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उपन्यास अंश - पच्चीस वर्ग गज

अर्पण कुमार का यह उपन्यास दिल्ली की पृष्ठभूमि पर लिखा गया है। अर्पण कुमार मूलतः कवि हैं, यह लेखक का पहला उपन्यास है। इस उपन्यास में दिल्ली की अलग छवि सामने आएगी। दिल्ली को दूसरे नजरिये से देखा जाता है यह उपन्यास इस शहर को नई दृष्टि देगा।
उपन्यास अंश - पच्चीस वर्ग गज

जटाशंकर बाबू कहां तो सबों से यह कहा फिरते थे, “देखिए अभिषेक का जन्म जिस दिन हुआ है न, उस दिन पैदा होनेवाले कई लोग पूर्व में मैरीन इंजीनियर बने हैं। सो मेरा यह बेटा आगे चलकर मैरीन इंजीनियर ही बनेगा,देख लीजिएगा”। मगर जब उसी अभिषेक ने मैट्रिक के बाद साइंस की जगह आर्ट्स में अपना नामांकन कराया तो वे एक शब्द नहीं बोले,जबकि स्ट्रीम बदलने के साथ ही पुत्र के माध्यम से देखे गए उनके सभी सपने एक झटके में धराशयी हो गए थे...

 

मैट्रिक की परीक्षा के परिणाम आ गए थे। अभिषेक को कोई 75 प्रतिशत के बराबर अंक आया था। अभिषेक अपने पिता के साथ पटना गया और वहां के सभी महत्वपूर्ण कॉलेजों में अपने पिता के दिशा-निर्देश में ही साइंसस्ट्रीम में आवेदन किया। पिता के ही कहने पर आर्ट्स स्ट्रीम में एकमात्र कॉलेज पटना कॉलेज में भी उसने आवेदन यूं ही कर दिया था।मगर पटना विश्वविद्यालय के नामी साइंस कॉलेज में उसका दाखिला जब नहीं हुआ तो वह तिलमिला कर रह गया। उसके कैशौर्य-कल्पना-लोक पर यह पहला बड़ा तुषारापात था।   

 

किसी विश्वविद्यालय विशेष का उसपर ऐसा भूत कब सवार हुआ, यह तो स्वयं अभिषेक भी नहीं जानता था। लेकिन गांव के अनुभवी लोगों का विचार था कि वह अपने चाचा रमाशंकर बाबू के प्रभाव में शुरू से था। वही रमाशंकर बाबू, जिन्होंने कभी पटना विश्वविद्यालय के साइंस कॉलेज में पढ़ाई की थी और बाद में सरकार से छात्रवृत्ति लेकर आगे की पढ़ाई के लिए इंग्लैंड तक गएथे। कहते हैं कि उनकी कहानियों को सुन-सुनकर अभिषेक का अवचेतन मन-ही-मन अपने चाचा को अपना आदर्श मान चुका था। और जब कुछ अंकों से उसका दाखिला वहां न हो सका तो जाने कैसे उसने धारा के विपरीत तैरने का फैसला कर लिया। जिस आर्ट्स के लिए उसके पिता ने ही यूं ही उसका फार्म पटना कॉलेज में भराया था, अब वही पटना कॉलेज उसका गुरुकुल बनने जा रहा था।  

 

इधर जटाशंकर बाबू एकदम से पलट गए इस खेल को नियति का ही कुछ इशारा मान रहे थे और अपने मन को किसी तरह मारकर रह गए। मरता क्या न करता! उन्होंने अपने बेटे की मंशा को ही अपनी खुशी बना ली। इस गेम-चेंज में मजे की बात यह रही कि वे अभिषेक से नाराज भी नहीं हुए। उनसे अधिक तो अभिषेक की मां सुलोचना देवी कुनमुनाई। वह स्वभाव से आलोचना-पसंद थी और उसकी यह प्रवृत्ति तब और तीक्ष्ण हो जाती जब कोई मामला अभिषेक से जुड़ा हो। जाने क्यों और कैसे उनके मन में यह घर कर गया था कि जटाशंकर बाबू अपने दूसरे बेटों की तुलना में अभिषेक को अपेक्षाकृत अधिक तवज्जो देते हैं और उसकी सही-गलत किसी भी बात को बिना सोचे-समझे मान लेते हैं। इससे अभिषेक का मन कुछ अधिक चढ़ गया है और उसके दूसरे भाइयों का मनोबल छोटा हो रहा है। इस संबंध में जटाशंकर बाबू अपनी पत्नी को कई बार समझा चुके थे। मगर उसके मन में यह विचार दिनों-दिन अपनी जड़ें अधिक गहरा जमाता चला जा रहा था। उसके भीतर का यह रोष कई बार अभिषेक पर जाहिर हो जाता। अभिषेक को बुरा लगता मगर फिर उसका किशोर मन इससे शीघ्र ही निजात पा लेता। यह किसी को पता न चला,  मगर सुलोचना देवी की इस दूर की कौड़ी से अभिषेक के दोनों छोटे भाइयों में कहीं न कहीं अपने बड़े भाई को लेकर प्रतिस्पर्धा पनपनी शुरू हो गई थी। उस समय तो खैर अभिषेक ही छोटा था तो उसके छोटे भाइयों की तो इन बातों की कितनी समझ होती, फिर भी व्यक्ति के मानस में कई बीजारोपण सुषुप्तावस्था में ही हो जाते हैं जो बाद में छायादार वृक्ष बनकर घर की बुनियाद तक को हिला देते हैं। इधर जटाशंकर बाबू की आदत थी, वे बहुत सफाई नहीं दे पाते थे। इसलिए कोई और चाहे उनके व्यवहार को कैसे भी समझे, उन्हें बहुत फर्क नहीं पड़ता था।

