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विश्व पृथ्वी दिवस विशेष: जीवन की कठिनाइयों और यहां रहने वाले लोगों की जिजीविषा को दिखाता 'थार रेगिस्तान'

थार रेगिस्तान का नाम जेहन में आते ही आंखों के सामने ऐसी तस्वीरें कोंद जाती हैं। जहां दूर - दूर तक फैला...
विश्व पृथ्वी दिवस विशेष: जीवन की कठिनाइयों और यहां रहने वाले लोगों की जिजीविषा को दिखाता 'थार रेगिस्तान'

थार रेगिस्तान का नाम जेहन में आते ही आंखों के सामने ऐसी तस्वीरें कोंद जाती हैं। जहां दूर - दूर तक फैला रेत का समंदर, दूर छोर से आता ऊँटों का कारवां, रंग- बिरंगी वेशभूषा पहनकर नाचते- गाते लोग उसे ओर भी खूबसूरत बना देते हैं। थार दुनियां का एकमात्र रेगिस्तान हैं। जहां सर्वाधिक जैव विविधता मिलती है। ये जैव विविधता दुलर्भ प्रकार की हैं।

थार का ऐतिहासिक, व्यापारिक, सांस्कृतिक व भू- राजनैतिक महत्व रहा है। यहां से सिंध, मुल्तान, काबुल और ईरान की तरफ हज़ारों की संख्या में कैमल कारवां गुजरा करते थे। जहां से वे यूरोप तक जाते थे। इस मार्ग को स्टील रूट कहा जाता था। ये सिल्क रूट से अलग था। इस व्यापारिक मार्ग को चलाने का उत्तरदायित्व बंजारों, लमाणा, ओढ़, बागरी, सिंधी इत्यादि घुमन्तु समुदायों पर हुआ करता था। व्यापार के साथ संगीत से जुड़े समुदाय, नाच गाना करने वाले मस्खरे समुदाय इसी रास्तों से यूरोप गए है।

थार रेगिस्तान हमें जीवन की कठिनाइयों और यहां रहने वाले लोगों की जिजीविषा को दिखाता है। इसको देखकर हमें पता चलता है कि ये क्षेत्र कितना संवेदनशील और दुर्लभ है। यहां एक तरफ गुजरात में फैला कच्छ का रण है। तो दूसरी तरफ पंजाब में नदियों के सिंचित मैदान। एक ओर अरावली पर्वत है। तो बीच में फैला विशाल बालू रेत के टीले।

 

यहां जिंदा रहने की एक अनिवार्य शर्त के अंतर्गत रेगिस्तान के स्वरूप की पहचान और उसके भावों के अनुसार अपनी जीवनशैली बनाना भी है। यहां लोगों की घुमन्तु जीवन पद्धति है। जो न केवल मानव के प्रकृति के साथ अनुकूलन को दर्शाती है बल्कि कुदरत को भी दोबारा से रिचार्ज होने का मौका देती है। जीव जंतुओं को फलने फूलने का अवसर देती है। मिट्टी दोबारा से अपने आप को समायोजित कर लेती है। पानी भी संग्रहित हो पाता है।

पहचान मिटाते नियम- कानून

पिछले कुछ समय से रेगिस्तान से हमारा ये नैतिक समझौता टूट गया है। आजीविका व रोजगार के नाम पर थार रेगिस्तान का भूगोल ओर यहां पाई जाने वाली जैव विविधता को समाप्त करने पर तुले हैं। हम इस क्षेत्र को भी महारास्ट्र का मराठवाड़ा व तेलांगना बनाना चाहते हैं। 

रेगिस्तान में आजीविका के रूप में घुमन्तू पशुचारण के बजाय स्थाई पशुपालन व मोटे अनाज वाली फसलों जैसे कि बाजरा, ज्वार के स्थान पर व्यापारिक फसलों का चयन। स्थानीय वनस्पति कैर, सांगरी, बोरडी, पीलू, धामण, सणीया के स्थान पर फल फूल की खेती करने लगे हैं। पिछले कुछ वर्षों में बढ़ते पर्यटन ने इस स्थान को बर्बाद कर रहे थे किन्तु राजस्थान की नई पर्यटन नीति जिसमें एडवेंचर टूरिज्म को बढ़ावा देना है। गुजरात मे रेगिस्तान की भूमि के 1984 के मैप को बदलकर नया मैप बनाकर उसे आबादी की जगहं में दिखलाकर उस पर पवन चक्की लगाना हो।

