्ति), धनी ब्राह्मण वकील और थियोसोफिकल सोसायटी के प्रमुख सदस्य थे । उन्हें बेटी द्वारा अपने पुत्र के लिए की गई भविष्यवाणी पर विश्वास था। उन्होंने कृष्णमूर्ति के पालन-पोषण और शिक्षा हेतु कानून की प्रैक्टिस छोड़ दी। दादा-दादी और पारिवारिक मित्र कृष्णमूर्ति को पिछले जन्म का ‘योगभ्रष्टा’ मानते थे। कृष्णमूर्ति शास्त्रीय हिंदू साहित्य में शिक्षा प्राप्त करके आध्यात्मिक गुरु बनने के लिए आगे बढ़े, मगर अंततः उस भूमिका को त्याग दिया।
नाना टीजी रूढ़िवादी ब्राह्मण और थियोसोफिस्ट थे अतः कृष्णमूर्ति की शिक्षा में रूढ़िवाद और अपरंपरागत के विविध, असंगत मिश्रण के साथ हिंदू धार्मिक मान्यताएं और थियोसोफिकल आध्यात्मिक मान्यताएं शामिल थीं। कृष्णमूर्ति ने बाद में कहा कि ‘‘उनके दादा मिश्रित व्यक्ति थे। बाद के वर्षों में उनके शैक्षिक द्वंद्व ने, दादा के आध्यात्मिक भ्रम के साथ, कृष्णमूर्ति की विश्वास प्रणाली को प्रभावित किया।’’ नाना, यूजी की आध्यात्मिक परवरिश हेतु तथाकथित पवित्र लोगों को घर में आमंत्रित करते थे। तीन वर्षीय कृष्णमूर्ति आगंतुकों की नकल करते थे पर ध्यान मुद्रा में समय बिताने हेतु उन्होंने वो मनोरंजन त्याग दिया। उन्हें उपनिषद, पंचदशी, नैष्कर्म्य सिद्धि सहित पवित्र पुस्तकों के साथ, इन कार्यों पर टिप्पणियां सिखाई गईं। सात वर्षीय कृष्णमूर्ति जटिल पुस्तकों के महत्वपूर्ण अंश पढ़ते थे। कृष्णमूर्ति को हिंदू धर्मग्रंथों और अध्यात्मवाद की शिक्षा के बाद आभास हुआ कि हिंदू और थियोसोफिस्ट, दोनों को अपनी मान्यताएं अपनाने और सच्चाई समझने से रोका गया। सत्य को स्वयं खोजने के एहसास ने उनके चरित्र की प्रकृति रेखांकित की। वे बचपन से विद्रोही और ईमानदार थे। 1925 में सात वर्षीय कृष्णमूर्ति को प्रार्थना में विरोधाभास महसूस हुआ। ईश्वर की अवधारणा अप्रासंगिक लगने पर प्रार्थना की शक्ति में उनका विश्वास खो गया। उन्होंने माना कि प्रार्थना की बजाए, इच्छा की ताकत से प्रार्थना की पूर्ति होती है।
कृष्णमूर्ति का अपने शिक्षकों के पाखंड देखकर मोहभंग हुआ। उन्होंने एक बार नाना को, एक परपोते द्वारा ध्यान के दौरान एकाग्रता भंग करने पर, उसकी कठोर पिटाई करते देखा, जिससे वो बालक बेतरह रोया। कृष्णमूर्ति ने इस घटना के बारे में टिप्पणी की, “ध्यान के पूरे व्यवसाय के बारे में कुछ मजेदार होना चाहिए। अभ्यासियों का जीवन उथला और खाली है। वे अद्भुत बातें करते हैं, लेकिन जीवन में विक्षिप्त भय है। उनके उपदेश उनके जीवन में लागू नहीं होते। क्यों?’’ ऐसे प्रश्न उनकी आध्यात्मिक खोज का आधार बने। कृष्णमूर्ति की घरेलू शिक्षा के पश्चात औपचारिक शिक्षा गुडीवाड़ा में हुई। चौदह से इक्कीस की आयु के बीच उन्होंने आध्यात्मिक अभ्यासों की विस्तृत श्रृंखला का अभ्यास ये निर्धारित करने के लिए किया कि ‘मोक्ष’ वास्तव में अस्तित्व में है या नहीं। कृष्णमूर्ति, आध्यात्मिक गुरुओं द्वारा प्रचारित ‘मोक्ष’ की अवधारणा को स्वयं अनुभव करना चाहते थे। अपने संस्मरण में उन्होंने लिखा कि, ‘‘मैं बहुत छोटा था लेकिन ये पता लगाने के लिए दृढ़ था कि ‘मोक्ष’ जैसी अवधारणा है तो मुझे ‘मोक्ष’ चाहिए। हर कोई ‘मोक्ष’ के बारे में क्यों बात करता है? मैं अपने बारे में जानना चाहता हूँ अतः इस दुनिया में ऐसा व्यक्ति होना चाहिए जो अवतार हो। यदि कोई है, तो मैं उसका पता लगाना चाहता हूँ।’’ कृष्णमूर्ति द्वारा मोक्ष प्राप्ति की दिशा में दर्ज अवलोकन ये है कि, “कोई भी वो अवस्था दे सकता है; मैं अपने दम पर हूँ। मुझे इस अज्ञात समुद्र में बिना दिशासूचक यंत्र, बिना नाव और मुझे ले जाने हेतु बिना बेड़े के जाना होगा। मैं स्वयं पता लगाने जा रहा हूं कि वो किस अवस्था में है। मैं यही चाहता था, नहीं तो मैं अपनी जान ना देता।”
कृष्णमूर्ति ने ऋषिकेश में स्वामी शिवानंद सरस्वती के साथ कई बार शास्त्रीय योग का अध्ययन किया। योग-ध्यान के अभ्यास से उन्हें विलक्षण आध्यात्मिक दर्शन और अनुभव हुए। ये पवित्र ग्रंथों में वर्णित ‘समाधि’, ‘सुपर समाधि’ और ‘निर्विकल्प समाधि’ अनुभवों के प्रकार थे। उन्होंने स्वयं के अनुभवों की वैधता पर भी सवाल उठाया, क्योंकि उन्हें लगा कि ये पूर्णरूपेण रहस्योद्घाटन नहीं वरन पूर्व ज्ञान पर आधारित अनुभव थे। उन्हें समर्पित वेबसाइट ने उनके विश्वासों को इस तरह प्रलेखित किया, ‘‘विचार आपके इच्छित अनुभव जैसे ‘आनंद, परमानंद या शून्य’ में पिघल जाने का निर्माण कर सकता है। लेकिन चूँकि मैं वो व्यक्ति हूँ जो यांत्रिक रूप से ये कर रहा हूँ अतः ये बात नहीं हो सकती।’’ कृष्णमूर्ति सारी खोजों के पश्चात इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि उन्हें जिसकी खोज थी वो नहीं मिला, इसलिए उन्होंने अन्य दिशाओं की ओर देखना आरंभ किया। कॉलेज से स्नातक की उपाधि प्राप्त करके वे थियोसोफिकल सोसाइटी में सम्मिलित हो गए। 1939 में मद्रास विश्वविद्यालय में दाखिला लेने पर वे नास्तिकता की ओर उन्मुख हो गए। उन्होंने मनोविज्ञान, पूर्वी-पश्चिमी दर्शनशास्त्र, रहस्यवाद और आधुनिक विज्ञान का अध्ययन किया, दर्शनशास्त्र तथा मनोविज्ञान में स्नातक की डिग्री प्राप्त की। फिर भी विभिन्न दार्शनिक, मनोवैज्ञानिक प्रणालियों के अध्ययन से प्रभावित नहीं हुए। कृष्णमूर्ति परिपक्व होने के साथ आध्यात्मिक निंदक के रूप में विकसित हुए। उन्होंने ‘पवित्र व्यवसाय के पाखंड’ की निंदा की, स्वीकृत सिद्धांतों और दर्शन पर सवाल उठाया और आध्यात्मिक क्षेत्र के स्वीकृत अधिकारियों को चुनौती देने लगे। उनका मानना था कि मानवता के उद्धार हेतु अवतरित हुए ‘बुद्ध, जीसस, रामकृष्ण परमहंस’ जैसे महानतम आध्यात्मिक शिक्षक स्वयं आत्म-भ्रम में थे अतः अनुयायियों को धोखा देते रहे।
