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रेल हादसे: दरकता कवच

  “रेल दुर्घटनाओं में दोष चाहे नीति-निर्माताओं का हो मगर अमूमन लोको पायलट, गैंगमैन या ट्रैकमैन के...
रेल हादसे: दरकता कवच

 

“रेल दुर्घटनाओं में दोष चाहे नीति-निर्माताओं का हो मगर अमूमन लोको पायलट, गैंगमैन या ट्रैकमैन के मत्थे जिम्मेदारी मढ़कर भूल जाया जाता है, जरूरी है कि गहन पड़ताल के साथ पूरे तंत्र की कमजोरियों और कमियों की समीक्षा हो”

देश की सबसे भयावह रेल दुर्घटनाओं में 2 जून की शाम ओडिशा के बालेश्वर में हुआ रेल हादसा जुड़ गया जिसमें 275 से अधिक लोगों की मौत हो गई और 1175 लोग घायल हुए। तीन ट्रेनों के बीच हुई इस अनहोनी में दो यात्री गाड़ियां बेंगलूरू-हावड़ा सुपरफास्ट एक्सप्रेस और शालीमार-चेन्नै सेंट्रल कोरोमंडल एक्सप्रेस शिकार बनीं। युद्धस्तर पर चले राहत और बचाव अभियान में स्थानीय नागरिकों से लेकर रेलवे, ओडिशा सरकार और अन्य प्रांत भी शामिल हुए। घटनास्थल पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, ओडिशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक, पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी से लेकर रेल मंत्री अश्विनी वैष्णव, केंद्रीय मंत्री धर्मेंद्र प्रधान और तमाम आला अधिकारी और नेता पहुंचे। दुर्घटना को लेकर आरोप-प्रत्यारोप भी लगे। सरकार से सवाल पूछे जाने का क्रम जारी है। यह घटना जिस तरह से हुई और इसके जितने कोण हैं, उसमें रेलवे की लापरवाह सिग्नलिंग प्रणाली की खामी साफ तौर पर दिखती है। रेल संरक्षा आयोग ने जांच आरंभ कर दी है। इस बीच में रेल मंत्री अश्विनी वैष्णव ने इस हादसे की जांच सीबीआइ से करवाने की सिफारिश का ऐलान कर घटना को नया मोड़ दे दिया है। रहस्यमय अंदाज में उन्होंने पहले यह कहा कि “इस भीषण घटना के कारण का पता चल गया है। असल वजह और इसके लिए जिम्मेदार लोगों की पहचान कर ली गई है, लेकिन मैं विस्तार में नहीं जाना चाहता।” रेल मंत्री ने माना कि 'इलेक्ट्रॉनिक इंटरलॉकिंग' में किए गए बदलाव की पहचान कर ली गई है। 'प्वाइंट मशीन' की सेटिंग में बदलाव किया गया है, लेकिन यह कैसे और क्यों हुआ, इसका खुलासा जांच रिपोर्ट में होगा। इसके पहले प्रधानमंत्री ने घटनास्थल का जायजा लेने के बाद कहा था कि दोषियों को सख्त सजा मिलेगी। इस मामले की न्यायिक जांच की मांग भी उठ रही है और रेल परिसंपत्तियों के बदलाव के लिए व्यापक अभियान की वकालत भी होने लगी है।

रेल इतिहास की इस भयावह दुर्घटना ने हर नागरिक को हिला कर रख दिया, लेकिन सबसे अधिक बेचैनी रेलवे के आला अफसरों और रेल मंत्री को रही, जो गोवा में 3 जून को देश की 19वीं वंदे भारत ट्रेन के उद्घाटन समारोह की तैयारी कर रहे थे।

एनसीआरबी के अनुसार पिछले 10 वर्षों में ट्रेन हादसों में 2.6 लाख लोगों ने जान गंवाई है

एनसीआरबी के अनुसार पिछले 10 वर्षों में ट्रेन हादसों में 2.6 लाख लोगों ने जान गंवाई है

रेल मंत्री के लिए 2 जून अतिव्यस्तता भरा रहा।  रेल मंत्रालय द्वारा राजधानी में आयोजित दो दिवसीय चिंतन शिविर पर उनका पूरा ध्यान था। दोपहर बाद वे भाजपा मुख्यालय गए, जहां मोदी सरकार में रेलवे की नौ साल की उपलब्धियों को गिनवाते हुए दावा किया कि अब रेलवे का कायाकल्प हो गया है। साफ-सफाई देखने लायक है और सभी रेलगाड़ियों में विश्वस्तरीय शौचालय सुविधा है, रेलगाड़ियां समय पर चलने लगी हैं। रेलवे के विद्युतीकरण की गति बहुत तेज है। रेलवे से सालाना 800 करोड़ लोग सफर करते हैं जबकि सड़कों से 250 करोड़ और हवाई जहाज से 30 करोड़ लोग। बहुत से आंकड़ों के साथ रेल मंत्री ने तमाम क्षेत्रों में रेलवे की उपलब्धियां गिनाईं।

