देश में चारों ओर आंदोलन की हवा है। मुद्दे हैं तो आंदोलन है। अब यह 'मुद्दे’ क्या बला हैं? अरे, होगी कोई बला, हमें लेना एक, न देना दो। अब इतने सारे झमेलों में इसका हिसाब कौन रखे कि देश में किसने रोटी खाई, कौन भूखा सोया। किस जानवर को घर के बड़े-बूढ़ों की तरह पूजें, किसे नहीं। गांधी को पूजें या गोडसे को। लाल रंग पहनें या हरा-केसरी। क्या खाएं, क्या न खाएं। पता नहीं कि किस मुद्दे पर मुंह खोलते ही देशद्रोही या भक्त करार दे दिए जाएं। इसलिए ज्यादा लोड नहीं लेना है। देखो पलड़े की बात है। जहां का भारी रहा, हमारी जाति, प्रदेश, स्लोगन, विचारधारा, लेखनी वैसी ही हो जाती है। और कन्फ्यूजन भी तो बहुत है न...। लेकिन इन सब के बीच आंदोलन में जाना बहुत जरूरी है।
आंदोलन का हिस्सा होने के पीछे कई वाजिब कारण हैं। कई फायदे हैं। मुद्दों की समझ गई तेल लेने। भई, चार लोगों से एक ही जगह मुलाकात हो जाती है। देखिए, कुछ और जरूरी हो या न हो लेकिन मुलाकात बहुत जरूरी होती है आजकल। दिखना जरूरी है। जो दिखता है, वह बिकता है। चार नामी लोग आए हुए होंगे वहां। मीडिया वाले, एक्टिविस्ट और नेता होंगे। अरे दिल्ली में कहां सभी को अलग-अलग नमस्ते करने के लिए सड़कें नापते फिरें। सभी एक ही जगह मिल जाते हैं। अरे पिछले वाले मार्च में सैंडी टीवी, साज तक, दैनिक खासकर, सबसत्ता, हरसत्ता, फ्यूज इंडिया सभी के संपादक भी आए थे। क्या है न कि संपादक लोगों की नजर में बने रहना चाहिए। अरे भई, नई नौकरी न भी मिली तो यूनिवर्सिटीज-कॉलेज में गेस्ट लेञ्चचरर, किसी महत्वपूर्ण सूची में नाम, किसी एनजीओ में कंसलटेंट टाइप, कुछ न कुछ छोटे-मोटे जुगाड़ की संभावना हमेशा बनी रहती है। और अभी एक नया काम भी तो शुरू किया है न, कुछ और नहीं तो उसके लिए ञ्चलाइंट ही मिल जाएंगे। नौकरी से आने वाली तनख्वाह तो पेंशन होनी चाहिए। दाल-आटे का खर्च दूसरे कामों से चलता रहना चाहिए।
आंदोलन का माहौल अगर गरमा गया तो हम भी सडक़ पर पसरने में पीछे नहीं हटेंगे। अरे पुलिस द्वारा घसीटते हुए ले जाने का फोटो अगर किसी अखबार में फ्रंट पेज पर छप गया न तब तो...। देखो यार, कई राजनीतिक पार्टियों में पत्रकारों की डिमांड बढ़ गई है। जितने ऐसे फोटो छपेंगे उतना पार्टी से टिकट पक्का है। चुनाव नहीं लड़ना है तो कम से कम प्रगतिशील टाइप लोगों की कतार में ही गिने जाएंगे। अब प्रगतिशील होना और दिखना दोनों वैसे हैं अलग-अलग। हम प्रगतिशील भले हों या न हों लेकिन प्रगतिशील दिखना तो बहुत जरूरी है। ठीक वैसे ही जैसे भक्त होने के नाते 'भारत माता’ से प्रेम करना जरूरी है। भारत माता जी से प्रेम के चलते किसी को चार लात-घूंसे मारने और किसी लडक़ी को अपशब्द कहने से यकीन मानें कोई फर्क नहीं पड़ता। भारत माता सब माफ कर देती है।
आंदोलन में कौन क्या बोल रहा है, क्या लेना? कहा न आंदोलन में जाने से प्रगतिशील टाइप तो लगेंगे ही। निजी जिंदगी में अपने ऑफिस में काम करने वाली जूनियर लड़कियों को सहयोग करने के बजाय बेशक उनका हक मारो, कौन देखने जा रहा है लेकिन जंतर-मंतर पर औरतों के हक में आवाज बुलंद करनी ही चाहिए। सार्वजनिक तौर पर कॉटन की साड़ी, मोटा काजल, लकड़ी के ईयररिंग्स, खिचड़ी बाल, खादी का सलवटों भरा कुर्ता और कोल्हापुरी चप्पलें पहनकर प्रगतिशील तो लगना जरूरी ही है।
आजकल एक और फैशन चला है, कुछ न बन पड़े तो किसी को भी पाकिस्तान जाने का फरमान दे दो। हमारे कहने से कौन सा कोई अपना झोला उठाकर पाकिस्तान चल ही देगा। यह भी न हो तो गूगल सर्च करने पर प्रगतिशील होने के ढेरों आइडिया मिल सकते हैं।
आंदोलन में जाने से अगर फोटो अखबार में न भी छपे तो दोस्तों से कहकर सोशल मीडिया पर तो वायरल करवा ही लेंगे। पिछली दफा वाला फोटो ठीक से नहीं आया था, पुलिस वाले को इतना उकसाया लेकिन उसने न तो ढंग से पीटा, न घसीटा। मान लो नौबत मारपीट की न आई तो? तो आंदोलन में जाने से और कुछ नहीं होगा तो पब्लिक रिलेशन तो है ही न। जिंदाबाद-जिंदाबाद, मुर्दाबाद-मुर्दाबाद, भारत माता की जय।