बुधवार 3 मई को मणिपुर के दो जिले बिशनुपुर और चूड़चंद्रपुर में अचानक भड़की हिंसा के बाद बड़े पैमाने पर मकान और दर्जनों गिरजाघर आगजनी के शिकार हो गए। यह हिंसा अगले दो दिनों के भीतर दूसरे जिलों में भी फैल गई। तीन दिन के भीतर मारे जाने वालों की संख्या 50 पार कर गई। अगले ही दिन केंद्रीय बलों के साथ कुछ इलाकों में सेना की टुकड़ियां भी उतार दी गईं। राज्य के पुलिस महानिदेशक पी. डुंगेल ने कहा कि केंद्र ने अनुच्छेद 355 के तहत कानून-व्यवस्था अपने हाथ में ली है। लेकिन केंद्रीय गृह मंत्रालय ने इस संबंध में कोई पुष्टि नहीं की। अगर ऐसा होता तो अपनी ही पार्टी की राज्य सरकार के खिलाफ केंद्र की शायद यह अप्रत्याशित पहल होती। यह बताता है कि हिंसा भी भीषणता के मद्देनजर राज्य सरकार के हाथ के तोते उड़ गए और वह अपनी ही सियासत में उलझ गई।
दो साल पहले भी इसी किस्म की हिंसा मणिपुर में भड़क चुकी थी। विवाद के केंद्र में जनजाति दरजे का मसला है जिस पर बहुसंख्यक मैती समुदाय के लोगों और अन्य आदिवासी समूहों के बीच टकराव है। इसके अलावा, दो साल पहले म्यांमार में कायम हुए तानाशाही शासन के कारण भाग कर मणिपुर आए और बसे लोग भी इस संकट का एक आयाम हैं, जिन्होंने यहां सैकड़ों गांव बसा लिए हैं। भारत सरकार कानूनन इन्हें शरणार्थी नहीं, घुसैपठिया और गैर-कानूनी मानती है। इस विवाद में एक और आयाम यहां अफीम की खेती और जमीनों और प्राकृतिक संसाधनों पर कब्जे का भी है। कुल मिलाकर, आदिवासी समूहों के बीच पहचान की लड़ाई है तो बहुत पुरानी, लेकिन इस बार एक खास वजह से ये जख्म हरे हो गए हैं।
ताजा विवाद
इस हिंसा का तात्कालिक कारण है मणिपुर हाइकोर्ट द्वारा 19 अप्रैल को मणिपुर सरकार को दिया गया निर्देश, जिसमें मैती समुदाय को अनुसूचित जनजाति में शामिल किए जाने की सिफारिश थी। कोर्ट ने राज्य सरकार को कहा था कि वह आदिवासी मामलों के केंद्रीय मंत्रालय को चार सप्ताह के भीतर ऐसा करने की सिफारिश भेजे। यह आदेश मैती समुदाय को अनुसूचित जनजाति में शामिल किए जाने संबंधी याचिका पर आया, जिसमें कहा गया था कि इससे समुदाय की परंपराओं का संरक्षण होगा और उनके पुरखों की जमीन, संस्कृति, भाषा बच जाएगी।
दस साल पहले भी ऐसा करने की कोशिश की गई थी, जब 2013 में केंद्रीय आदिवासी मामलों के मंत्रालय ने राज्य सरकार को एक पत्र भेजकर मैती समुदाय के अनुरोध को संज्ञान में लेने को कहा था। राज्य सरकार ने बीते दस वर्ष में केंद्र को ऐसी कोई सिफारिश नहीं भेजी, देरी की वजह भी नहीं बता सकी।
माना जा रहा है कि हाइकोर्ट का ताजा निर्देश ही हिंसा का कारण बना है। हिंसा के केंद्र में कुकी समुदाय और मैती समुदाय हैं। इस हिंसा की शुरुआत कुकी समुदाय के छात्र नेताओं के एक संगठन ऑल ट्राइबल स्टूडेंट्स यूनियन ऑफ मणिपुर (आतसुम) की रैली से हुई जो उन्होंने मैती समुदाय की मांग के खिलाफ आदिवासी एकजुटता के लिए निकाली थी।
मणिपुर विधानसभा में हिल एरिया कमेटी के अध्यक्ष दिंगांगलुंग गंगमेइ ने हाइकोर्ट के उक्त फैसले को सुप्रीम कोर्ट में 6 मई को चुनौती दी। उनकी याचिका में कहा गया है कि किसी समुदाय को जनजाति का दरजा देने की सिफारिश करना अदालत के न्यायाधिकार में नहीं आता है, यह काम राज्य सरकार का है। गांगमेइ खुद भाजपा के विधायक हैं। उन्होंने याचिका में लिखा है कि मणिपुर हाइकोर्ट का आदेश ही ताजा हिंसा का कारण बना है।