वहां से रेलवे चिंतन शिविर में पत्रकारों को सुरक्षा संरक्षा के साथ तमाम अन्य तथ्यों को रखा और प्रधानमंत्री के विजन 2047 की तारीफ के साथ रेल अधिकारियों से नई तकनीक और बुलेट ट्रेन परियोजना से सीखे सबक को अपनाने का आह्वान किया। अफसरों को सलाह दी कि वे रेल नेटवर्क के आधे हिस्से में ट्रेनों की गति को बढ़ाकर 160 किमी प्रतिघंटा करने पर चिंतन करें। यह जानकारी भी मीडिया को दी कि जून 2023 में देश के हर राज्य से होकर वंदे भारत एक्सप्रेस ट्रेन गुजरेगी और 2024 के आखिर तक यह 200 शहरों को कवर करेगी। वंदे भारत मेट्रो ट्रेन का संचालन भी निकट भविष्य में करने का संकेत देते हुए रेल मंत्री ने कहा कि इसके डिजाइन को अंतिम रूप दिया जा चुका है।

आज रेलवे में 3.20 लाख रिक्तियां हैं। सबसे अहम काम करने वाले लोको पायलट से लेकर रनिंग स्टाफ और ट्रैकमैन भारी दबाव में हैं

दुर्घटना स्थल पर राहत टीम 

इस आयोजन के बाद रेल मंत्री सीधे हवाई अड्डे निकल गए ताकि गोवा में गोवा-मुंबई वंदे भारत एक्सप्रेस को हरी झंडी दिखाने वाले कार्यक्रम की तैयारी का जायजा ले सकें। प्रधानमंत्री को वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के जरिये इस ट्रेन को झंडी दिखानी थी और रेल मंत्री को मडगांव स्टेशन पर दल-बल के साथ  मौजूद रहना था, लेकिन जहाज से गोवा पहुंचते ही रेल मंत्री को ओडिशा के इस भयावह हादसे की खबर मिली तो उलटे पांव दिल्ली लौटना पड़ा। तय हुआ कि दिल्ली से सीधे वे ओडिशा में दुर्घटनास्थल का दौरा करेंगे। वंदे भारत का समारोह रद्द कर दिया गया। रेल मंत्री ने घटनास्थल पर पहुंचने से पहले ही यह ऐलान कर दिया कि ट्रेन हादसे में मृतकों के परिजनों को 10 लाख रुपये और घायलों को 2 लाख रुपये से लेकर 50,000 रुपये तक की राशि रेल मंत्रालय देगा।

यह भी विचित्र संयोग है कि इसके पहले रेल इतिहास में पहली बार सूरजकुंड में जब प्रधानमंत्री की इच्छा से 18 से 20 नवंबर 2016 के दौरान पहला चिंतन शिविर रेलवे ने किया तो उसमें रेलवे बोर्ड अध्यक्ष से लेकर गैंगमैन तक पहुंचे, लेकिन सम्मेलन के आखिरी रोज यानी 20 नवंबर 2016 को इंदौर-पटना राजेंद्र नगर एक्सप्रेस झांसी कानपुर सेक्शन पर दुर्घटनाग्रस्त हुई, जिसमें 14 सवारी डिब्बे पटरी से उतर गए। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 800 रेल अधिकार‌ियों को भारी मन से संबोधित किया और कहा कि और मंथन करें ताकि दुर्घटनाएं न हों।

इस सम्मेलन का थीम था पांच साल में रेलवे के परिवहन में पीपीपी माॅडल शेयर बढ़ा कर 37 फीसदी करना, 8.50 लाख करोड़ रुपये के निवेश के साथ एक दशक में रेलवे का आकार तीन गुना करना, गैर भाड़ा आय को पांच साल में 15 फीसदी तक बढ़ाना, दुर्घटनाशून्य रेलवे के साथ यात्री सुविधाओं का विस्तार। लेकिन पांच साल बीत गए न रेलवे बदली न उसके काम का तरीका। 2015-16 में पहले से कम हादसे हुए लेकिन 2016-17 में हादसों की संख्या दो गुनी हो गई।

उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों के ठीक पहले इसी दुर्घटना की जांच का काम एनआइए ने केंद्रीय गृह मंत्रालय को पत्र लिख कर अपने हाथ में लिया था।

दुर्घटना की सड़क

मोदी सरकार में पहले रेल मंत्री बने कर्नाटक के पूर्व मुख्यमंत्री डीवी सदानंद गौड़ा लेकिन चंद महीनों में ही उनकी जगह यह पद 10 नवंबर 2014 को सुरेश प्रभु को दे दिया गया। अतीत में इस सीट पर नीतीश कुमार, लालू प्रसाद यादव, ममता बनर्जी, रामविलास पासवान, मल्लिकार्जुन खड़गे जैसे नेता रहे। जॉन मथाई, लाल बहादुर शास्‍त्री, गुलजारी लाल नंदा, ललित नारायण मिश्र और कमलापति त्रिपाठी, जाॅर्ज फर्नांडीस, माधवराव सिंधिया और सीके जाफर शरीफ जैसे बड़ी कद-काठी के नेता रेल मंत्री थे।