1873 में अमेरिका में रूसी आप्रवासी हेलेना पेट्रोवा ब्लावात्स्की ने थियोसोफिकल सोसाइटी सह-स्थापित की थी। कृष्णमूर्ति 1941 में विश्वविद्यालय छोड़कर उसमें शामिल हुए । इस सोसाइटी का गठन हिंदू धर्म, बौद्ध धर्म और विभिन्न गुप्त शिक्षाओं के आधार पर हुआ था। स्वतंत्र विचारक, अज्ञेयवादी और नास्तिक इसकी ओर आकर्षित थे। इस सोसाइटी ने विश्वासियों और गैर-विश्वासियों को आध्यात्मिक व्यवस्था और समर्थन प्रदान किया। कृष्णमूर्ति ने सार्वजनिक वक्ता बनकर थियोसोफी पर व्याख्यान दिए, जिससे सोसाइटी ने पश्चिमी दुनिया को पूर्वी दुनिया के आध्यात्मिक विचारों से परिचित कराया।
1943 में कृष्णमूर्ति ने कुसुमा कुमारी से विवाह किया जिनसे उनके चार बच्चे हुए। थियोसोफिकल सोसाइटी के साथ पूरे यूरोप में उनका व्याख्यान देना जारी रहा। कृष्णमूर्ति 1955 में पोलियोग्रस्त बेटे की चिकित्सा और उपचार के लिए परिवार सहित अमेरिका गए। दादा की विरासत के कारण आराम से गुजरे जीवन में उन्हें काम की तलाश नहीं करनी पड़ी थी। 1950 में उनकी धनराशि कम होने लगी। उन्होंने अमेरिका के अपने व्याख्यानों में शुल्क लेकर, दुनिया के प्रमुख धर्मों और दार्शनिकों के बारे में बातचीत करना शुरू किया। इसी दौरान उनकी मुलाकात आध्यात्मिक शिक्षकों, ‘रमण महर्षि और जुड्डा कृष्णमूर्ति’ से हुई। पर उन्हें महसूस हुआ कि इन तथाकथित विभूतियों के पास उनके प्रश्नों के उत्तर नहीं हैं। तीव्र आध्यात्मिक असंतोष के कारण उनके व्यक्तिगत, व्यावसायिक, वित्तीय और वैवाहिक जीवन में उथल-पुथल मच गई। लगभग दो वर्ष व्याख्यानों में बोलने के बाद उनकी रुचि समाप्त हो गई। इसी दौरान विवाह भी समाप्त हो गया। विरासत समाप्त होने से दरिद्र हुए कृष्णमूर्ति ने पत्नी और बच्चों की भारत वापसी के बाद स्थान परिवर्तन किया। पत्नी की मानसिक संस्थान में मृत्यु के बाद उन्होंने परिवार के साथ दोबारा संपर्क स्थापित नहीं किया। वे 1961 में दीन-हीन स्थिति में पेरिस, फ्रांस, लंदन, इंग्लैंड में भटकते रहे। सेंटिएंट वेबसाइट में उद्धृत उनके विचार : ‘‘मैं व्यावहारिक रूप से बेवकूफ था, लोगों के दान पर जी रहा था और कुछ नहीं जानता था। मेरी कोई वसीयत नहीं थी। मुझे पता नहीं था कि मैं क्या कर रहा हूँ। मैं व्यवहारिक रूप से पागल था।’’ वे ‘मोक्ष’ के बारे में सोचते और स्वयं से पूछते कि, ‘‘राज्य क्या है?’’ उन्हें विश्वास हो गया कि वे संपत्ति-विहीन और अहंकार-रहित अस्तित्व के कारण दयनीय स्थिति में जी रहे हैं। उन्होंने जिनेवा, स्विट्जरलैंड में भारतीय दूतावास से भारत वापस जाने की मांग की। दूतावास में उनकी मुलाकात वैलेंटाइन डेकेरवन से हुई जो उन्हें अपने घर ले गईं। फिर वही उनकी मित्र, उपकारक और यात्राओं की साथी रहीं।