हरियाणा में पानी के प्राकृतिक व स्थानीय समुदायों द्वारा बारिश के पानी के संग्रहण हेतु बनाये गए गड्ढे जिन्हें गुण कहा जाता है। उन्हें भरकर वहां सुंदरता के नाम पर पार्क बना रहे हैं। आवास का निर्माण कर रहे हैं। कहीं उसे कब्जा लिया है तो कहां सड़क बनाने के नाम पर उपजाऊ भूमि को सरकार आर्थिक गतिविधियों को बढ़ाने का दावा कर रही है।

हम भूल जाते हैं कि रेगिस्तान की वनस्पति यहां के प्राकृतिक वातावरण के अनुकूल है। वो वर्ष भर यहां की स्थानीय लोगों व जीव जंतुओं की जरूरतों को पूरा करती है। रेगिस्तान में होने वाले केर, सांगरी, पीलू, बेर, कचरी, मतीरा जैसे फल -सब्जी हो या ज्वार- बाजरा, लाणा जैसे मोटे अनाज ये पोषक तत्वों से भरपूर हैं। ओर किसी भी स्थिति को झेलने के योग्य भी हैं। सणीया, धामण जैसी घास, आंकड़े की लकड़ी यहां रहने के लिए झुप्पी बनाने व बिछाने के काम आती रही है। पशुओं को चारा भी मिल जाता है। सबसे बड़ी बात इसके लिए कोई पैसा भी नहीं देना होता ओर बड़ी आसानी से उपलब्ध भी हैं।

थार मरुस्थल अक्टूबर महीने से लेकर फरवरी तक लाखों पक्षियों का आशियाना बन जाता है। एक रिपोर्ट के अनुसार 1980 के दश्वक में यहां 70 प्रजातियों के 5 लाख प्रवासी पक्षी आते थे। जिनमें स्टॉक, सुर्खाब, फेलकन, कुरजां, जल मुर्गी व अन्य जलीय पक्षी शामिल हैं। आज इनकी संख्या महज 30 हज़ार पर सिमट गई है।

लॉकडाउन के दौरान विश्व प्रसिद्ध रामसर साइट्स सांभर झील में हज़ारों पक्षियों की मौतों ने दुनियां का ध्यान खींचा था। एक्सपर्ट्स ने माना था कि इंसानी गतिविधियों में वृद्धि होने के कारण इस खारी झील की प्राकृतिक प्रक्रिया बाधित हुई है। आज ये झील दम तोड़ रही है। उसके किनारे सिकुड़ रहे हैं। पक्षियों का आहार कम हो गया है। वहां जहरीलापन बढ़ रहा है। किंतू उसके बाद हुआ कुछ नहीं।

रेगिस्तान में मनरेगा के गड्ढे खुदाएँ हैं। जो बहुत ही घातक है। हम जानते हैं की थार में महज 4 से 5 फीट तक ही चिकनी मिट्टी है उसके बाद बालू रेत है। मनरेगा में खोदे गड्ढों की गहराई भी इतनी ही है। यहां की मिट्टी की उत्पादकता का आधार यही चिकनी मिट्टी है। जब ये चली जाएगी तो मिट्टी में पानी कैसे रुकेगा? राजस्थान, हरियाणा व गुजरात मे इन गड्डो को आसानी से देखा जा सकता है।

रेगिस्तान में पानी की संरचनाओं में बेरी, तालाब, जोहड़, झील व बावड़ी रही है। जिनको बनाने वाले बंजारे व ओढ़  समुदाय के लोग रहे हैं। बेरी में प्राकृतिक रूप से उतना ही पानी एकत्रित हो पाता है, जितना वहां के लोगों को जीवन जीने के लिए चाहिए किन्तु उसके स्थान पर ट्यूबवेल खुदवा रहे हैं। मोटर से पानी खींच रहे हैं। हालात यहां आ गए हैं कि 80 फीसदी बेरी मिट्टी से भर गई हैं। इनमें अब पानी नहीं हैं।

रेगिस्तान को हरा भरा करने के नाम पर इंदिरा गांधी नहर का निर्माण किया था। वहां रेगिस्तान में चारों तरफ घास लगाई थी। कह रहे थे कि हरा- भरा करेंगे। उसी हरियाली से आकर्षित होकर पाकिस्तान सीमा को पार करके टिड्डियों का दल भारत आ गया। जिसका प्रभाव हमारे सामने है। ये पलक झपकते ही फसलों को चट कर जाती हैं।