तमाम नए प्रयासों के बाद भी रेल मंत्री के तौर पर सुरेश प्रभु रेल बजट को समाप्त करने के साथ कुछ नई पहल करने में सफल तो रहे पर रेल दुर्घटनाओं के चलते उनको विदा होना पड़ा। मुजफ्फरनगर में कलिंग उत्कल एक्सप्रेस दुर्घटना के बाद वे संभल पाते कि इटावा में कैफियत एक्सप्रेस बेपटरी हो गई। भारी आलोचनाओं के चलते प्रधानमंत्री ने पहले रेलवे बोर्ड के अध्यक्ष ए.के. मित्तल को तलब कर फटकार लगाई, बाद में उनको त्यागपत्र देना पड़ा और मंत्री सुरेश प्रभु की भी 3 सितंबर 2017 को विदाई हो गई। बाद में यह पद पीयूष गोयल को सौंपा गया जो 7 जुलाई 2021 तक इस पद पर रहे। इसके बाद से नौकरशाह से नेता बने अश्विनी वैष्णव के पास यह दायित्व है। वे पहले ऐसे रेल मंत्री हैं जिसके पास इतने विशाल महकमे के साथ संचार, आइटी और इलेक्ट्रॉनिक्स जैसे अहम मंत्रालय भी हैं।

 बीती सदी में जबकि तकनीक कमजोर थी और संसाधनों की किल्लत थी तो भारतीय रेल की अलग स्थिति थी, लेकिन आज साधनसंपन्नता और फूलप्रूफ तकनीक के इस दौर में ओडिशा में जैसा रेल हादसा हुआ है वह कई सवाल खड़े करता है। तीन गाड़ियों की जिस तरह की भिड़ंत हुई है विशेषज्ञ उसे सीधे तौर पर उपकरण की खराबी की वजह से मानते हैं। बेशक ओडिशा और पश्चिम बंगाल की राज्य सरकारों और स्थानीय नागरिकों की सजगता के कारण राहत के कामों में समय रहते गति मिल गई, वरना हताहतों की संख्या और होती।  

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यह बात भी इस संदर्भ में प्रकाश में आ रही है कि जहां घटना हुई है, उस इलाके का सिग्नल ओवरएज हो गया था और स्थानीय यूनियनों ने इसे बदलने के लिए ज्ञापन भी दिया था। यह जांच का विषय है कि वास्तविक स्थिति क्या थी जिसके कारण समस्या आई, पर रेलवे की अपनी आंतरिक टास्क फोर्स की रिपोर्ट के मुताबिक हर साल करीब 200 सिग्‍नल ओवरएज होते हैं और 100 बदले जाते हैं। वहीं हर 4500 किमी ट्रैक या रेलपथ हर साल बदले जाने के लिए तैयार हो जाते हैं, पर बदलने का औसत 1500 किमी है। 1 अप्रैल 2022 की स्थिति में रेलपथ नवीनीकरण के लिए लंबित काम 9090 किलोमीटर था, जिस पर 54.402 करोड़ रुपए की लागत आंकी गई है। इस समय कुल बकाया काम करीब 15,000 किमी रेल पथ का है। 2023-24 में इस मद में आवंटन 1400 करोड़ रुपये रखा गया है। यह ऊंट के मुंह में जीरा से अधिक नहीं है।

एक लाख करोड़ रुपये के समर्पित राष्ट्रीय रेल संरक्षा कोष का सृजन सुरेश प्रभु के रेल मंत्री काल में हुए प्रयासों की देन था। इसका प्रमुख ध्यान रेलगाड़ियों की टक्कर, पटरी से उतरने और समपार दुर्घटनाओं को रोकना था, जो भारतीय रेल के 90 फीसदी दुर्घटनाओं का कारण बनते हैं। इस कोष से यातायात सुविधाएं, चल स्टॉक, समपार, रेल पथ नवीनीकरण, पुल और सिग्‍नलिंग जैसे कई ऐसे कामों पर व्यय होता है जो सीधे सुरक्षा संरक्षा से जुड़ा है। इस पर सालाना 20,000 करोड़ रुपये व्यय होना था लेकिन 2021-22 को छोड़ कर यह निधि किसी साल पूरा खर्च नहीं हुई। कोरोना के समय 2020-21 में अधिक तेजी से तमाम काम हो सकते थे, तब 315 करोड़ रुपये से भी कम व्यय हुआ। चालू और पिछले साल का आवंटन ही 11000 करोड़ रुपये रहा। फिर भी रेल संबंधी संसदीय स्थाई समिति का आकलन है कि 2017-18 में इस कोष की स्थापना के बाद से रेल दुर्घटनाओं और होने वाली मौतों की संख्या में काफी कमी आई है, पर अब भी सबसे अधिक दुर्घटना ट्रेन के पटरी से उतरने की हो रही है।

