इसकी बड़ी वजह हनफी बताते हैं कि विषयों पर आधारित गजल की उम्र कम रही। जैसे आपातकाल के दौरान खूब गजलें लिखी गईं लेकिन उनका जिक्र उस दौर में ही रहा। हनफी के अनुसार गजल यानी कम से कम अल्फाज, मतानत, संजीदगी और शराफत से अपनी बात कहना। वह कहते हैं, ‘गजल के सिर औरतों से गुफ्तगू करने का दोष न मढें, दुनिया का कोई भी मौजूं विषय गजल का शेर हो सकता है।‘
शिक्षा एवं उपाधियां
दिल्ली के बाटला हाउस इलाके में रह रहे हनफी मूलरूप से मध्य प्रदेश के खंडवा के रहने वाले हैं। उन्होंने वहां वन विभाग में नौकरी की। उसके बाद दिल्ली में जामिया मिलिया इस्लामिया विश्वविद्यालय के उर्दू विभाग में इनकी नियुक्त हुई। फिर कोलकाता में इकबाल चेयर के प्राध्यापक रहे और उर्दू विभाग के अध्यक्ष भी नियुक्त हुए। हनफी को पं. दत्तात्राय कैफी अवॉर्ड (दिल्ली), इंटरनेशनल पोएट्री अवॉर्ड, इफ्तिखार-ए-मीर सम्मान, परवेज शाहिदी अवॉर्ड, गालिब अवॉर्ड, सिराज मीर खां सहर अवॉर्ड समेत कई पुरस्कार आदि मिल चुके हैं। कहानी, शायरी और आलोचना के क्षेत्र में कई किताबें हनफी के नाम हैं। जिनमें कुल्लिमात मुजफ्फर हनफी (2-खंड), मुजफ्फर की गजलें, सरीर-ए-खामा, तिलिस्म-ए-हर्फ, पर्दा सुखन का, परचम-ए-गर्दबाद, शख्सियत-और-फन आदि प्रमुख हैं। हनफी पर तीन पीएचडी हो चुकी हैं। मुशायरों में उनकी शायरी से समां बांधा जाता है।
गालिब जैसी बात नहीं-
हनफी के पसंदीदा शायर गालिब हैं तो पसंदीदा अफसानानिगार सआदत हसन मंटो हैं। वह कहतें ‘इकबाल की शायरी ‘ शिकवा और जवाब शिकवा ’ कम से कम 350 छंदों पर आधारित हैं, जिसमें खुदा से मुसलमान शिकायत कर रहे हैं और फिर खुदा उनकी शिकायतों का जवाब दे रहा है लेकिन वहीं गालिब उसी बात को एक शेर में कह जाता है। ’ हनफी ने मिसाल देते हुए बताया कि जैसे गालिब ने लिखा -‘ हैं आज क्यों ज़लील, के कल तक न थी पसंद, गुस्ताखिए फरिश्ता हमारी जनाब में।’ एक और, ‘ मकतल को किस निशात से जाता हूं मैं कि है, पुरगुल ख्याले जख्म से दामन निगाह का। ’ हनफी कहना है कि मीर तकी मीर और शाद आरफी भी उनके पसंदीदा शायर हैं। आरिफ का पसंदीदा शेर वह सुनाते हैं- ‘दिल में लहू कहां था कि इक तीर आ लगा, फाके से था गरीब कि मेहमान आ गया।’ मीर तकी मीर का ‘चश्मे तर उधर दिल को क्या हुआ, किसको खबर है मीर, समंदर के पार की।’ शाद आरफी के बारे में हनफी बताते हैं कि वह बहुत खुद्दार थे। सारी उम्र गरीबी में निकाल दी। उस समय जब रामपुर के नवाब के खिलाफ कोई बोलने की हिम्मत नहीं करता था तो आरफी साहब नवाब के खिलाफ लिखा करते थे। हनफी के अनुसार इकबाल, जोश, अख्तर शिरानी, मजाज, नरेश कुमार शाद, जिगर मुरादाबादी का लोगों में क्रेज है। युवा लोगों को इश्कियाना मिजाज अच्छा लगता है लेकिन इनमें गालिब जैसी बात नहीं।
प्रेमचंद के बाद सबसे बड़े मंटो
