वह कच्चे मकान में रहती थी। खाने की तंगी थी। अपनी कमाई से उसने पक्का मकान बनवाया। सहूलत की तमाम चीजें जमा कीं। वह बताती है कि एक रोज एक संस्था वाले गांव में आए। उन्होंने कहा कि जिसे भी सूरज की रोशनी से जलने वाले बल्ब बनाने और ठीक करने सीखने हों, वे संस्था से संपर्क करें। इस एवज में उन्हें मेहनताना भी दिया जाएगा। जन्नत बानों ने घर में अपने परिवार के सामने अपनी इच्छा रखी। वह बताती है कि ‘घर में सब से ज्यादा दिक्कत सास को थी। सास का कहना था कि जन्नत बानों के चले जाने से भेड़ें कौन चराएगा?’ जन्नत बानों ने कहा कि कुछ भी हो जाए लेकिन वह अब भेड़ नहीं चराएगी। सास ने कारण पूछा तो कहने लगी कि भेड़ चराने से पैसे नहीं मिलते।
इस तरह जन्नत बानो सास से झगड़ कर संस्था सोशल एक्शन फॉर रूरल एडवांसमेंट (सारा) के तहत सीकर सोलर लैंप और लालटेन की मरम्मत करने का काम सीखने चली गई। छह महीने वहीं रही। उसे 4,000 रूपये मासिक मेहनताना भी मिला। वह बताती है कि छह महीने बाद जब उसने अपनी पहली कमाई सास के हाथ पर रखी को सास खुश हो गईं। उन रूपयों में कुछ और रुपये मिलाकर जन्नतबानों ने अपने परिवार के लिए पक्का मकान बनवाया।
दरअसल इस इलाके के गांवों में ‘सारा’ संस्था और कोका कोला फाउंडेशन के सौजन्य से रोशनी के लिए सौर ऊर्जा का भरपूर इस्तेमाल किया जा रहा है। जयपुर-अजमेर मुख्यमार्ग पर गांव शोलावता में इनका सेंटर है, जहां जन्नत बानों जैसी अनेकों महिलाओं ने काम सीखा और आज भी सीख रही हैं। आज जन्नत बानों गांव की सोलर लाइट्स, लैंप और लालटेन रिपेयर कर लेती है। उसके हाथ में छड़ी और कड़छी की बजाय पेचकस और प्लास रहते हैं। जब कभी पास के गांव तिलोनियां से लैंप या लालटेन बनाने का बड़ा ऑर्डर मिल जाता है तो कमाई और अच्छी हो जाती है।