फिर भी भाजपा सांसद राधामोहन सिंह की अध्यक्षता वाली रेल संबंधी संसदीय समिति ने कहा है कि परिणामी रेल दुर्घटनाओं की संख्या 2020-21 में 22 से बढ़ कर 2021-22 में 35 हो गई है। समिति ने पाया है कि कोष जिस मकसद से बना था, उसमें कमजोरियां भारतीय रेल की क्षमता संबंधी खराब प्रभाव को दर्शाती हैं। महालेखा परीक्षक सीएजी भी इस समर्पित निधि के कम उपयोग पर सवाल उठा चुका है।

एक और अहम मुद्दा भारतीय रेल में कर्मचारियों की रिक्तियों से भी जुड़ा है। आज रेलवे में 3.20 लाख रिक्तियां हैं और संरक्षा श्रेणी में सबसे अहम काम करने वाले लोको पायलट से लेकर रनिंग स्टाफ और ट्रैकमैन सभी भारी दबाव में हैं। 1990 में चार लाख ट्रैकमैन भारतीय रेल के पास थे जिनकी संख्या आधी हो चुकी है। ठेके पर श्रमिकों को रख कर किसी तरह काम चलाया जा रहा है।

कवच का क्या

एक और अहम तथ्य उभरा है कि कवच स्वचालित गाड़ी सुरक्षा प्रणाली यहां लागू होती तो यह दुर्घटना टाली जा सकती थी और सिग्‍नल की खराबी की स्थिति में भी लूप लाइन पर जाकर ट्रेन 400 मीटर पहले रुक जाती। कवच को लेकर रेल मंत्रालय रक्षात्मक है। 2022 में आम बजट के दिन रेल मंत्री अश्विनी वैष्णव ने खुद ऐलान किया था कि कवच तकनीक से रेलवे यात्री ट्रेनों का परिचालन सुरक्षित बनाएगी। इस तकनीक को अमेरिका से लेकर दक्षिण अफ्रीका तक की रेलवे को आपूर्ति करने की योजना है। उनका कहना था कि 2 हजार किमी रेलवे नेटवर्क को कवच के तहत लाया जाएगा, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। इस समय दक्षिण मध्य रेलवे के 1455 किमी पर कवच प्रणाली लागू है। दिल्ली-हावड़ा और दिल्ली-मुंबई मंडल पर भी 3,000 किमी में काम प्रगति पर है। रेल मंत्रालय ने हाल में संसदीय समिति को सूचित किया है कि भारतीय रेल के उच्च घनत्व वाले 35,000 किमी मार्ग पर कवच को मंजूरी दी गई है। बाद में चरणबद्घ तरीके से सारे रेलवे नेटवर्क को कवर किया जाएगा।

जो बच गएः बालेश्वर ट्रेन हादसे में घायल लोग अलग-अलग अस्पतालों में भर्ती हैं

जो बच गएः बालेश्वर ट्रेन हादसे में घायल लोग अलग-अलग अस्पतालों में भर्ती हैं

जिस कवच की यहां चर्चा हो रही है, वह पीयूष गोयल के रेल मंत्री काल में ही परीक्षण के अधीन थी, लेकिन असली सवाल यह है कि ममता बनर्जी के रेल मंत्री काल में विकसित उस कवच का क्या हुआ, जिसे कोंकण रेलवे ने विकसित किया था।

यूपीए सरकार के दौरान 2010-11 में स्वदेशी टक्कररोधी उपकरण एसीडी पूर्वोत्तर सीमा रेलवे में पायलट परियोजना के तहत 1736 किमी लाइन और 543 रेल इंजनों में लगाने का काम आरंभ हुआ था, जिस पर 94.91 करोड़ रुपये की लागत आई। यह दोहरी लाइन का अविद्युतीकृत था। दूसरे खंड दक्षिण रेलवे में विद्युतीकृत लाइनों और स्वचाल‌ित सिग्‍नल वाले खंडों पर भी इसका परीक्षण हुआ था जिसमें कुछ परिचालन संबंधी समस्याओं के बाद एक नया एसीडी-2 वर्जन लगाने का फैसला हुआ और तीन रेलवे जोनों में 8486 किमी के लिए इन कामों को स्वीकृति दे दी गई।

इसका विकास कोंकण रेलवे ने किया और आरंभ से ही भारतीय रेलवे ने उसकी क्षमता को आंक कर मान लिया था कि यह भारतीय रेलों की संरक्षा आवश्यकताओं को पूरा कर सकती है।