आदिवासी पहचान की लड़ाई
मणिपुर के ताजा संकट को मैती बनाम कुकी के रूप में आसानी से समझा जा सकता है। हालांकि तस्वीर इससे कहीं ज्यादा जटिल है। इस राज्य में कुल 34 मान्यता प्राप्त अनुसूचित जनजाति समुदाय हैं। मोटे तौर पर ये नगा और कुकी (या कुकीचिन) श्रेणियों में आते हैं। म्यांमार से भागकर आने वाले समुदाय भी चिन हैं, लिहाजा कुकी के साथ उनकी स्वाभाविक एकता बनती है। म्यांमार के लोगों को बसाने के लिए कुकी समुदाय और उनके चर्चों ने काफी मदद की है लेकिन इससे कुकी के प्राकृतिक संसाधनों और जमीनों पर बहुत बोझ भी बढ़ा है। मैती समुदाय इससे अपने को खतरा महसूस करता है, हालांकि वह अनुसूचित जनजाति की सूची में नहीं है और पहाड़ों में नहीं रहता, केवल घाटी में रहता है।
मणिपुर के कुल भौगोलिक क्षेत्र का 90 फीसदी हिस्सा पहाड़ी है। बाकी का 10 फीसदी इम्फाल की घाटी है, जहां बहुसंख्यक मैती रहते हैं। बाकी आदिवासी मोटे तौर पर ईसाई हैं। मैती अपने को हिंदू मानते हैं। राज्य की आबादी का आधे से ज्यादा मैती हैं और इनमें 70 फीसदी घाटी में ही बसे हुए हैं। बाकी के 30 फीसदी आदिवासी इलाकों में पहाडि़यों पर रहते हैं। इन मैतियों का राज्य की 10 फीसदी जमीन पर कब्जा है। नगा-कुकी आदिवासियों की परंपरागत भूमि व्यवस्था ऐसी है कि मैती या कोई और अनादिवासी समुदाय वहां जमीन नहीं खरीद सकता।
मैतियों की दलील है कि भारत में 1949 में विलय से पहले के मणिपुर में वे जनजाति के रूप में ही दर्ज हुआ करते थे। संविधान लागू होने पर उन्हें अनुसूचित जाति के दरजे से महरूम कर दिया गया। नगा-कुकी मैतियों द्वारा दोबारा अनुसूचित जनजाति में शामिल किए जाने की मांग का विरोध इसलिए करते हैं क्योंकि आबादी, राजनीतिक नुमाइंदगी और संस्थानों पर वर्चस्व के मामले में मैती ही मजबूत हैं। विधानसभा के कुल 60 विधायकों में से 40 मैती होते हैं।
दूसरे कारण
आदिवासी पहचान की लड़ाई के मूल में जमीन है, जिस पर कई कारणों से दबाव बढ़ता जा रहा है। हाल के वर्षों में आरक्षित वनक्षेत्र से कई आदिवासियों को बाहर निकालने की बाकायदा सरकारी मुहिम चलाई गई है। इसने आदिवासियों को भड़का दिया है। जमीन खाली करवाने के पीछे अफीम की खेती को बहाना बनाया जा रहा है, जबकि आदिवासियों की आजीविका का वह बड़ा स्रोत है।
इसके अलावा एक और ताजा कारण मणिपुर सरकार द्वारा दो उग्रवादी समूहों कुकी नेशनल आर्मी और जोमी रिवॉल्यूशनरी आर्मी के साथ कायम सस्पेंशन ऑफ ऑपरेशंस (एसओओ) को समाप्त किया जाना है। कई कुकी समुदाय के भाजपा विधायकों ने राज्य सरकार से समर्थन खींच लिया।
धार्मिक रंग
माना जाता है कि भारतीय जनता पार्टी की सरकार हिंदू होने के कारण मैती समुदाय के समर्थन में रहती है जबकि कुकी और नगा बड़ी संख्या में ईसाई हैं। ताजा हिंसा के दौरान 43 चर्चों का जलाया जाना इस बात का संकेत है कि जमीन से जुड़े जटिल मामले को धार्मिक रंग देने की भी कोशिश की गई है। हालांकि स्थानीय मानवाधिकार कार्यकर्ता ऐसे कई मामले गिनाते हैं जहां कुकी परिवारों ने मैती की और मैती औरतों ने कुकी लोगों की जान बचाई है।
मणिपुर ट्राइबल फोरम ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की है और हिंसा के लिए राज्य सरकार को दोषी ठहराया है। याचिका में हिंसा की जांच के लिए एसआइटी बनाने की मांग है। इस पर प्रधान न्यायाधीश डीवाइ चंद्रचूड़ की पीठ को सुनवाई करनी है।