वाणी प्रकाशन के इक्यानवे प्रकाशन वर्ष के अवसर पर प्रकाशन के अरुण माहेश्वरी ने कहा, ‘नई रचनाशीलता को बढ़ाने की आवश्यकता है।’ इस मौके पर परिचर्चा भी आयोजित की गई थी जिसमें दर्शकों ने भी खूब उत्साह से भाग लिया। इस मौके पर संस्थान ने अपने पुराने कर्मचारी श्रीकांत अवस्थी के लंबे सहयोग को भी पहचाना और उन्हें सम्मानित किया।
परिचर्चा की शुरुआत करते हुए सूत्रधार अभय कुमार दूबे ने कहा, ‘मैं कुछ वैसा रास्ता अपना रहा हूं, जैसा ग्रुप डिस्कशन में, विपक्ष में बोलने वाला करता है, ताकि औरों को अन्य संभावनाएं मिल सकें और विषय की गहराई में जाकर बात हो।’ अभय दूबे ने इसी क्रम में कहा किताबों की एथनोग्राफी करना असंभव है, क्योंकि उनका विस्तार फलक इतना बड़ा और पुराना है की उसे कलमबद्ध नहीं किया जा सकता।’
मृणाल पांडे ने कहा, ‘यह जरूरी नहीं है कि सारे रहस्य खुल जाएं। कुछ अनसुलझा भी उत्सुकता बनाए रखने के लिए जरूरी है।’ उन्होंने हॉल में मौजूद श्रोताओं को कई दफा अपनी बातों से हंसाया। उनका यह कथन, हिंदी और उर्दू एक ही हैं बस लिपि बीच में न आई होती तो।’ उनका यह वाक्य सोचने को मजबूर करता है। किताबों के इतिहास में लाहौर से लखनऊ तक के छापाखानों और मुंशी नवल किशोर का महत्त्व मृणाल पांडे ने विस्तार से बताया। आशीष जी ने अपने विचारो को छोटी कहानियों की मार्फत समझाया। उन्होंने शिक्षा के उस रूप के महत्व को भी बताया जहां एक अशिक्षित शिक्षा देता है, मसलन कला के विविध क्षेत्रों में गुरु या उस्ताद का पढ़ा-लिखा होना जरूरी नहीं होता, वहां स्कूल की पढाई नहीं वरन परंपरा का ज्ञान होना ही शिक्षा होता है।’ आशीष नंदी कि यह बात, ‘रचनाकार झूठ का सहारा लेकर बड़ा सच कह जाता है।’ सुनकर हॉल में मौजूद श्रोताओं के चेहरे यूं हो गए, जैसे अभी-अभी ज्ञान की प्राप्ति हुई हो।
कार्यक्रम में प्रेमलता और ओम थानवी, वंदना और पंकज राग, प्रियदर्शन, शालिनी-निधीश त्यागी, पूर्वा भारदवाज, गीताश्री, मनीषा पांडे, वंदना सिंह, अनंत विजय और साहित्य-मीडिया कला से जुड़े तमाम लोग मौजूद थे। कार्यक्रम के बाद अदिति माहेश्वरी गोयल ने सभी का आभार प्रकट किया।