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रेल मंत्री अश्वनी वैष्णव ने 4 मार्च 2022 को ट्वीट किया था कि एक्स‌िडेंट तो अब असंभव है। एक ही पटरी पर दो ट्रेन होंगी तो ट्रेन अपने आप रुक जाएगी। यह ट्वीट बालेश्वर दुर्घटना के दौरान भी खूब उछला। उनका कहना था कि ट्रेनों की रफ्तार चाहे कितनी हो लेकिन इस सिस्टम की वजह से ट्रेनें आपस में नहीं टकराएंगी। बेशक, ओडिशा में यह होता तो ट्रेन मालगाड़ी से टकराती नहीं और फिर तीसरी गाड़ी भी सुरक्षित रहती। यानी बेंगलूरू-हावड़ा सुपरफास्ट ट्रेन भी घटनास्थल से पहले ही रुक जाती, लेकिन मई 2022 में रेल मंत्री के ऐलान के बाद भी देश के कुल 13,215 बिजली इंजनों में से 65 कवच से लैस हैं। दक्षिण मध्य रेलवे की चल रही परियोजनाओं में 1,098 रूट किमी और 65 इंजनों पर कवच का उपयोग किया गया है।

भारतीय रेल इस विशाल देश की जीवनरेखा है। रोज ऑस्ट्रेलिया की आबादी जितने लोगों को गंतव्य तक पहुंचाने वाली यह रेल प्रणाली माल ढुलाई में भी एक दशक पहले अमेरिका, चीन और रूस के साथ एक अरब टन के विशिष्ट क्लब में शामिल हो चुकी है, लेकिन यह इसकी विशिष्टता है। जमीनी हकीकत यह है कि आज यह तमाम दबावों से जूझते हुए भारी वित्तीय तंगी से गुजर रही है। इसकी तमाम परिसंपत्तियों को बदलने के साथ यात्री और माल यातायात के बेहतर संचालन के लिए पहल करने की दरकार है।

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यह भारतीय रेल का दुर्भाग्य ही है कि यह बीते कई साल से तमाम रेल मंत्रियों की प्रयोगशाला बन गई है। जितने मंत्री आते हैं उनमें कई अपने तरीके से नए प्रयोग करते हैं। 1950 के बाद से भारतीय रेल में यात्री और माल परिवहन 16 गुना बढ़ा है, जबकि रेल लाइनों का विस्तार 25 फीसदी से भी कम हुआ है। इसकी सेवाओं की गुणवत्ता प्रभावित हो रही है और समय-पालन, संरक्षा, गाड़ियों की क्षमता, यात्रियों की सुरक्षा जैसी कई चुनौतियां खड़ी हैं।

अल्पनिवेश की शिकार

जब भी ऐसी दुर्घटनाएं होती हैं तो भारतीय रेल प्रणाली सवालों के घेरे में खड़ी हो जाती है। भारतीय रेल दशकों से अल्पनिवेश का शिकार रही है, जिस नाते बहुत सी दिक्कतें आईं। भारतीय रेल को और बेहतर तरीके से चाक-चौबंद करने के इरादे से 2017-18 से मोदी सरकार ने रेल बजट आम बजट में समाहित कर दिया। रेलवे का फोकस चार प्रमुख क्षेत्रों पर किया गया जिसमें पहला नंबर यात्री सुरक्षा है। ताजा घटना बताती है कि भारतीय रेल को नए सिरे से चाक-चौबंद करने की जरूरत है। अब भी बुनियादी मसलों की जगह जोर बाहरी चमक-दमक पर है। 14 सितंबर, 2017 को अहमदाबाद में मुंबई अहमदाबाद हाइस्पीड रेल परियोजना के भूमिपूजन के बाद से हाइस्पीड और बुलेट ट्रेन की चर्चा हो रही है। परियोजना इस साल पूरी होनी थी लेकिन लक्ष्य से भटक चुकी है।

गहन समीक्षा की दरकार

भारतीय रेल आज पूरी तरह नौकरशाही की जकड़न में है। इस नाते संरक्षा के मामले में अपेक्षित प्रगति नहीं हो पा रही है। अतीत में देखें तो सरकारी स्तर पर रेलवे संरक्षा के लिए कई समितियां बनीं, जिनकी सिफारिशों का रेलवे के कायाकल्प में सहारा मिला। 1954 में शाहनवाज कमेटी और 1962 में कुंजरू कमेटी से लेकर 1996 में वेंकटचलैया कमेटी बनी जिसने कई अहम सिफारिशें कीं। 1962 में रेल दुर्घटना समिति का मानना था कि रेल दुर्घटना में मानवीय चूक अकेला सबसे बड़ा कारक है। कुंजरू कमेटी के दौरान भारतीय रेलों में 77% ट्रेनों की टक्कर, 56% ट्रेनों का विपथन तथा 85% टक्कर केवल रेलवे के परिचालन विभाग के कर्मचारियों की गलती या भूल का परिणाम पाई गई थी। करीब 27% समपार दुर्घटनाएं भी रेल कर्मचारियों की विफलता से हुईं। समिति की अहम सिफारिश पर सरकार ने कई कदम उठाए और इसके कारण ही 1964 में मनो तकनीकी सेल भी गठित हुआ।

