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रातें रोशन करती सूरज की तीली

सिर पर सुर्ख गुलाबी रंग की साड़ी का पल्लू , कंधों पर शॉल लपेटे हुए साठ वर्षीय रतन कंवर अपने काम में मग्न हैं। उनकी टेबल पर बिजली की तारें बिखरी हुई हैं और आसपास सौर लैंप रखे हैं। पेचकस हाथ में लिए वह कलपुर्जे के किसी बारीक पेच को सुलगा रही हैं। पूछे जाने पर ठेठ राजस्थानी में बताती हैं ‘ सूरज लालटण बणा री सूं । ‘ रतन कंवर जयपुर के ओखड़ास गांव की रहने वाली हैं। दस साल पहले इनके पति का देहांत हो गया था। दो शादीशुदा बेटे और दो बेटियां हैं लेकिन सभी अपनी जिंदगी में मसरूफ हैं। रतन कंवर का कहना है कि यहां यह काम सीखने के बाद वह अपने गांव लौटकर सौर लैंप और लालटेन बनाएंगी और उसे मरक्वमत करने का काम भी करेंगी। पढ़ाई-लिखाई के मामले में रतन कंवर के पास बताने को कुछ भी नहीं है लेकिन इस उम्र में इस विधा को सीखने के उनके जज्बे को सलाम है।
रातें रोशन करती सूरज की तीली

एक रतन कंवर नहीं बल्कि इन जैसी अनेकों औरतें अजमेर के इस छोटे से गांव तिलोनिया के बेयरफुट कॉलेज में सौर प्रशक्षण ले रही हैं। 43 साल पहले समाज सेवी संजीत रॉय (बंकर रॉय) ने इसकी स्थापना की थी। यहां काम सीखने वाली महिलाओं के गांव भी अंधेरे में डूबे हुए हैं और इनका जीवन परेशानियों में गोते खा रहा है। लेकिन इस काम के जरिये न केवल इन महिलाओं को रोजगार मिल रहा है बल्कि इनके अपने गांवों में इन्हें पहचान भी मिल रही है। परविार में रुतबा मलि रहा है। इनके गांव अंधेरे से निकल उजाले से नहा रहे हैं। सौर घरेलू प्रकाश प्रशक्षिण ले इन महलिाओं के के जरिये देश-विदेश के हजारों गांवों में रोशनी पहुंच रही है।     

 

इस कॉलेज में 25 वर्षीय फूलवती बिहार के बोधगया जिले के गांव चांदो से आई हैं। इनके पति अपनी भाभी की हत्या के आरोप में जेल में बंद हैं। पति के जेल जाने के बाद ससुराल वालों ने फूलवति की बात न पूछी। चार बच्चों को पालने के लिए उसके पास कोई सहारा और रोजगार नहीं था। वह अपने बच्चों को लेकर तिलोनिया आ गईं। यहां उसे निशुल्क रहना-खाना और कपड़ा मिल रहा है। इसके अलावा 4,000 रुपये पारिश्रमिक भी मिलता है। वह बताती है कि काम करते हुए समय का पता ही नहीं लगता। वह काम के साथ-साथ अपने बच्चों की भी अच्छी परवरिश कर पा रही है। यहां इस काम को सीखने सिर्फ जवान ही नहीं बल्कि उम्रदराज महिलाएं भी आती हैं। इसकी वजह यहां के कार्यक्रम संयोजक भगवत नंदन बताते हैं ‘कई दफा उम्रदराज महिलाओं को उनके घर-परिवार में बहुत महत्व नहीं दिया जाता। अगर वे विधवा हैं तो हालात और खराब हो जाते हैं। इसलिए हमारा मानना है कि वे काम सीखकर गांव की पर्यावरण समिति की अहम सदस्य बनें। गांव के अहम मुद्दों में उनकी भूमिका रहे और घर से बाहर नए रिश्ते बनें। तिलोनिया में दूसरी संस्थाओं से भी महिलाएं यह काम सीखने आती हैं। सोशल एञ्चशन फॉर रूरल एडवांसमेंट (सारा) की महिलाओं ने भी इस विधा को सीखा है। 

 