सिमटती गोचर और चारागाह भूमि

इस भूमि से स्थानीय लोगों को जलाने हेतु लकड़ी ,पशु चारा, गोंद ,कोमट के बीच, खेजड़ी की सांगरिया, गूगल, शहद, विभिन्न प्रकार की औषधियां तथा विभिन्न प्रकार के वनस्पति उत्पाद प्राप्त होते हैं। इसलिए इन्हें स्थानीय लोगों के लिए प्राकृतिक संपदा का अक्षय गोदाम कहा जाता है।

औरण एवं गोचर ग्रामीण क्षेत्र में उपयोग में ली जाने वाली खाट बुनने के लिए मूंज, झोपड़ी बनाने के लिए लकड़ियां बाड़े की चारदीवारी तथा खेतों की मेड हेतु कांटों का उपयोग करते हैं। औरणों में पनपने वाला फोग तो ग्रामीण जीवन की धुरी कहा जा सकता है। राजस्थान के अरावली रेंज में घास के मैदान गम्भीर संकट के दौर से गुजर रहे हैं। सामुदायिक भूमि 2005-2015 के बीच लगभग 905 लाख हेक्टेयर से घटकर 730.2 लाख हेक्टेयर रह गई है।

सामुदायिक भूमि या पंचायती जमीन में चारागाह, वन भूमि, तालाब, नदियां व अन्य क्षेत्र शामिल किया जाता है, जिन्हें ग्रामीण समुदाय के लोग उपयोग कर सकते हैं। ये भूमि ग्रामीण जीवन को भोजन, चारा, पानी, जलावन- लकड़ी और आजीविका प्रदान करती है। ये जमीन ग्राउंड वाटर को रीचार्ज करती है, जैव विविधता को बनाती है।

इस भूमि को बचाने में घुमन्तु समुदाय रहे हैं। जो उस भूमि के मालिक नहीं बल्कि उसके केअर टेकर रहकर कार्य किया है किंतु राज्य सरकारों ने उन्ही समुदायों को यहां से बाहर कर दिया है। अरावली को सहेजने में पशुचारक और जोगी समुदाय रहा है। यहां की जैव विविधता को सहेजने में वन बागरिया, कालबेलिया, सिंगीवाल, व देवी पूजक हैं। जबकि यहां धार्मिक सद्भाव में लंगा, मांगणियार व भोपे रहे हैं। जो धर्म के जरिये लोक संस्कृति को दीशा देते हैं। ये लोक संस्कृति उस भूगोल को सहेजती है।

पारिस्थितिकी व लोक संस्कृति पर संकट

मिट्टी के धोरों पर जीप सफारी चल रही है. जो इन मिट्टी के धोरों को समतल बना रही हैं। जो यहां ऊँट पालकों की आजीविका को छीन रहा है। इतना ही नहीं रात्रि कालीन जीप सफारी व नाईट कैंपिंग रेगिस्तान की दुर्लभ जैव विविधता के लिए भी घातक है। यहां पाए जाने वाले जीव जंतु जिनमे हिरण, लोमड़ी, सेह, झाऊ मुस्सा, वाईपर सांप, बिच्छु, सांडा, छिपकलियाँ विभिन्न तरहं के पक्षी व कीटों की प्रजातियां विलुप्त हो रही हैं। यहां मिट्टी के धोरों पर हज़ारों की संख्या में रिसोर्ट व होटल्स चल रहे हैं। यहां रात भर डीजे साउंड बजाए जा रहे हैं।  ऊंट, भेड़ -बकरियों को रेगिस्तान से हटाकर, लोक संगीतकारों को यहां से बाहर निकालकर हम क्या हासिल करेंगे?

हम यदि तनिक भी पृथ्वी को लेकर संवेदनशील हैं। तो हमे पाकिस्तान के सिंध व पंजाब राज्य वाले क्षेत्र तथा भारत में गुजरात, राजस्थान व हरियाणा को मिलकर नीति बनानी होगी। उन नीतियों में आपसी सामंजस्य रहना चाहिए। पर्यटन की नीति, वहां के पशुचारकों की नीति व ऊर्जा व पानी के प्रबन्धन से जुड़ी हो। आर्थिक नीति व रेगिस्तान की जैव विविधता में संबंध रहना चाहिए।

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