रेलवे की काफी महत्वपूर्ण उच्च अधिकार प्राप्त दुर्घटना जांच समिति 19 दिसंबर, 1977 के दौरान बनी जिसमें न्यायमूर्ति एस.एम. सीकरी, डॉ. मुरली मनोहर जोशी और खुर्शीद आलम खां जैसे दिग्गज शामिल थे। इसकी रिपोर्ट में आरपीएफ के 11,000 रक्षकों और 14,000 गैंगमैनों को आशंकाग्रस्त क्षेत्रों की लाइन पर तैनात करने की बात कही गई थी।

मौका मुआयना ः प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ रेल मंत्री वैष्णव और अन्य अधिकारी

मौका मुआयना ः प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ रेल मंत्री वैष्‍णव और अन्य अधिकारी

बाद में अटल बिहारी वाजपेयी सरकार में न्यायमूर्ति हंसराज खन्ना की अध्यक्षता में 1998 में रेलवे संरक्षा समिति ने भी रेलवे की गहन पड़ताल कर 150 अहम सिफारिशें दीं, जिसमें से 128 को रेलवे ने स्वीकार किया। उसी दौरान तय हुआ कि अपनी गतायु संपत्तियों के लिए रेलवे समयबद्ध कार्यक्रम बनाएगा। समिति की सिफारिश पर ही भारत सरकार ने रेलवे को एकमुश्त 12,000 करोड़ रुपये का अनुदान देने के साथ 5,000 करोड़ रुपये संरक्षा अधिभार से जुटा कर 2001 में 17,000 करोड़ रुपये की राशि से विशेष संरक्षा कोष बनाया, जिससे छह साल के भीतर गतायु पटरियों, पुलों, चल स्टॉक और सिग्नल प्रणाली में सुधार की रूपरेखा बनी।

खन्ना कमेटी ने ही सौ साल से ज्यादा उम्र के सभी असुरक्षित पुलों की नए सिरे से पड़ताल के लिए एक टास्क फोर्स बनाने की सिफारिश की थी। रेल फाटकों पर चौकीदारों की तैनाती के साथ कई कदम उस दौरान उठे जिसका असर लंबे समय तक बना रहा।

आज नैतिकता के आधार पर त्यागपत्र की मांग उठ रही है, लेकिन यह गौड़ है। लाल बहादुर शास्‍त्री का दौर अलग था। उन्होंने 23 नवंबर 1956 को तूतीकोरण एक्सप्रेस की दुर्घटना के बाद त्यागपत्र दे दिया था, हालांकि तब भारी बारिश और बाढ़ से पुल क्षतिग्रस्त होने के कारण तूतीकोरण एक्सप्रेस की दुर्घटना हुई, जिसमें 154 लोगों की मौतें हुईं। प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू की राय इतर थी, पर शास्‍त्रीजी ने इस्तीफा दिया और उसकी घोषणा पंडित नेहरू ने लोकसभा में 24 नवंबर 1956 को की। 2 अगस्त 1999 को गाइसल रेल दुर्घटना के बाद रेल मंत्री नीतिश कुमार ने भी इस्तीफा दिया।

आज भारतीय रेल कई गंभीर चुनौतियों से जूझ रही है, जिस तरफ सबसे अधिक ध्यान देने की जरूरत है। भारतीय रेल 13,523 यात्री और 9146 माल गाड़ियों का संचालन रोज करती है, पर यात्री गाड़ियों की औसत रफ्तार 50.6 और माल गाड़ियों की 24 किमी प्रतिघंटा है। रेलवे नेटवर्क के तहत वर्गीकृत उच्च मांग वाले काॅरीडोरों में पहली श्रेणी हाइ डेंसिटी नेटवर्क भारतीय रेल नेटवर्क का करीब 16% हिस्सा (11 हजार किमी रेलमार्ग) है लेकिन यह करीब 41% माल परिवहन करता है। वहीं 11 अतिव्यस्त मार्ग  (24230 किमी) भारतीय रेल नेटवर्क का करीब 35% हैं, जो 40 फीसदी यात्री परिवहन करता है। ये दोनों भारतीय रेल नेटवर्क 50% या 34,214 किमी बनते हैं। ये रेलवे का 80% बोझ संभालते हैं लेकिन इनका 100% से अधिक क्षमता उपयोग हो रहा है। इसके आकलन में यह पाया गया कि 25% नेटवर्क का 100 से 150% क्षमता उपयोग हो रहा है जबकि एक प्रतिशत ऐसा है जो क्षमता का डेढ़ गुना से अधिक उपयोग कर रहा है। उच्च घनत्व वाले नेटवर्क का 22% हिस्सा 150% से अधिक उपयोग में आ रहा है, जबकि 58% 100 से 150% क्षमता उपयोग कर रहा है।

