राजकमल प्रकाशन समूह द्वारा आयोजित इस परिचर्चा में बोलते हुए वरिष्ठ आलोचक नामवर सिंह ने कहा कि ‘साहित्य को फॉर्म और कंटेंट की कसौटी पर देखने की परंपरा है। फॉर्म एक हो सकता है, लेकिन कंटेंट क्या है-यह देखना जरूरी है। लोकतंत्र एक फॉर्म है, लेकिन लोकतांत्रिक तरीके से चुनकर आने वाला व्यंक्ति भी तानाशाह हो सकता है। हिटलर और स्टालिन भी चुनाव जीतकर आए थे। मोदी के आने के तरीके और उनकी बातों के तीखेपन को हम इसी आईने में देखते हैं।’ नामवर जी ने किसी भी समय में बुद्धिजीवियों की भूमिका को स्पष्ट करते हुए चाणक्य की एक पंक्ति उद्धृत की : ब्राह्मण (बुद्धिजीवी) न किसी के अन्न पर पलता है, न किसी के राज्य में रहता है, वह स्वराज्य में विचरण करता है।
चर्चा को आगे बढ़ाते हुए अनुपमा रॉय ने कहा कि ‘जनतंत्र और जनतांत्रिक राज्यों के बीच विरोधाभास स्पष्ट है। जन और तंत्र में तंत्र शासकीय प्रवृत्ति है जो शक्ति और सत्ता को एकीकृत करता है।’ अनुपमा ने सवाल किया कि क्या चुनाव ही एक माध्यम है, जिसमें जनतांत्रिकता साफ हो सकती है? जन आंदोलन जनतांत्रिक नागरिकता को जगह, जमीन देती है। लेकिन आज नागरिकता को कानूनी दायरे में संकुचित कर दिया गया है।
आदित्य निगम ने अपनी बात रखते हुए कहा कि ‘सियासत सिर्फ राजनीति की औपचारिक जमीन पर नहीं होती, वह हर जगह होती है। सियासत जब भी अपना दावा पेश करती है, तो एक खास लम्हे में किसी भी जगह किसी भी समय एक नये व्याकरण की खोज पर हमें मजबूर करती है।’ अपनी बात को मजबूती देने के लिए आदित्य ने सिंगूर, नंदीग्राम और इंडिया अगेंस्ट करप्शन सरीखे आंदोलनों का उदाहरण भी दिया।
मुसलमानों की नुमाइंदगी के सवाल को उठाते हुए हिलाल अहमद ने कहा कि, भारतीय जनतंत्र में मुसलमानों की नुमाइंदगी का सवाल सबसे बड़ा दिखता है, लेकिन दरअसल मुसलिम विविधताओं का सवाल सबसे बड़ा है। मुसलमानों में वर्ग है, जातियां हैं - जिनको नजरअंदाज किया जाता रहा है। नुमाइंदगी का एक ही फॉर्म क्यों होगा? मुसलमानों का नुमाइंदा कोई मुसलमान ही क्यों हो?’ राजनीतिक नुमाइंदगी पर अपना पक्ष स्पष्ट करते हुए हिलाल ने रिजर्वेशन में मुसलमानों की नुमाइंदगी को जनतंत्र के लिए जरूरी बताया।
रवीश कुमार ने मंच का संचालन किया। पहले सत्र में वक्ताओं से बातचीत करने के बाद दूसरे सत्र में सभागार में उपस्थित लोगों के प्रश्नों का जवाब दिया गया। ज्ञात हो कि राजकमल प्रकाशन की विमर्शपरक पत्रिका के नए संपादक अपूर्वानंद के संपादन में जो पहले दो अंक (अंक53-54) आए हैं, ‘भारतीय जनतंत्र का जायजा’ विषय पर केंद्रित हैं।