राजस्थान में विवादित विधेयक को लेकर वसुंधरा राजे सरकार बैकफुट पर आ गई है। अब यह बिल सेलेक्ट कमेटी को भेज दिया गया है। माना जा रहा है कि भारी विरोध के चलते इस विधेयक को फिलहाल ठंडे बस्ते में डालने के लिए यह फैसला लिया गया है।
मंत्री, विधायकों, अफसरों और जजों को बचाने वाले विवादों से घिरे इस विधेयक पर राजस्थान सरकार को दोबारा सोच-विचार करना पड़ रहा है। इस विधेयक के पास होने के बाद लोकसेवकों और जजों के खिलाफ सरकारी मंजूरी के बगैर जांच करना मुश्किल हो जाएगा। साथ ही ऐसे मामलों की मीडिया में रिपोर्टिंग पर भी पाबंदियां लगाई गई हैं। प्रस्तावित विधेयक के तहत, किसी भी सरकारी अफ़सर, जज, मंत्री के ख़िलाफ़ लगने वाले आरोप की रिपोर्टिंग के लिए मीडिया को सरकार की अनुमति का इंतज़ार करना होगा! अन्यथा दो साल तक की सजा हो सकती है। सरकारी कर्मचारियों, मंत्रियों, जजों, मजिस्ट्रेट के खिलाफ बिना सरकार की अनुमति के जांच नहीं की जा सकेगी।
इसे लेकर मचे सियासी घमासान के बीच राजस्थान की मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे ने अपने मंत्रियों के साथ इस मुद्दे पर विचार-विमर्श कर रही हैं। सोमवार को ही उन्होंंने विधेयक पर पुनर्विचार करने के संकेत दिए थे।
इससे पहले राजस्थान विधानसभा में भी विवादित विधेयक को लेकर भारी हंगामा हुआ। इस पर आज विधानसभा में चर्चा होने की उम्मीद है। कांग्रेस के अलावा भाजपा के वरिष्ठ विधायक घनश्याम तिवाड़ी और नरपत सिंह राजवी ने भी इस विधेयक पर सवाल उठाए हैं।
इस बिल के विरोध में जयपुर के पत्रकारों ने आज पिंकसिटी प्रेस क्लब से विरोध प्रदर्शन करने का फैसला किया है। मानवाधिकार संगठन पीयूसीए और अधिवक्ता अजय कुमार जैन ने प्रस्तावित विधेयक को संविधान विरोधी बताते हुए इसे अदालत में चुनौती दी है।
क्या है अध्यादेश में?
आपराधिक कानून (राजस्थान संशोधन) अध्यादेश, 2017 के अनुसार, ड्यूटी के दौरान किसी जज या किसी भी सरकारी कर्मी की कार्रवाई के खिलाफ सरकारी अनुमति के बिना कोर्ट के माध्यम से भी प्राथमिकी दर्ज नहीं कराई जा सकती। हालांकि यदि सरकार स्वीकृति नहीं देती है तब 180 दिन के बाद कोर्ट के माध्यम से प्राथमिकी दर्ज कराई जा सकती है।
अध्यादेश के प्रावधानों में यह भी कहा गया है कि इस तरह के किसी भी सरकारी कर्मी, जज या अधिकारी का नाम या कोई अन्य पहचान तब तक प्रेस रिपोर्ट में नहीं दी जा सकती, जब तक सरकार इसकी अनुमति न दे। इसका उल्लंघन करने पर दो वर्ष की सजा का भी प्रावधान किया गया है।
‘प्रेस की आजादी पर अंकुश लगाने वाला कानून’
एडिटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया ने भी इस विवादित कानून का विरोध किया है। एडिटर्स गिल्ड का कहना है कि यह 'पत्रकारों को परेशान करने, सरकारी अधिकारियों के काले कारनामे छिपाने और भारतीय संविधान की तरफ से सुनिश्चित प्रेस की स्वतंत्रता पर अंकुश लगाने वाला एक घातक कानून' है।
अध्यादेश के खिलाफ हाईकोर्ट में याचिका
'दंड विधियां (राजस्थान संशोधन) अध्यादेश, 2017' के खिलाफ राजस्थान हाईकोर्ट में भी जनहित याचिका दाखिल की गई है। सीनियर वकील एके जैन ने दाखिल याचिका में इस अध्यादेश को 'मनमाना और दुर्भावनापूर्ण' बताते हुए इसे 'समानता के साथ-साथ निष्पक्ष जांच के अधिकार' के खिलाफ बताया है। इसमें कहा गया है कि इसके जरिए 'एक बड़े तबके’ को अपराध का लाइसेंस दे दिया गया है।
क्या कहती है सरकार?
राजस्थान की सरकार ये दलील दे रही है कि अध्यादेश लोगों के हित के खिलाफ नहीं है। मकसद ये है कि अधिकारी बिना दबाव के काम कर सकें। मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे ने विधानसभा सत्र प्रारंभ होने से पूर्व भाजपा विधायक दल की बैठक ली, जिसमें उन्होंने कहा कि विपक्ष के हमलों का जोरदार जवाब दिया जाए। इससे पहले विधानसभा पहुंचे सरकार के कई मंत्रियों ने पुन: दोहराया कि यह बिल भ्रष्ट लोकसेवकों को बचाने के लिए नहीं अपितु ईमानदार लोकसेवकों को झूठे मुकदमों में फंसने से रोकने के लिए है।
इतना ही नहीं राजस्थान सरकार के सूचना एवं जनसंपर्क विभाग के वेबसाइट में भी सरकार की ओर से इस संबंध में बयान जारी कर कहा गया कि भ्रष्टाचार के खिलाफ जीरो टोलरेंस की नीति पर कायम राज्य सरकार नए अध्यादेश में भ्रष्ट लोकसेवकों को कोई संरक्षण नहीं दे रही। राज्य सरकार द्वारा प्रख्यापित दण्ड विधियां (राजस्थान संशोधन) अध्यादेश, 2017 में ऎसा कोई प्रावधान नहीं है जिससे भ्रष्टाचार के खिलाफ जीरो टोलरेंस की राज्य सरकार की इच्छाशक्ति कमजोर हो रही हो। जीरो टोलरेंस की अपनी नीति पर कायम रहते हुए सरकार ने कहीं भी भ्रष्ट लोकसेवकों को संरक्षण देने की इस अध्यादेश में बात नहीं कही है।
इधर केंद्रीय विधि एवं न्याय राज्यमंत्री पीपी चौधरी ने इस विधेयक को लेकर कहा कि यह बिलकुल परफेक्ट और संतुलित कानून है। इसमें मीडिया का भी ध्यान रखा गया है और किसी व्यक्ति के अधिकारों का भी। इस समय में इस कानून की बहुत ज्यादा जरूरत है।