संरक्षा, सुरक्षा और आधुनिकीकरण पर भारतीय रेल को ध्यान देने की दरकार है और भारत सरकार को आधुनिकीकरण के लिए भारी रकम देने के लिए रास्ता निकालना चाहिए। निजी निवेश से वह राह नहीं निकलेगी। अगर रेलवे को 160 किमी या अधिक गति की गाड़ियां चलानी हैं तो 9000 से 12,000 हार्सपावर के बिजली इंजनों की जरूरत है जिसमें काफी रकम लगेगी। अन्य तैयारियों और तकनीक पर  धन व्यय करना होगा। यात्री परिवहन आम मुसाफिरों लायक बने और सुरक्षित हो, जिस पर काफी निवेश चाहिए।

सरकारी विभागों में भारतीय रेल के कर्मचारी विशिष्ट स्थान रखते हैं। वे बेहद मेहनती और कर्तव्यनिष्ठ हैं। वे सुदूर इलाकों, खतरनाक घने जंगलों, तपते रेगिस्तान में 24 घंटे सेवाएं देते हैं। जब देश सो रहा होता है तो भी वे काम कर रहे होते हैं। लोग सुरक्षित सफर करें इसके लिए हर साल 400 से 500 गैंगमैन शहीद हो जाते हैं। रेल दुर्घटनाओं में दोष नीति निर्माताओं का होता है तो लोको पायलट, गैंगमैन या ट्रैकमैन को निशाना बना दिया जाता है। इस नाते जरूरी है कि इस रेल दुर्घटना की गहन पड़ताल के साथ पूरे तंत्र की कमजोरियों और कमियों की समीक्षा हो और वह रास्ता निकाला जाए, जिससे ऐसा दुर्भाग्यपूर्ण अवसर दोबारा देखने को न मिले।

मौत की पटरी

आजाद भारत में हुई रेल दुर्घटनाओं में 2 जून को कोरोमंडल एक्सप्रेस के साथ ओडिशा में हुआ हादसा सबसे त्रासद घटनाओं में एक है। बालेश्वर के पास तीन गाड़ियों की भिड़ंत में मारे गए लोगों की आधिकारिक संख्या  275 के आसपास बताई गई है जो ज्यादा भी हो सकती है। घायलों की संख्या हजार के करीब है। बताया जाता है कि इस ट्रेन में 2200 के आसपास यात्री सफर कर रहे थे।

मृतकों के परिजनः हादसे के बाद अपनों को तलाशती आंखें

मृतकों के परिजनः हादसे के बाद अपनों को तलाशती आंखें

भारतीय रेल दुनिया के सबसे बड़े रेल नेटवर्कों में से एक है। ग्रामीण क्षेत्रों में जीवन और आजीविका के लिए रेलवे केंद्रीय महत्व रखता है। आज भी देश की बड़ी आबादी रेल से चलती है, जो दूसरे महंगे साधनों से नहीं चल सकती। इसके बावजूद निराशा की बात यह है कि भारत की लगभग सभी रेल लाइनें, तकरीबन 98 प्रतिशत, 1870 से 1930 तक बनाई गई थीं यानी ये पटरियां सौ साल पुरानी हो चली हैं। इसके उलट, रेल के डिब्बे उत्तरोत्तर आधुनिक होते जा रहे हैं और रफ्तार तेज होती जा रही है। पटरी और वाहन के बीच का बेमेल रिश्ता मौतों का कारण बन रहा है। 

भारतीय रेल के इतिहास में सबसे घातक दुर्घटना 1981 में हुई थी जब एक सवारी ट्रेन बिहार में एक पुल को पार करते समय पटरी से उतर गई थी। इसके डिब्बे बागमती नदी में जा गिरे थे, जिससे अनुमानित 750 यात्रियों की मौत हो गई थी। कई शव ऐसे थे जो कभी बरामद नहीं हुए।

रेल हादसे

1980 से सदी के अंत तक प्रतिवर्ष औसतन 475 ट्रेनें पटरी से उतरती रही हैं यानी हर दिन एक न एक ट्रेन पटरी से उतर ही जाती थी। आपदा प्रबंधन पर विश्व कांग्रेस में रेलवे अधिकारियों द्वारा प्रस्तुत एक पेपर के अनुसार 2021 तक यह संख्या औसतन 50 से कुछ ज्यादा रह गई है। बेशक, इन आंकड़ों में 2020 और 2021 के दो साल शामिल हैं जब महामारी के चलते लगाए गए लॉकडाउन में रेलवे यातायात ठप रहा था। उससे पहले 2017 तक हर साल 100 से अधिक रेलयात्री मारे जाते थे।