1967 में उनके 49वें जन्मदिन पर उनको रहस्यमय अनुभव हुआ जिसने उनका जीवन बदल दिया। सात दिनों तक उनके शरीर में जटिल शारीरिक परिवर्तन हुए जिन्हें ‘प्राकृतिक अवस्था’ कहा गया। उन्होंने बताया कि जैसे ‘‘उनके शरीर की हर कोशिका, हर तंत्रिका और हर ग्रंथि में अचानक विस्फोट हुआ हो।’’ उन्होंने कहा कि, ‘लोग सोचते हैं कि ये शानदार, आनंदमय, प्रेममय, परमानंद की अनुभूति है पर मेरे दृष्टिकोण से ये शारीरिक यातना है।’’ उन्होंने इस अनुभव को ‘आपदा’ के रूप में संदर्भित करते हुए इस आयोजन के महत्व को नगण्य कर दिया। 1970 में वे सार्वजनिक व्यक्ति बन गए। 1972 में भारतीय विश्व संस्कृति संस्थान में उन्होंने अंतिम व्याख्यान दिया। कृष्णमूर्ति का कोई संगठन नहीं था, कोई मुख्यालय, कार्यालय या निश्चित पता नहीं था। उनके संदेश लोगों तक किताबों और टेलीविजन के माध्यम से पहुंचे। 1982 में पहली पुस्तक ‘द मिस्टिक ऑफ एनलाइटनमेंट’ प्रकाशित हुई। 1986 में पहला टेलीविजन साक्षात्कार प्रसारित हुआ जिसके बाद कई रेडियो, टेलीविजन साक्षात्कार हुए। बढ़ती प्रसिद्धि के बावजूद उनकी जीवनशैली साधारण रही। वे दोस्तों के साथ या किराए के छोटे अपार्टमेंट में रहते थे और छह महीने से अधिक एक स्थान पर नहीं रुकते थे।
कृष्णमूर्ति की प्रकाशित कृतियां ‘द माइंड इज ए मिथ’, ‘द सेज एंड द हाउसवाइफ’, ‘थॉट इज योर एनिमी’ और ‘करेज टू स्टैंड अलोन’ हैं। उन्होंने अपनी पुस्तकों को कॉपीराइट की अनुमति ना देने का असामान्य कदम उठाकर समझाया, ‘‘मेरे शैक्षणिक शब्द कोई उपयोग करना चाहे तो कोई कॉपीराइट नहीं है। मेरी सहमति या किसी की अनुमति के बिना पुन: प्रस्तुत करने, वितरित करने, व्याख्या करने, विकृत करने, यहां तक कि लेखकत्व का दावा करने के लिए सभी स्वतंत्र हैं।’’ इस व्यवस्था ने उनके विचार सर्वाधिक लोगों के सामने उजागर किए। उनकी कृतियां कॉपीराइट ना होने से इंटरनेट की विभिन्न वेबसाइटों पर उपलब्ध हैं। कृष्णमूर्ति क्रूर और प्रेमपूर्ण व्यक्ति के रूप में वर्णित, पहेली बने रहे। 2007 में गिरकर घायल होने पर उन्होंने चिकित्सा से इंकार कर दिया। उनको विश्वास था कि उनका अंत जल्दी होगा अतः उन्होंने प्राकृतिक अंत का फैसला किया। वे इटली के वैलेक्रोसिया में दोस्तों द्वारा उनके लिए बनाए गए अपार्टमेंट में रहे। उन्होंने मृत्यु से डरे बिना, बहुत कम भोजन खाकर मृत्यु की प्रतीक्षा की। उन्होंने दोस्तों से कहा कि वे उनका शरीर फेंक सकते हैं। 2007 के 22 मार्च को उनकी मृत्यु हो गई। मृत्यु के अगले दिन दोस्तों ने उनका अंतिम संस्कार किया। उन्होंने अंतिम संस्कार में विशेष समारोह का अनुरोध नहीं किया। आध्यात्मिक गुरु की भूमिका अस्वीकार करते हुए उन्होंने कहा कि ‘मृत्यु के बाद कोई उनकी स्मृति को ना पूजे।’