यह वर्ष 1963 की बात है। पाकिस्तान की मशहूर पत्रिका ‘अफगार’ ने भारत और पाकिस्तान के मशहूर कहानीकारों को एक सवालनामा भेजा कि प्रेमचंद के बाद दूसरे बड़े कहानीकार कौन हैं। सवालनामा पाने वालों में हनफी सबसे कम उम्र के कहानीकार थे। हनफी बताते हैं, ‘30 में से 27 लेखकों ने कृष्णचंदर को बड़ा कहानीकार बताया। भारत से एकमात्र मैंने सआदत हसन मंटो का नाम लिखा था। जिस वजह से भारत में कौसर चांदपुरी जैसों ने कहा कि अरे बच्चा है अभी, बचकानी हरकत की है इसने।‘ हनफी बताते हैं कि प्रेमचंद के बाद सआदत हसन मंटो ही सबसे बड़े अफसानानिगार हैं। उसकी बड़ी वजह यह है कि वह बेखौफ थे, वह भड़वे और तवायफों का मानवीय पक्ष मार्मिक तरीके से पेश करते थे। हनफी बताते हैं कि मंटो कहा करते थे, अगर कहानी में एक जुमला भी ऐसा है जिसके निकाल देने पर कहानी पर असर न पड़े तो उसे निकला देना चाहिए। मंटो की कहानियां वहदत-ए-तअस्सुर से भरी होती हैं। मंटो जो बात कहानी के एक पैरा में बोल देते थे, दूसरे लेखक फैला-फैला कर लिखकर भी पेश नहीं कर पाते थे। हनफी बताते हैं, ‘मैंने मंटो को अपने पिता जी से चोरी-चोरी पढ़ा है। पिता जी देख लेते तो कान खींच देते थे। नयाज फतेहपुरी और मंटो दोनों को पिता जी से चोरी पढ़ना पड़ता। यही नहीं, उन दिनों मंटो को ज्यादातर कहानीकार पसंद नहीं करते थे लेकिन आज के दौर में मंटो पर बात करना, उसे पढ़ना फैशन हो गया है। वक्त-वक्त की बात होती है।’
अच्छा लिखने का आधार संख्या नहीं
हनफी के अनुसार, ज्यादा लिखना बड़ी बात नहीं। अच्छा लिखा है और ज्यादा लिखा है तो बहुत ही अच्छी बात है लेकिन ज्यादा लिखा है और घटिया लिखा है तो कोई याद नहीं रखेगा, जानेगा नहीं। इसलिए बेशक कम लिखो लेकिन अच्छा लिखो। वह बताते हैं कि जैसे मजरूह सुल्तानपुरी ने केवल 45 गजलें लिखी लेकिन आज भी दुनिया उन्हें याद करती है। मंटो बहुत कम उम्र में मर गए लेकिन उन जैसा अफसानानिगार कोई दूसरा न हुआ। इसलिए अच्छा लिखने का आधार संख्या नहीं हो सकती।
जासूसी और बच्चों के लिए
कम लोग जानते हैं कि हनफी शुरूआत में अंग्रेजी जासूसी नॉवेल का उर्दू में अनुवाद करते थे और बच्चों के लिए लिखते थे। हनफी 6ठी कक्षा में थे जब उर्दू में शाया होने वाली खिलौना पत्रिका में उनकी कहानी छपी थी। ग्याहरवीं कक्षा में उन्होंने केस ऑफ रोलिंग बोन्स नाम के जासूसी नॉवेल का उर्दू में अनुवाद किया। इसके बाद खिलौना पत्रिका में लगातार उनकी कहानियां छपती रहीं।
खत्म हो रही थी उर्दू
हनफी बताते हैं कि बंटवारे के वक्त और उसके बाद 1960 तक उर्दू भाषा की हालत खराब रही। भारत के उर्दू कहानीकार भारत की बजाय पाकिस्तान की नुकूश, फुनुन, अदब-ए-लतीफ, अदबी दुनिया जैसी पत्रिकाओं में छपे, क्योंकि उस समय उर्दू भारत में सियासी भाषा बन चुकी थी। माना जाता था कि भारत-पाकिस्तान बंटवारे में उर्दू की अहम भूमिका रही है। उर्दू अखबारों में ऐसा बहुत कुछ छपा जिससे दोनों देशों के बीच दरार बंटवारे तक पहुंची। लेकिन 1970 के बाद सूरत-ए-हाल बदली। इसमें पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की अहम भूमिका रही। बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री जगन्नाथ मिश्रा ने बिहार में उर्दू को दूसरी भाषा के तौर पर स्थान दिया। फिर उत्तर प्रदेश, आंध्र प्रदेश, पश्चिमी बंगाल, मध्य प्रदेश, जम्मू-कश्मीर और राजस्थान आदि में भी उर्दू को स्थान मिला। हनफी के अनुसार, इसके बाद ही उनके जैसे लेखकों का भारतीय पत्रिकाओं में छपना मुमकिन हो पाया। हालांकि उस समय हनफी भारत में सबसे कम उम्र के कहानीकार थे जो पाकिस्तान की नामी पत्रिकाओं में छपते थे। आज भी वह जितने भारत के हैं उतने ही पाकिस्तान के भी हैं।