अगस्त 17 को अमृतलाल नागर जी की 99 वीं जयंती मनाई गई। वह पूर्वार्द्ध बीसवीं सदी में प्रेमचंद के बाद की पीढ़ी के एक महत्वपूर्ण लेखक थे। ‘अमृत और विष’ उनका प्रसिद्ध उपन्यास है। उपन्यास शैली में ही उनकी लिखित दो जीवनियां ‘खंजन नयन’ (सूरदास) और ‘मानस का हंस’ (तुलसीदास) हिंदी साहित्य की अन्यतम कृतियां हैं। लखनऊ पर केंद्रित भी उनकी कई रचनाएं हैं जिनमें ‘ये कोठेवालियां’ पुस्तक बहुत चर्चित हुई। वह ज्यादातर लखनऊ में ही रहे। यूं कुछ दिन बंबई (अब मुंबई) में रह कर फिल्मों के लिए भी लिखा था। लखनऊ से उन्होंने कुछ दिन तक हास्य-व्यंग्य का एक पत्र ‘चकल्लस’ भी निकाला था। मेरे पिता शिवपूजन सहाय से उनका विशेष पत्राचार चालीस के दशक में हुआ था जब वह ‘चकल्लस’ निकाल रहे थे। नेट पर और कुछ ब्लॉगों में उनके विषय में सूचनाएं मिलेंगी।
साहित्य के क्षेत्र से कम परिचित मित्रों के लिए लिखी मेरी इस छोटी-सी टिपण्णी का एक संस्मरणात्मक प्रसंग भी है जब संभवतः 1984 में मैं नागर जी से उनकी चौक वाली पुरानी हवेली में जाकर मिला था। मैं कुछ ही घंटों के लिए शायद पहली बार एक गोष्ठी में शामिल होने के लिए लखनऊ आया था। लेकिन मेरा असली मकसद नागर जी का दर्शन करना ही था। अपरान्ह में मैं चौक पहुंचा और स्थान-निर्देश के अनुसार एक पानवाले से उनका पता पूछा। बड़े उल्लास से उसने मुझे बताया, ‘अरे, गुरूजी इसी सामने वाली गली में तो रहते हैं।’ एक बड़े से पुराने भारी-भरकम दरवाजे की कुंडी मैंने बजाई। कुछ देर बाद एक महिला ने दरवाजा खोला। मैंने अपना परिचय दिया और एक लंबा आंगन, जिसके बीच में पेड़-पौधे लगे थे, पार कर एक बड़े-से कमरे में दाखिल हुआ। देखा नागर जी एक सफेद तहमद लपेटे खुले बदन बिस्तर पर पेट के बल लेटे लिखने में मशगूल थे।
मैंने अपना परिचय दिया तो मोटे चश्मे से मुझे देखते हुए उठे और मुझे बांहों में घेरते हुए कुछ देर मेरा माथा सूंघते रहे। अभिभूत मेरी आंखें भीग गईं। फिर मुझे अपने पास बिस्तर पर बैठाया और पुरानी स्मृतियों का एक सैलाब जैसा उमड़ने लगा। मुझे लगा जैसे मेरे पिता भी वहीँ उपस्थित हों। मैं देर तक उनके संस्मरण सुनता रहा और बीच-बीच में अपनी बात भी उनसे कहता रहा। मैंने देखा मेरे पिता के संस्मरण सुनाते-सुनाते उनकी आंखें भी भर-भर आती थीं। मैंने यह भी देखा कि उस कमरे की एक ओर अंधेरी दीवार पर मिट्टी की न जाने छोटी-बड़ी कितनी सारी मूरतें एक तरतीब से सजी थीं, जिनमें मेरी आंखें उलझी ही रही पूरे वक्त।
मैं नागर जी की बातें सुनता रहा उन माटी की मूरतों के अश्रव्य संगीत की पार्श्वभूमि में। मुझे लगा वहां कुछ समय के लिए अतीत जैसे हमारे पास आकर बैठ गया हो और एक ऐसा प्रसंग बन गया हो जहां कथा, कथाकार, श्रोता, कृतियां और संगीत सब एक मधुर झाले की तरह बजने लगे हों। मेरी यह तंद्रा तब भंग हुई जब किसी ने चाय लाकर रखी। नागर-दर्शन की वह दुपहरी मेरे जीवन का एक अविस्मरणीय प्रसंग है। नागर जी का वह स्नेहपाश, उनके वह संस्मरण जो हिंदी साहित्य के एक युग को जीवंत बना रहे थे’, उनकी आर्द्र आंखें, अंधेरी दीवार पर रखी माटी की वे मूरतें जो उनके कथा-संसार का एक मूर्त-नाट्य प्रस्तुत कर रही थीं – सबने मेरे मानस-पटल पर ऐसी छाप छोड़ दी जो अब अमिट हो गई। अब जीवन के अंतिम चरण में मैं उसी लखनऊ में आकर रहने लगा हूं और यहां रहते हुए आज उस अमर साहित्य-पुरुष को अपना शत-शत नमन समर्पित कर रहा हूं।
(कथाकार-साहित्कार मंगलमूर्त्ति की फेसबुक वॉल से)