 

जटाशंकर बाबू ने चुपचाप भोले बाबा की तरह अपने बेटे के इस निर्णय को अविचलित भाव से स्वीकार कर लिया। अभिषेक को तो शायद इसका अंदाज़ भी नहीं हुआ होगा कि उसके पिता उसके इस निर्णय से कितना टूटे ! मगर यही विशेषता थी जटाशंकर बाबू कि उन्होंने स्वयं अपने मुंह से एक बार भी इस संबंध में अभिषेक से कोई चर्चा तक न की और अभिषेक को यह याद नहीं आता है कि उन्होंने इसे लेकर उससे कभी कोई कड़वी बातें कहीं हो। तब भी नहीं जबकि वह अपने बेटे को कुछ कह-सुनकर आर्ट्स में जाने से रोक सकते थे क्योंकि वे जानते थे कि अगर वे दृढ़तापूर्वक कहेंगे तो शायद अभिषेक उनकी बात टाल नहीं पाएगा, मगर वे यह भी जानते थे कि यह फिर अभिषेक पर पूरी तरह आरोपित उनका निर्णय होगा। संभव है कि भविष्य में इससे कुछ बेहतर न होकर कुछ बुरा ही हो जाए।जो भी हो, लब्बो-लुबाब यही था कि अभिषेक अब आर्ट्स में आ चुका था । साइंस पढ़ने से जो अवसर उत्पन्न हो सकते थे, उसने अपने लिए उन सभी अवसरों से एक झटके में खुद ही किनारा कर लिया था।जटाशंकर बाबू ने अभिषेक को तब भी कुछ नहीं कहा जब इंटर में आर्ट्स रखकर  उसने गंभीरतापूर्वक पढ़ाई करना काफी हद तक कम कर दिया था और उसकी पढ़ाई पटरी से क्रमशः नीचे उतरने लगी थी और वह गांव-जवार वालों की नज़रों में एकदम से बर्बाद हो चुका था। अभिषेक ने स्वयं अपने हाथों से अपनी साख गिरा ली थी।     

 

कहते हैं व्यक्ति के जीवन के कई मोड़ एक झटके में तय होते हैं। वे मोड़ कितने अच्छे और सफल साबित होते हैं, यह तो बहुत बाद में पता चलता है मगर मोड़ मुड़ते ही रास्ते बदल जाते हैं, इतना तो तय ही है न! खास-तौर से तब जब हम उस रास्ते पर चलने लगते हैं जिसपर हमें चलना ही नहीं था। मगर रास्तों का भी अपना कुछ फर्ज़ होता है। वे हमें कहीं-न-कहीं तो ले ही जाते हैं। फिर इससे क्या फर्क पड़ता है कि हम उनपर मन से चले थे या बेमन से या फिर किसी क्षण भर के आवेश के झोंके में आकर! अगर हम चल रहे हैं तो कहीं-न-कहीं पहुंचेगे ही। और जहां तक पहुंचेगे, वह हमारे द्वारा तय की गई यात्रा ही कहलाएगी। और अगर देखा जाए, तो मंज़िल होती क्या है! क्या वह हमारे मन की अपनी ही कोई पूर्वनिर्धारित मान्यता नहीं है! क्या सफलता और असफलता हमारी ही बनाई अवधारणा नहीं है! तभी तो जो किसी एक के लिए पड़ाव होता है वही किसी और के लिए मंज़िल बन जाता है। सच पूछा जाए तो व्यक्ति का मंजिल तो एक ही है, जब उसका सांस चलना रुक जाए, दिल धड़कना बंद कर दे। आखिरी मंज़िल तो वही है। चार कंधों पर चेतनाशून्य मृत देह की श्मशान तक की यात्रा। अभिषेक ने अपने कॉलेज के दिनों से इस तरह के विषयों पर सोचना शुरू कर दिया था।

 

जाने क्या बात थी, अभिषेक शुरू से ही अपने में डूबा रहनेवाला इंसान था। वह हरदम अपनी ही धुन में रमा रहता था। वह अंदर से बचैन रहता। अपनी ही उलझनों में उलझा हुआ मानो उसे भी किसी हातिमताई की तरह अपने सात सवालों के जवाब खोजने हों। मगर इसका यह अर्थ कतई नहीं था कि उसे आत्मकेंद्रित कहा जाए। हां, वह अपने जीवन के खुले समंदर में अपने हिसाब से डूबना या फिर उससे पार निकलना चाहता था। वह अपने पिता को कहता भी था,पिताजी! मुझे मेरे हिसाब से मेरा जीवन जीने दीजिए।फिर चाहे वह मेरे हित में हो या मेरे प्रतिकूल जाए, मैं उसे अपनाने के लिए तैयार हूँ।उसका हासिल जो भी होगा वह विशुद्ध रूप से मेरा हासिल होगा और उसकी जिम्मेवारी पूरी की पूरी मेरी होगी।अच्छे या कहें बुरे परिणाम के लिए मैं आपको या किसी और को तब दोष नहीं दे पाऊंगा”|  

 

जटाशंकर बाबू अपने ज्येष्ठ पुत्र की, जो तब किशोर ही था, ऐसी बातों पर कभी मन ही मन हल्की हंसी हंस लेते तो कभी उसकी इन बातों में छुपे अर्थ से कहीं भीतर तक डर जाते। जटाशंकर बाबू को अपनी चिंता तो न होती मगर अपने बड़े बेटे की इन बड़ी-बड़ी बातों से वे स्वयं उसको लेकर चिंतित हो उठते।

 

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