घातक दुर्घटनाएं फिर भी बनी हुई हैं। 2016 में पूर्वोत्तर में आधी रात को 14 डिब्बे पटरी से उतर गए जिसमें 140 से अधिक यात्रियों की मौत हो गई और 200 अन्य घायल हो गए। 2017 में दक्षिण भारत में देर रात ट्रेन के पटरी से उतरने से कम से कम 36 यात्रियों की मौत हो गई थी और 40 अन्य घायल हो गए थे।

राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) रेलवे की दुर्घटनाओं में होने वाली मौतों को पांच श्रेणियों में बांटता है - ट्रेन का पटरी से उतरना, टकराना, विस्फोट/आग, ट्रेनों से गिर कर मरने वाले लोग और 'अन्य कारण'। एनसीआरबी से पता चलता है कि पिछले 10 वर्षों में ट्रेन दुर्घटनाओं में लगभग 2.6 लाख लोगों ने अपनी जान गंवाई है।

एनसीआरबी की 'भारत में आकस्मिक मौतें और आत्महत्याएं' रिपोर्ट के अनुसार 2011 में रेलवे दुर्घटनाओं में लगभग 25,872 लोग मारे गए। यह संख्या 2012 में बढ़कर 27,000 और 2013 में 27,765 हो गई जबकि 2014 में लगभग 25,000 पर आ गई। 2017 में ऐसी मौतें घटकर 24,000 हो गईं और 2019 (24,619) तक 25000 के नीचे बनी रहीं। सबसे नाटकीय गिरावट 2020 में आई जब कोविड-19 महामारी के चलते तकरीबन ठप कर दी गई रेल सेवाओं के कारण दुर्घटनाओं में होने वाली मौतों की संख्या घटकर 11,968 हो गई। जब सेवाएं खुलीं, तो अगले ही साल यह आंकड़ा 27 प्रतिशत बढ़कर 16,431 पर पहुंच गया, हालांकि यह महामारी के पहले के स्तर से काफी कम था। इसके पीछे रेल सेवाओं में किए गए अहम बदलाव थे।

आंकड़ों से यह भी पता चलता है कि अधिकतर मौतें लोगों के ट्रेनों से गिरने या उनकी चपेट में आने के कारण हुईं। एनसीआरबी के अनुसार 2021 में रेलवे दुर्घटनाओं में हुई कुल मौतों में से 11,036 इस श्रेणी में आते हैं, इसके बाद 5,287 "अन्य" मामले सामने आए हैं। 'अन्य' श्रेणी के अंतर्गत क्या आता है, यह नहीं बताया गया है।

पिछले पांच वर्षों के आंकड़े इसी रुझान को दिखाते हैं- 2017-21 के बीच रिपोर्ट की गई 1 लाख रेलवे दुर्घटनाओं में से 71,000 से अधिक लोगों की मौत या तो ट्रेनों से गिरने या कुचलने से हुई।  इसकी तुलना में ट्रेन के पटरी से उतरने की घटनाओं में केवल 293 लोगों की मौत हुई और टक्कर में 446 लोग मारे गए।

राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में महाराष्ट्र रेलवे दुर्घटनाओं से होने वाली मौतों के मामले में सबसे आगे है –2017 और 2021 के बीच यहां 17,000 ऐसी मौतें दर्ज की गई हैं। इसके बाद उत्तर प्रदेश (13,074) और पश्चिम बंगाल (11,967) का नंबर आता है।

घटता खर्च, बढ़ते हादसे

पश्चिम रेलवे में 2019-20 के दौरान हुए कुल खर्च 689.90 करोड़ रुपये में से ट्रैक नवीकरण पर केवल 20.74 करोड़ यानी 3 प्रतिशत खर्च किया गया

2017-18 से 2019-20 के बीच छह रेलवे जोन में ट्रैक रिनूअल पर खर्च कुल खर्च के 50 प्रतिशत से ज्यादा रहा

2017-18 से 2019-20 के बीच पूर्ण ट्रैक रिनूअल (सीटीआर) का लक्ष्य चुनिंदा रेलवे डिवीजनों में हासिल नहीं किया जा सका। इसकी वजह निर्माण सामग्री की कमी बताई गई।

ट्रैक रिनूअल के लिए आवंटित फंड 2018-19 के 9607.65 करोड़ रुपये से घटाकर 2019-20 में 7417 करोड़ रुपये कर दिया गया।

2017-18 में सात जोनल रेलवे ने 299 करोड़ रुपये सरेंडर कर दिए। 2018-19 में नौ जोनल रेलवे ने 162.85 करोड़़ रुपये सरेंडर कर दिए। 2019-20 में पांच जोनल रेलवे ने 11.68 करोड़ रुपये सरेंडर किए

2017-18 से 2020-21 के बीच पटरी से उतरने की कुल 1129 घटनाओं में 289 घटनाएं (करीब 29 प्रतिशत) ट्रैक नवीनीकरण न होने के कारण हुईं।

स्रोतः कैग <

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