इस संस्था की राजस्थान के गांव बरावता की 50 वर्षीय प्रभु बताती हैं कि सौर लालटेन और लैंप मरक्वमत का काम सीखने के दौरान उन्हें 4,000 रुपये मासिक मिलते थे। उसके बाद जितने काम का ऑर्डर मिलता है, उस हिसाब से भुगतान हो जाता है। प्रभु ने इन पैसों से अपने बच्चों को पढ़ाया-लिखाया। वह बताती हैं कि पति दिहाड़ी-मजदूरी करते हैं, उनकी कमाई में बच्चों की पढ़ाई नहीं हो सकती थी। चार साल से इस काम को करने वाली चंद्रकांता को लगता है कि अब घर की छोटी-मोटी जरूरतों के लिए उसे किसी से पैसे उधार मांगने की जरूरत नहीं। विमला बताती है कि राजस्थान में जो लोग ढाणियों में रहते हैं उन्हें बिजली विभाग की ओर से बिजली का कनेञ्चशन नहीं दिया जाता है। राजस्थान में ऐसी हजारों ढाणियां हैं। ये ढाणियां इन महिलाओं के जरिये सौर प्रकाश से ही रोशन हो रही हैं और यहां के मोबाइल इन महिलाओं की कोशिशों से घनघना रहे हैं। इससे पहले ढाणियों में रहने वालों के बच्चों तक की शादियां नहीं हो पा रही थीं। अंधेरे में डूबे इन गांवों की न तो कोई बेटियां ले जाता था और न यहां अपनी बेटी देता था।

 

40 वर्षीय गुलीदेवी इसलिए खुश हैं कि उनके बच्चे अब रात में भी पढ़ाई कर लेते हैं और रात में सब लोग एक साथ बैठकर भोजन करते हैं। सुबह जल्दी उठकर काम पर चले जाते हैं। भगवत नंदन का कहना है कि गांव की सहमति से वहां की एक महिला को गांव समिति तिलोनिया गांव सौर प्रशिक्षण के लिए भेजती है। बाकायदा इसके लिए गांवों में पर्यावरण समिती बनाई गई है। इसके लिए कुछ बजट भी निर्धारित किया जाता है। काम सीखने के बाद वह महिला गांव लौट कर अपने गांव को रोशन करने का काम करती है। काम सीखने की शर्त यह है कि महिला गरीब परिवार से हो या विधवा या फिर शारीरिक तौर पर अपंग।

 

भगवत नंदन बताते हैं कि ‘ सौर घरेलू प्रकाश व्यवस्था के अलावा जरूरी सामान जैसे सोलर पैनल, बैटरी, इलेञ्चट्रॉनिक चार्ज कंट्रोलर, वायरिंग किट, पैनल स्टैंड और एलईडी बल्ब आदि भी यहां से इन महिलाओं के गांव पहुंचाए जाते हैं। जैसा ऑर्डर हो वैसा सामान यहां से पहुंचा दिया जाता है।‘ उन्होंने यह भी बताया कि यह प्रशिक्षण भारत सरकार के आईटेक (इंडियन टेञ्चिनकल इकोनॉमिक कोऑपरेशन) और बाहरी मामलों का मंत्रालय से सहायता प्राप्त है।

 

कार्यक्रम के अन्य संयोजक लक्ष्मण सिंह बताते हैं कि हाल ही में तिलोनिया बेयरफुट कॉलेज को एप्पल कंपनी ने 60 टैब दिए हैं, जिसकी स्क्रीन पर बारीक कलपुर्जों को आसानी से देखकर समझा जा सकेगा। अब तक यहां देश के 13 राज्यों की महिलाएं इस काम को सीख चुकी हैं, जैसे बिहार, झारखंड, आंध्रप्रदेश, उत्तराखंड, कर्नाटका, असम, ओडिशा। कोका कोला फाउडंशन भी इस काम से जुड़ा हुआ है। सौर प्रशक्षिण के लिए कोका कोला फाउंडेशन कुछ स्वयं सेवी संस्थाओं को फंडङ्क्षग करता है। वह इस काम से कॉरपोरेट सोशल रिस्पांसिबिलिटी यानी कॉरपोरेट सामाजिक दायित्व के तहत जुड़ा हुआ है। जिन संस्थाओं को वह फंडिंग करता है उन संस्थाओं की महिलाएं भी तिलोनिया से घरेलू सौर प्रकाश प्रशिक्षण लेती हैं। 

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